मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


3

कितना बुरा दिन था वह। गाँव में महिला मंडल के नए भवन का शिलान्यास विधायक ने करना था। अगली बार तो वह अपने बेटे को टिकट दिलवाने के चक्कर में था। इसीलिए वह जहाँ जाता अपने बेटे को भी साथ ले जाया करता। उस दिन भी वह साथ था। बेटे की कारगुज़ारियाँ अच्छी नहीं थी। करतूतें धेले की भी नहीं थी। बाप तो बखूबी परिचित था। जानता था कि बेटा कितना होनहार है? पर अपने सिक्के को खोटा कौन कहे। जमा दो भी न कर सका। जितने दिन स्कूल में काटे मास्टरों के नाक में दम किए रहा। चार बार इम्तहान दिया पर निकला ही नहीं। पिता ने फिर उसे एक पेट्रोल पंप ले लिया।

पहले सोचा था कि बेटे को खूब पढ़ाकर डाक्टर या अफ़सर बना देंगे। पर बीस-बाईस सालों तक जो बेटे की करतूतें रहीं उससे उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया था कि बेटा राजनीति में ही फिट हैं। पढ़ना-लिखना वैसे भी अब उन्हें बेवक़ूफ़ों का काम लगने लगा था। खुद भी आठवीं फेल थे पर राजनीति की सारी परीक्षाएँ बखूबी पास करते गए। अब नज़रें राज्यसभा पर लगी थीं।

सुमना के अम्मा-बापू उस दिन गाँव में नहीं थे। घर में वह अकेली थी। पहले भी वह कितनी ही बार अकेली रही पर कोई डर-डराव नहीं। अपना गाँव। अपने लोग।. . .जलसा समाप्त हुआ। विधायक तो लौट आया पर बेटा वहीं रहा। अब प्रधान उसकी आवभगत कैसे न करता। होने वाला विधायक जो ठहरा। साँझ हुई तो मन की बात प्रधान जी को बता दी। प्रधान जी को तो इंतज़ाम करना ही था। उसने सोचा-विचारा। पहली नज़र सुमना के परिवार पर ही गई। वैसे भी गाँवों-बेड़ में ऊँची जात वालों की आँखें ग़रीब दलितों की ज़मीन और बहू-बेटी पर ही लगी रहती है। सोचा कि अपना न सही विधायक के बेटे का भी भला हो जाए।

देर रात तक दोनों खूब खाते-पीते रहे और फिर सुमना के घर की तरफ़ हो लिए।
सुमना के पास एक किन्नौरी काला कुत्ता था। नाम था शेरू। साँझ ढलते ही उसने उसे साँकल में बाँध दिया था। गाँव में कुछ दिनों से बाघ का डर हो गया था। प्रधान को यह मालूम था कि वह आज अकेली ही है। उसने जब आवाज़ लगाई तो वह सो चुकी थी। यमुना ने ज्यों ही पहचाना, दरवाज़ा खोल दिया। वह तो उसकी इज़्ज़त अपने बापू की तरह करती थी। डर की तो कोई बात ही न थी। शेरू भौंकता रहा। सुमना तो उसी पर गुस्सा होती गई कि परधान जैसे इज़्‍ज़तदार आदमी पर वह भौंकता ही जा रहा है। पर उसे क्या पता कि इस घने अंधेरे में वह बाघ कुत्ते के लिए नहीं बल्कि आदमी के रूप में उसे ही झपट लेगा।

दरवाज़ा खुलते ही विधायक का बेटा उस पर बाघ की तरह ही टूट पड़ा। वह चीखती-चिल्लाती रही पर किसी ने मदद नहीं की। अब प्रधान की जीभ भी लार टपकाने लगी थी पर सुमना का रोना-धोना उन्हें वहाँ से भागने को विवश कर गया।
उनका घर अकेले में था। थोड़ी देर बाद जब महिला मंडल की प्रधान ने चीखना-चिल्लाना सुना तो वह लोगों को लेकर वहाँ पहुँच गई। सुमना के हाल देख कर वह हैरान रह गई। मुश्किल से सँभाला था सुमना को। दूसरे दिन बात आग की तरह फैल गई। महिला मंडल की प्रधान नहीं चाहती थी कि केस दब जाए। वह एक तीर से दो शिकार करना चाहती थी।

