दूर-दूर तक, जहाँ धुआँ और धूल के
कारण दिखना ख़त्म हो जाता था, उससे भी आगे, सूखे, नंगे पथरीले
टीलों तक ये तंबू अस्त-व्यस्त से लगे थे, जैसे शहरों के बाहर
कचरा फेंकने की जगह होती है, दूर तक रंगहीन हवा में कंपकंपाता
काग़ज़, पॉलिथीन, रद्दी अख़बार, फटे कपड़ों, गत्ता, प्लास्टिक
शीट्स, केले के छिलके...मटमैले बदबू मारते घिसे हुए रंग,
जिन्हें घिन के साथ फेंक दिया गया हो।
हर तंबू में कुछ लोग हैं,
ज़्यादातर अकेले। कुछेक अपनी बीवी बच्चों के साथ। अपने साथ कोई
किसी को रखना नहीं चाहता, जब तक कि कोई मजबूरी ना हो। पर कुछ
लोग अपने रिश्तेदारों के साथ हैं। बहुत कम, इक्का
दुक्का...उनके कुछ परिचित जो अब तक लड़-झगड़कर अलग नहीं हुए
हैं।
एक से लोग, रुखे
बाल, धूप में जलकर लाल-काले हुए गोरे चेहरे, तार-तार होते
कपड़े जिनमें से ज़्यादातर गहरे ब्राउन रंग के मोटे लबादे थे,
जो पाकिस्तान की सरकार ने बाँटे थे। ज़्यादातर नंगे पैर और कुछ
घिसी-पुरानी चमड़े की जूतियाँ, गले या बाँह पर कोई ताबीज़, एक
मात्र ऐसी चीज़ जो मरने के बाद उनके साथ कब्र तक जाती है, बाकी
सब लोग नोच लेते हैं पर ताबीज़ से डर लगता है, सपाट भावहीन
चेहरे, ना हँसी, ना खुशी, ना पश्चाताप, ना उम्मीद...बस दो पलक
झपकाती आँखे...यंत्रवत।
यहाँ जीवन रगड़े खाने की
औक़ात है। कमज़ोर और बीमार...याने मौत। इसलिए यहाँ बच्चे बहुत
कम हैं...कहीं-कहीं इक्का दुक्का, ज़्यादातर अपनी पर्दानशीं
माँ से चिपके हुए...रोते-झींकते।
मुझे बताया गया है कि ये लोग लगभग डेढ़ लाख हैं।
रोज़ सुबह दस बजे ये सब लोग लाखों की तादात में, पत्थरों वाले
टीले के पार जहाँ पेशावर से आने वाली रोड़ गुज़रती है, इकट्ठा
हो जाते हैं। रंगबिरंगे और तरह-तरह की चमकीली चीज़ों से अटे
पड़े पेशावर सूबे के पाकिस्तानी ट्रकों का एक हुजूम इन लोगों
के लिए खाने के पैकेट लाता है। नार्थ वेस्ट फ्रंटियर स्टेट की
पुलिस और पाकिस्तानी आर्मी के सैनिक जो ज़्यादातर पख्तून हैं
या लोकल बाशिंदे रोज़ बेदर्दी से जानवरों की तरह इस अनियंत्रित
भीड़ पर लाठियाँ लेकर टूट पडते हैं। वे भीड़ को, जो खाने के
पैकेट के लिए बुरी तरह लड़ती झगडती है, नियंत्रित करने की
बेजान-सी कोशिश करते हैं। भीड़ में फटे-पुराने अफ़गानी नीले
लबादे-बुरके से सिर से पाँव तक ढँकी चीखती-चिल्लाती औरतें, एक
दूसरे को लात-घूँसा मारकर आगे बढ़ते आदमी, जिन पर मुश्टंडे
सिपाहियों की लाठियाँ भी बेअसर हो जाती हैं। यहाँ यह सब रोज़
होता है। बच्चे लाखों की दम घोंटू भीड़ से अलग रोते-चीखते खड़े
होते हैं। उनकी माएँ लगभग उन्हें फेंककर, भीड़ में लड़ती
झगड़ती समा जाती हैं। इस कातिलाना भीड़ में कभी-कभी कोई
