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अपने को गंभीर बनाए रखने की दृष्टि से उन्होंने एक गहरी साँस लेते हुए एक साथ फ़ाइल के कई पन्ने उलट-पलट दिए। फिर आँखों पर से चश्मा उतारा। भरी नज़र न्यायालय-दीर्घा में डाली। पता नहीं क्यों आगे की कुर्सियों पर बैठे सभी वकीलों के चेहरे पर पसरे भाव को देख कर उन्हें लगा कि वे कोर्ट में न होकर किसी सर्कस हाल में आए हैं और तमाशे का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं। चश्मा पुन: आँखों पर चढ़ाया और केस आरंभ करने का आदेश दिया। चपड़ासी मुश्किल से लोगों को इधर-उधर हटाते दरवाज़े तक गया और ज़ोर से पुकारना शुरू किया।

कुमारी सुमना. . .बनाम कैलाश. . .उर्फ़ काकू हाज़िर हो. . .!

उसकी आवाज़ बाहर कम मगर भीतर ज़्यादा गूँजी। सभी की निगाहें दरवाज़े की तरफ़ उठ गई। ये नज़रें साधारण नहीं थी न ही सहज। मन में उमड़ते-घुमड़ते कई विचारों के मिश्रित द्वंद्वों की तलख उन में थी।
काकू बाहर से नहीं आया। वह मध्य में कहीं अपने विधायक पिता के पास बैठा था। शायद किसी की नज़र उन पर नहीं गई। वह ऐसे उठ कर जल दिया जैसे कोई पुरस्कार लेने मंच पर जा रहा हो। अपराधी जैसे कोई भाव उसके चेहरे पर नहीं थे। माथे और कान पर झूलते बाल। छाती पर कमीज़ के दो बटन खुले हुए। भीतर पहनी बनियान के ऊपर से सोने की चेन बाहर निकली हुई। हल्की नीली ज़ीन की पैन्ट और मोटे सिर वाले जूते......जिनकी खड़खड़ाहट कई पल दीर्घा में भीड़ और दीवारों से टकराती रही। चेहरे पर अजीब-सा नशा। लाल-डरावनी-सी आँखें। उच्छृंख्लता और उद्दंडता जिनमें नाचती हुई।

जिस किसी ने उसको मन की आँखों से देखा उसने जान लिया कि यह सब एक ओढ़ा हुआ बनावटी यथार्थ है. . .नंगे पहाड़ पर बर्फ़ जैसा. . .जिसका अस्तित्व सूरज निकलने तक बचा रहता है। या फिर दो चार टुकड़े बादल आने तक. . .वे आए कि बर्फ़ की स्वर्णिम, श्वेत आभा उड़न छू. . .। उसका विधायक पिता जो हाल में हैं. . .शायद पिता नहीं है। उसके भीतर बाप की सत्ता भी नहीं है। न तो उस जैसा कोई स्नेह और न अधिकार। होता तो जिस जुर्म के लिए बेटे पर मुकद्दमा चल रहा है उसकी शर्म-हया तो चेहरे पर होती। मन-आँखों पर विधायक होने का आवरण जो चढ़ा है. . .राजनीति भीतर पसरी है। नस-नस में. . .खून के साथ अफीम के नशे की तरह।

इस बीच टीन की छत पर ज़ोर की टनटनाहट हुई। दरवाज़े के साथ दीवार से नीचे बारीक मिट्टी झरती रही। कुछ देर छत पर बंदरों का एक दूसरे पर आक्रमण चलता रहा। एक बंदर खिड़की से भीतर घुसने लगा तो चपड़ासी ने उसे भगा दिया। ऐसा वहाँ रोज़ ही होता। इसके सभी अभ्यस्त भी थे।
सभी ने काकू पर चलती-उड़ती-सी नज़र डाली। लेकिन स्थायित्व तो दहलीज़ पर बना था। कुमारी सुमना के भीतर आने की राह पर।

सुमना के कानों में आवाज़ गर्म तेल की तरह पड़ी। अपना ही नाम खंजर की तरह मन में गड़ गया। लकड़ी के बैंच पर से ऐसे उठी मानो साँप छू गया हो। साथ उसका बापू भी उठ गया। पाँव में एक अजीब-सी थरथराहट। काँपती टाँगे. . .जैसे अब गिरा कि अब। कोई उसके मैले से कुरते ओर सदरी के बीच से हाथ डालकर छाती पर रखता तो जानता कि भीतर दिल मशीन की तरह धड़क रहा था। लाठी के सहारे उसने मुश्किल से अपने शरीर का संतुलन बनाया। कंधे पर झोला ठीक किया और भीड़ के मध्य रास्ता बनाते सुमना को सहारा देते भीतर ले गया। साथ दो महिलाएँ भी थीं। भीतर सुमना का बापू और महिलाएँ पीछे रह गई। सुमना को चपड़ासी ने कटघरे तक पहुँचाया।