सुमना के अम्मा-बापू जब लौटे तो बेटी की हालत देख कर दंग रह गए। उनकी एक ही तो बेटी थी। वह अपने आप को कोस रहे थे कि उन्होंने क्यों उसे अकेला छोड़ा। पर होनी को कौन टाल सकता था। सुमना का बापू इस मामले को वहीं पर ख़त्म करना चाहता था। अपनी ग़रीबी के कारण वह विधायक से कैसे लड़ता। पर महिला मंडल की प्रधान तथा कुछ दूसरे लोगों ने उसकी बात नहीं मानी। इस अत्याचार के ख़िलाफ़ आगे तक लड़ने का संकल्प किया था। ताज़ी घटना थी इसीलिए पूरा गाँव साथ हो गया। इस तरह एक विश्वास उस लुटे हुए घर और सुमना के बापू के दिल में भी जाग गया था कि इस पाप के लिए सज़ा मिलनी ही चाहिए।

इस मामले को पुलिस तक ले जाया गया। एफ.आई.आर पुलिस को मजबूरन दर्ज तो करनी पड़ी लेकिन उन्होंने कार्यवाही केवल काग़ज़ों पर ही की और चालान कोर्ट में पेश कर दिया। सुमना को सरकार की ओर से एक सरकारी वकील भी दे दिया गया था।

सुमना चुपचाप कहीं अतीत में खोई रही। पक्ष, प्रतिपक्ष के बीच कितनी देर बहस चली, सुमना को नहीं पता। उसने जब भी कटघरे में अपने खड़े होने को महसूस किया तो लगता रहा कि वह निपट नंगी है। लोग, कानून की रक्षा करने वाले वकील और जज सभी तमाशबीन है। उसने कटघरे के ऊपर की लकड़ी को पूरे ज़ोर से पकड़ रखा था। इतने ज़ोर से कि उन से खून बहने लगा था। उसके हाथों को किसी ने नहीं देखा। उसके मन को किसी ने महसूस नहीं किया। उसकी पीड़ाओं को किसी ने नहीं जाना।

अब फ़ैसला होना था। विधायक और उसका बेटा प्रसन्न थे। वे तमाम लोग भी जो किसी न किसी तरह से उनके क़रीब थे। जिस तरह गवाहियाँ उनके पक्ष में हुई, साफ़ था कि फ़ैसला उन्हीं के हक में दिया जाना है।
. . .और उसी क्षण एक अप्रत्याशित घटना घटी। एक काला कुत्ता हाँफता हुआ कोर्ट हॉल में पहुँचा। उसका इस तरह भीतर आना सभी को आश्चर्य में डाल गया। बाहर तो कई आवारा कुत्ते घूमते रहते हैं लेकिन इस तरह कोई भीतर ही आ जाए तो अनहोनी जैसी बात थी। भीतर पहुँचते ही उसने सुमना की तरह हामी भरी। सुमना ने सिर उठाया। उसे देख कर हैरान रह गई। अचानक मुँह से निकला. . .शेरू! वह नीचे उतर कर उसे जी भर प्यार करना चाहती थी। शेरू बावला-सा हो गया। उसकी तरफ़ उछलता, कूदता। कटघरे की लकड़ियों के बीच से ऊपर चढ़ता और पाँव से उन्हें कुरेदता और अपने आव-भाव से कुछ बोलता-जैसे सुमना को सांत्वना दे रहा हो कि उसके साथ भले ही और कोई न हो लेकिन वह तो उसके साथ है। इस स्नेह और अप‌नेप‌न की भाषा केवल वही समझ सकती थी, बाकी लोगों के लिए तो वह भीतर एक परेशानी का कारण हो गया था।

दूसरे पल शेरू पीछे मुड़ा। उसकी आँखों में स्नेह की जगह खून उतर आया। वह उसका दूसरा ही रूप था। किसी को पता न चला कि कैसे उसने दूसरे कटघरे में खड़े कैलाश के उपर छलाँग लगा दी। ऊँचाई ज़्यादा होने के कारण वह उस तक न पहुँच पाया। पहुँच जाता तो उसके लीथरे-लीथरे कर देता।
अब कोर्ट का परिदृश्य पूरी तरह बदल गया था। जो लोग कुर्सियों पर बैठे थे वे खड़े हो गए। यहाँ तक कि जज महोदय भी आश्चर्य से खड़े होकर देखते रहे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि इस स्थिति से कैसे निपटा जाए। शेरू ने अपने नाख़ूनों से नीचे बिछी दरी ओर कटघरे की लकड़ी को बुरी तरह से छिल दिया। वह पीछे हटता और फिर कैलाश की तरफ़ उछल जाता।