कुचलकर-दबकर मारा जाता है। ज़्यादातर कोई औरत या बूढ़ा जिसका
शरीर धूल भरी ज़मीन पर बिखरा हुआ-सा पड़ा रह जाता है। सब चले
जाते हैं...बस एक या दो बेजान शरीर छूट जाते हैं, जिसके पास से
किसी के सिसकने की, या किसी बच्चे की चीख-चीखकर रोने की आवाज़
आती रहती है। फिर रात घिरती है और आवाज़ों को बंद होना पड़ता
है। कुछ लोग जिन्हें खाने का पैकेट मिल जाता है, खुश होते
हैं...ज़्यादातर आदमी जो लूट खसोट में कामयाब रहते हैं, जो
पुलिस की काफ़ी लाठियाँ सह सकते हैं...वे एक भय के साथ दमकते
चेहरे लिए तंबू पहुँचते हैं, तंबू की औरतें, आदमी और बच्चे उस
पर टूटते से गिड़गिड़ाते हैं। यह यहाँ रोज़ होता है। पूरा दिन
सिर्फ़ तीन काम ज़िंदा बने रहने के लिए ज़ोरमजस्ती, खाने की
लूट और अक्सर कुछ लोगों की मौत...सिर्फ़ तीन काम।
वह इन्हीं लोगों के बीच से
आता था। वह किसी बड़े अमीर घर में पैदा हुआ था। लगता नहीं था,
कि वह इसी भीड़ का हिस्सा है।
मरे हुए लोगों को दफ़नाना यहाँ एक बड़ा काम है। यह सरकारी
पुलिस करती है। एक मुल्ला जिसकी यहाँ ड्यूटी है, दफ़नाने के
समय फातेहा पढ़ता है। कभी-कभी किसी को दफ़नाते समय उसका कोई
अपना वहाँ पहुँच जाता है। कभी-कभी वहाँ पहुँचने वाला सिसकता
है, रोता है...पुलिस काग़ज़ों पर उसका अँगूठा लगवाती है। कभी
कोई सिपाही सिसकते-रोते आदमी के कंधे पर हाथ रख देता है, पर वह
औरतों के साथ ऐसा नहीं कर सकता। यहाँ औरतों को छूना हराम माना
जाता है। इसकी सख़्त मनाही है। वह औरतों से कुछ कह भी नहीं
पाता है क्यों कि ज़्यादातर औरतों को पख्तूनी, अंग्रेज़ी या
उर्दू नहीं आती है, ज़्यादातर औरतें पढ़ी लिखी नहीं है, और ठेठ
अफ़गानी बोलती समझती हैं।
कैंप से दूर पत्थरों वाले
टीले के पार, रोड और टीले के बीच फैली हज़ारों कि.मी. लंबी
बंजर ज़मीन पर सिपाहियों के टैंट लगे हैं। ज़्यादातर सिपाही
पाकिस्तानी आर्मी के सैनिक या रेंजर हैं और कुछ स्थानीय पुलिस
स्टेशनों के वर्दीधारी। पर सभी लोग एक ही शब्द से जाने जाते
हैं - दरोगा, अगर अलग-अलग जानना हो तो 'बड़ा दरोगा' और 'छोटा
दरोगा'। इन्हीं टैंटों के किनारे एक टपरीनुमा ढाबा है -
'भिश्ती बाबा का होटल'...यह उर्दू में लिखा है और उर्दू ना
जानने के कारण काफ़ी दिन बाद मुझे पता चला कि खालिद भाई की
दुकान का नाम भिश्ती बाबा पर है, एक सूफी बाबा जिसकी एक अनजान
और तुच्छ-सी मज़ार यहाँ से पास ही है।
इस कैंप में आए हुए पूरा एक
सप्ताह हो गया है। मैं यहाँ आने के बाद सिपाहियों के टैंट के
पास ही रहने लगा। इस तरह रोज़ पेशावर से आने की झंझट और यहाँ
की बेहतर कवरेज, बेहतर कहानियाँ, बेहतर फ़ोटो मैं अपने पेपर के
