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आगंतुक एक तरह से उनका ध्यान बदल देते। लंबी बीमारी की एकरसता में ये क्षण अनमोल, प्रिय और प्रतीक्षित हो जाते। जी.टी. रोड की तरह उन्हें दुनिया से जोड़ते।

मोबाइल की घंटी बजते ही लगता जैसे किसी के दिल का तार उनके दिल से आ जुड़ा हो। मन में तरंगें-हिलोरे-सी उठने लगती। क्षण भर वे कॉल करने वाले की दुनिया में घुस जाते और देर तक वहीं विहार करते रहते।
ज़िंदगी में ऐसा वीराना और ऐसी प्रतीक्षा तो कभी नहीं थी। डाक्टर, नर्स, सफ़ाई कर्मचारी या किसी अटेंडेंट का कमरे में आगमन भी दिल की हलचल/ घटना होती।

वे आँखें मूँद सुस्ता भी लेते, सुदूर अतीत की यात्रा भी कर आते, इस आसन्न संकट का सोच दो बूँद आँसू भी ढुलका देते और भविष्य की चिंता में भी डूब जाते। मुँदी पलकों के भीतर अपने जीवन का दूरदर्शन परत-दर-परत खुलता रहता और लोग समझते कि वे चुपचाप सो रहे हैं। आराम कर रहे हैं। कभी असह्य दर्द से चिल्ला उठते तो नर्स झटके से दरवाज़ा खोल किसी फ़रिश्ते की तरह भीतर आ जाती।

दुर्भाग्य जंगली जानवर की तरह कैसे अचानक दबोच लेता है, जब हम उसकी तरफ़ पूर्णत: पीठ करके खड़े होते हैं। यह उन्होंने इस आकस्मिक त्रासदी के बाद ही जाना था।
दिमाग़ में बचपन में पढ़ी पंक्ति- 'वन कैन क्रॉस एन ओशन विदआउट वेटिंग वन्स लैग्ज़, बट कैन नॉट क्रास लाइफ़ विदआउट वेटिंग आईज' याद आती।

वे सदैव अपने को विशिष्ट मानते आए थे। इसलिए अपने कमरे में अकेले बैठ अख़बार पढ़ना, फ़ोन करना, टी.वी. देखना, स्टीरियो सुनना, चुपचाप गाड़ी लेकर निकलना और घंटो बिन बताए घर से ग़ायब रहने में उनका अहं तुष्टि पाता था। घर के लोगों से कम से कम बात करना या माथे के बलों का फ़ासला रखकर बात करना उनका स्वभाव था। घर के लोगों या उनके मिलने-जुलने वालों को वे अपने से हेय ही मानते रहे। उनके मन में किसी के प्रति आत्मीयता, स्नेह या सम्मान का प्रश्न ही नहीं था।

नित्य प्रात: पाँच बजे एक कप चाय पीकर भगवान के दर्शन को जाते थे और घर जाकर आराम से ब्रेकफास्ट करते थे, पर उस दिन उन्हें वहाँ से सीधे अस्पताल पहुँचा दिया गया। वे पैर फिसलने से सर्जिकल बोन तुड़वा बैठे और ग्यारह बजे से उन्हें ग्लूकोज़ की बोतलों का ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर मिलने लगा। हर आने जाने वाले से ज़रा से होंठ टेढ़े करके परिहास में यही बात कहते कि मंदिर से यह फ्रैक्चर भगवान के प्रसाद की तरह मिला है।

टाँग में रॉड डली थी। स्क्रू डले थे, उस पर अट्ठाइस टाँके लगे थे। मानों स्ट्रेपलर से काग़ज़ की तरह स्किन जोड़ दी गई हो। तन की ऐसी चीर-फाड़, जीवन में क्षण भर के लिए भूकंप आ गया। सब धुर से हिल गया।
वे अक्सर पूछते- डॉ. साहिब मैं छह सप्ताह में ठीक तो हो जाऊँगा। सब ओर से एक ही उत्तर आता-आप ठीक तो हो जाएँगे, पर आपको घूमने-फिरने की इजाज़त अभी नहीं इतनी जल्दी नहीं देंगे।

अस्पताल विषयक उनका अनुभव मात्र इतना था कि कभी-कभार जीवन में किसी पड़ौसी या संबंधी की ख़बर लेने चले जाते या कभी किसी के यहाँ खाना पहुँचाने की डयूटी लग जाती। वे दो-एक हॉट केस, थर्मस या दूसरे लिफ़ाफ़े पकड़े पहुँचा आया करते। उनका मन सदैव निर्लिप्त रहता। कब सोचा था कि कभी किसी ऐसे ही अस्पताल में बीमार की हैसियत से रहना होगा।

यह रिप्यूटेड और महानगर का सबसे महँगा अस्पताल है। कार्डियालाजी, जनरल सर्जरी, आर्थोपिडिक्स, न्यूरालोजी, गाइनेकॉलोजी, लैपरोस्कोपिक सर्जरी, डर्माटोलोजी, ई.एन.टी., पैथोलोजी, डैंटल एंड मैक्सो फेशियल सर्जरी, टुबरक्लाज़िज़ एंड रेस्पायरेटरी, यूरोलोजी वगैरह सभी के रोगी यहाँ आते हैं और हर बीमारी का स्पैशलिस्ट गेस्ट एपीयरेंस देता है। बाहर बड़े बोर्ड पर विज़िटिंग डॉक्टरों के नाम इस प्रकार लिखे हैं कि हर आने जाने वाला प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। अस्पताल में 1200 से 1500 तक छोटे कर्मचारी, 2000 से 2500 तक नर्सें, 4000 से 5500 तक डॉ०- इन रेटों पर अस्पताल में काफ़ी मैन पॉवर इकट्ठी हो जाती है।

पूरा अस्पताल नर्सों, अटेंडेंट या सफ़ाई कर्मचारियों की रौनक लिए रहता। स्पैशलिस्ट डॉ. तो दिन में एक ही बार चक्कर लगाते और हर कमरे में दो एक मिनट रुक कर चल देते। अस्पताल के मेडिकल ऑफ़िसर तीन चार चक्कर लगा जाते। वे किसी भी रोगी को स्पैशलिस्ट से पूछे बिना कभी कोई दवाई नहीं देते, लेकिन हर रोगी को एक साइक्लोज़िकल तुष्टि अवश्य मिलती।

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