सुमना ने ही इस स्थिति को सँभाला था। उसने हल्की-सी डाँट लगाई तो शेरू उसकी ओर आ गया। पर आँखों में आग और पंजों में आक्रोश पसर गया था।
तीन-चार सुरक्षा कर्मी हाथों में डंडे लेकर भीतर पहुँचे लेकिन जज साहब ने उन्हें रोक दिया। उनके अपनी सीट पर बैठते ही सभी अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठ गए।

कुत्ते की इन हरकतों को देखकर जज साहब की उत्सुकता जागी। उन्होंने सुमना से सीधा प्रश्न किया था,
'' कुत्ता तुम्हारा है क्या?''
हल्का का सिर हिला कर उत्तर दिया था सुमना ने।
'' जी. . .।''
''कितने सालों से तुम्हारे पास है?''
'' जी. . .तीन सालों से।''
जज साहब कुछ देर चुप रहे। प्रतिवादी पक्ष का वकील कुछ कहने के लिए उठा था लेकिन जज ने उसे रोक दिया। उसे बैठना पड़ा।

कुत्ता इस बीच एक बार फिर कैलाश की तरफ़ लपका। उसके बाद भीड़ में बैठे उसके साथियों की तरफ़ भौंकता रहा। फिर पीछे कुर्सियों के बीच बैठे सुमना के बापू के पास चूं. . .चूं करता आया। दो-चार पल बैठा और पुन: सुमना के पास कटघरे के साथ बैठ गया।
'' जब यह घटना घटी तो वह कहाँ था।''
जैसे ही वकील ने यह प्रश्न सुना वह फिर खड़ा हो गया। जज ने फिर उसे बैठने को कहा। वकील का चेहरा उतर गया था। वह माथे पर से पसीना पोंछता हुआ बैठ गया। दूसरे कटघरे में खड़े विधायक के बेटे के हाल देखने वाले थे। जो कभी किसी बुरे से बुरे काम करते न घबराया हो उसके लिए एक मामूली-सा कुत्ता बाघ बन कर भीतर चला आया था।
जज ने दोबारा वही सवाल सुमना से पूछा।

सुमना ने आँखें ज़मीन पर गड़ा ली थी। कुछ देर पहले जो अतीत का आवरण छँट-सा गया था उसने सुमना को दोबारा ढक लिया था। लेकिन उसे उत्तर तो देना ही था।
'' जी मैंने उसे बाँध दिया था। क्यों कि गाँव में बाघ का डर था।''
जज साहब ने सुना तो कुछ देर गंभीर रहे। एक नज़र दूसरे कटघरे में डाली। सोचा होगा कि जंगल के बाघ से कुत्ता तो बच गया पर आदमीनुमा बाघ से वह अपने आप को न बचा सकी।

अब सुमना के सब्र का बाँध टूट गया था। उसकी आँखें बरस गईं। कोर्ट हाल सिसकियों से भर गया। भीतर उपस्थित सभी की आँखों में रोमांच और आश्चर्य की जगह नमी थी। तड़प थी। स्नेह था। दर्द था। अब सुमना किसी को अपनी बेटी जैसे तो किसी को बहन की तरह लगने लगी थी।

प्रतिवादी का वकील घबरा गया। जज साहब कुछ देर चुपचाप कुछ सोचते रहे। फिर उन्होंने भीड़ में नज़र डाली। उनमें कैलाश का विधायक पिता भी बैठा था। दोनों की नज़रें मिलीं। आँखों के इस मिलन के साथ ही फ़ैसला अगली तारीख़ के लिए टाल दिया गया।

कुत्ता एक बार फिर कैलाश की तरफ़ लपका। सुमना ने उसे फिर छाड़ दी। उसे डर था कि सुरक्षाकर्मी कहीं उसे पीट कर घायल न कर दें।

जज साहब जैसे ही उठे अचानक कुत्ते ने उनकी तरफ़ छलाँग लगाई लेकिन वह लकड़ी की दीवार पंजे मार कर लौट आया। जज साहब उसकी पहुँच से बहुत ऊपर थे। जज ने कुत्ते के आक्रमण पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और चुपचाप निकल गए, लेकिन कुत्ता उस तरफ़ देखकर भौंकता रहा। इस बार सुमना की डाँट का भी उस पर कोई असर न हुआ।

पृष्ठ : 1. 2. 3

1 अप्रैल 200

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।