लिए पा सकता था। फिर यह सुरक्षित भी था। खालिद भाई के होटल में
ही मेरी एक खटिया लग जाती। खालिद एक पहाडी है, नार्थ वेस्ट
फ्रंटियर स्टेट के पूर्व में पहाड़ों पर रहने वाले पुराने लोग।
रात को होटल में सिपाहियों का हुजूम होता। ज़्यादातर दारू पिये
होते और अनर्गल बातें करते रहते। वहाँ हर रात बकरा, भेड़,
मुर्गा या गाय का मांस पकाया खाया जाता। वे उजड्ड और गँवार
किस्म के सिपाही थे। उनके चेहरे निर्दयी और पथरीले से लगते।
यद्यपि मुझे धीरे-धीरे पता चला कि उनमें से ज़्यादातर का अपना
परिवार है, बच्चे हैं और वे अपने परिवारों के बारे में अक्सर
बातें करते हैं। यह एक अजीब-सा मेल था निर्मम और उजड्ड से लंबे
तगडे, लाल-लाल आँखो वाले, दरिंदो की तरह मांस और दारू पीने
वाले ये सिपाही अपने घर-परिवार की बातें बड़ी संजीदगी से करते
थे।
इस कैंप में दूसरे
शरणार्थियों का आना अक्सर होता था। सामान्यत: वे किसी ट्रक में
या मिलिट्री की भारी भरकम गाड़ी में लाए जाते। उनके साथ कुछ
सैनिक होते। कभी-कभी एक या दो ट्रक भरकर सौ-डेढ़ सौ लोग, तो
कभी कोई एक मात्र परिवार आदमी-औरत और दो-तीन बच्चे, तो कभी कोई
अकेला आदमी या औरत या बच्चा। सबसे पहले पुलिस के टैंट में उन
सबके नाम लिखे जाते। एक तगड़ा-सा पख्तून जो अफ़गानी जानता था,
उनके नाम पूछता, फिर उन्हें कुछ चीज़ें दी जातीं तंबू का
कपड़ा, एक दो हिंडालियम के बर्तन, कत्थई रंग का लबादा एक आदमी
को एक के मान से, कुछ दवायें बुखार और उल्टी दस्त के लिए, तंबू
बाँधने की मोटी रस्सी...कुल जमा आठ या दस सामान जिसे लेकर वे
पथरीले टीले के पार फैले गंदले और बेदम इलाके में गुम हो जाते।
इस बस्ती का एक नाम भी है...जखूदी जिसका मतलब है - महफूज़
इलाका।
नये आने वाले लोगों को यहाँ
हिकारत से देखा जाता है। नये आने वालों को यहाँ दुत्कारा जाता
है। या तो उनका सामान छीन लिया जाता है या उन्हें मारा पीटा
जाता है। पर फिर भी नये लोग कहीं और नहीं जा सकते, सो उन्हें
वहीं कहीं अपना तंबू लगाना पड़ता है। अक्सर नये लोग अपने साथ
कोई छोटा-मोटा सामान लाते हैं, ज़्यादातर टीन की पेटी, चमड़े
का बैग, कपड़े की पुटरिया, सुतली या जूट से बंधा गठ्ठा...ऐसा
कुछ जिसमें तरह-तरह का सामान होता है - औरतों के बचे हुए
ज़ेवर, कुरान, सुन्नत या हदीस जैसी क़िताब, कुछ तस्वीरें,
इत्र, शीशा, रंग-बिरंगे कपड़े के टुकड़े, गोश्त काटने का चाकू,
काजल की डिब्बी, कुछ अफ़गानी नोट आदि, जिस पर बस्ती के दूसरे
आदमी औरतें गिद्ध की तरह नज़र गड़ाए रहते हैं और मौका पाते ही
लूट लेते। थोड़ी देर शोरगुल मचता। कोई औरत चीखती-रोती। फिर सब
शांत हो जाता।
वह इसी बस्ती से आता था।
उसका नाम नहीं पता। जब वह इस कैंप में आया था, तब रूस ने पहली
बार अफ़गानिस्तान पर हमला किया था। तब वह तीन साल का था और उसे
उसका नाम नहीं पता था। उसे उसकी बस्ती के ही कुछ लोग अपने साथ
ले आए थे। उसका पूरा परिवार माँ-बाप और दो बहनें लड़ाई में
मारी गई थीं। रूस के लड़ाकू जहाज़ों ने उसकी बस्ती पर बम गिराए
थे। पत्थरों की चिप और लोहे से बना उसका पूरा घर एक धमाकेदार
आवाज़ के साथ गिर गया था। चारों ओर लाल-पीली रौशनी तैर गई थी।
मानों दिन निकल आया हो और भयानक किस्म की चीख पुकार के बीच वह
जाने कहाँ मलबे में देर तक दबा रहा। कुछ लोगों ने जब उसका घर
खोदा तब वह उसमें मिला था। एक धुँधली-सी स्मृति आज भी उसके
भीतर चीत्कारती है। वह जब याद करता है, तो कुछ बौखला जाता है
और पागलों जैसी हरकत करने लगता है। उसने पहली बार देखा था कि
किस तरह मरे हुए लोगों को हड़बड़ाए, डरे और चीखते पुकारते लोग
गड्ढों में गाड़कर भागते हैं। वह बुरी तरह डरा था, जब उसके
बाप, माँ और बहनों को घसीटकर एक ही गड्ढे में फेंका गया था
जैसे कचरा फेंकते हैं। वह अपनी बड़ी बहन को यों फेंकते वक्त
बुरी तरह से चीख़ा था। यह उसकी आदत थी। वह चीखता था, जब कोई
उसकी बहन को चिढ़ाता या मारता था। उस दिन उसने उसकी बहन को
फेंकने वाले आदमी का हाथ अपने पैने दाँतों से काट दिया था और
उसे अजीब लगा था, जब उस आदमी ने उसे थप्पड़ मारने कि बजाय अपने
लबादे में भर लिया था।
वह किसी के साथ घिसटता-सा चल
रहा था। चारों ओर धमाकों के साथ आतिशबाजी-सी छूट रही थी। वह उस
आतिशबाजी को देखकर खुश हुआ था, फिर थोड़ी देर बाद माँ को
पुकारकर रोने लगा था। फिर एक धुँधली-सी सुबह याद है, वह चितराल
(उत्तर पूर्वी पाकिस्तान का एक शहर) था एक बड़े से घास के
मैदान में कुछ लोग पोलो खेल रहे थे। उसके साथ के बाकी सब खुश
थे...यह पाकिस्तान था, एक पराया मुल्क खुशी की बात तो थी ही..।
फिर वे किसी ट्रक से आए थे, सिपाहियों से भरा ट्रक...रास्ते से
गुज़रता एक गाँव जहाँ साँड़ों की दौड़ हो रही थी... चीखता
चिल्लाता हुजूम। उसे उन दिनों का कुछ और याद नहीं...।
वह बहुत सुंदर दिखता था। लड़के कहाँ इतने सुंदर होते हैं। पनीली-हरी बड़ी-बड़ी आँखें, संगमरमर-सा गोरा रंग, ब्राउन पतले
हवा में उड़ते बाल,.. जब वह धूप में भटकता तो उसके चेहरे का
गुलाबी रंग थोड़ा बदलकर चिकना और गहरा हो जाता। कैंप की सारी
गंदगी, धूल, लूट-खसोट...रेत भरी हवा बुरी तरह उस पर चिपकती,
उसे रोज़ और गंदला कर देती, पर पिछले कई सालों से वह ऐसा ही
सुंदर दीखता रहा है...वह इस बस्ती का बाशिंदा ना होकर, मानो
कहीं और से आया हो। उसे देखकर मुझे फ़रिश्तों की कहानियों पर
यकीन करने का मन करने लगता।
|