बूढ़े बाप ने कुर्सियों के मध्य एक जगह टटोली और बैठ गया। पीछे दोनों महिलाएँ खड़ी हो गई। किसी ने उनकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया।
कटघरे तक वकील और दूसरे लोग सुमना का आँखों ही आँखों में पीछा करते रहे। वहाँ पहुँच कर वह चुपचाप खड़ी हो गई। हॉल में बैठे लोगों की अनगिनत आँखें उस पर केंद्रित हो गई थीं। कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष बलात्कार के परिदृश्य के साथ। जैसे वह कोई गाँव की गरीब, असहाय और मासूम लड़की न होकर किसी प्रदर्शन के लिए लाई गई कोई चीज़ हो।. . .कठपुतली जैसी। एक क्षण में ही उन आँखों ने पता नहीं कितनी बार उसे निर्वसन कर दिया . . .? समाज के उन न्याय-रक्षकों की आँखों में सिनेमा की तरह अनेकों परिदृश्य उमड़ रहे थे. . .जैसे वे किसी कोर्ट में नहीं बल्कि सिनेमा हाल में बैठे ''केवल बालिग़ों के लिए'' फ़िल्म देख रहे हों।

जज महोदय ने एक सरसरी निगाह सुमना पर डाली। उन्हें लगा जैसे एक छोटा-सा गाँव उस लड़की के साथ कटघरे में खड़ा हो गया हो। उलझे हुए बाल. . .जैसे कई महीनों से धोए ही न हो। कई लटें माथे से गालों पर गिरती-पड़ती। शर्मसार आँखें। जैसे तमाम दुनिया की लज्जा उनमें समा गई हो। सिर पर ओढ़ी मैली-सी चुनरी। मुरझाया हुआ चेहरा। सूखे-फटे ओंठ। पीड़ाओं से लदे-भरे। उन्हें मिट्टी और गोबर की गंध अपनी तरफ़ आती महसूस हुई. . .जैसे वे किसी न्याय-गद्दी पर नहीं बल्कि गाँव के किसी खेत की मुँडेर पर बैठे हो।

कार्यवाही शुरू हो गई। भीतर गहरा सन्नाटा पसर गया था। प्रतिवादी पक्ष का वकील अपनी जगह से उठा। लंबा काला चोगा सँभाला और सुमना के पास जा कर खड़ा हो गया।. . .परमदत्त सहाय नाम था उसका। उसकी चाल में एक अनोखी-सी कशिश थी, मानो वह मंच पर किसी फैशन शो की नुमाइश में आया हो। आँखों में अजीब-सा नशा। चेहरे पर बेढंगी-सी मुस्कान मानो किसी अश्लील दृश्य पर चलते-चलते नज़र पड़ गई हो। बलात्कार और हत्या जैसे संगीन मामलों का माहिर वकील। अभियुक्तों को बरी करवाने की विशेषज्ञता। दूर-दूर तक उसे ऐसे मामलों में पैरवी के लिए बड़े लोग और राजनीतिज्ञ ले जाया करते. . .क्यों कि उसकी जितनी फीस थी शायद ही कोई भला आदमी दे पाता। वह कानूनी दावों-पेंचों के साथ कई दूसरी तिकड़में भी भिड़ा लिया करता जिससे ऐसे मामले अपने पक्ष में करना उस के लिए दाएँ हाथ का खेल हो जाता। जजों तक मुँह माँगी रक़में देने में भी वह न हिचकिचाता।

कोर्ट में बैठे सभी वकील और दूसरे लोग वर्तमान प्रभाव क्षेत्र में आने लगे थे। वे जानते थे कि जब वकील सहाय सुमना से पूछताछ करेंगे तो कई जीवंत रोमांचकारी परिदृश्य सामने उभरने लगेंगे। ऐसे क्षण बार-बार कहाँ आते हैं। हालाँकि वे सभी इस सच्चाई से वाक़िफ़ थे कि जब ऐसे अपराध होते हैं तो वे प्रत्यक्षदर्शियों के सामने नहीं होते। गाँव या शहर के लोगों के सामने नहीं होते। लेकिन कानून तो गवाही माँगता है। सबूत माँगता है. . .इसीलिए एक बार फिर सुमना के साथ वही सब कुछ होगा. . .लेकिन आज अकेले में नहीं. . .सभी के सामने. . .जज के सामने. . .वकीलों की मौजूदगी मे. . .उसके अपने बापू के समक्ष. . .उसके कपड़े बारी-बारी उतारे जाएँगे. . .उसे निपट नंगा कर दिया जाएगा. . .जिस शर्म और लज्जा को वह बचपन से लेकर जवानी तक संभालती-सहेजती रही उसके चिथड़े-चिथड़े किए जाएँगे। आज जैसे उस कृत्य का भागीदार काकू न होकर बीसियों लोग होंगे. . .पर यह सब होगा कानून की सीमाओं में. . .कानून की मान्यताओं के बीच, अधिकृत तौर पर।

और अब यही सब कुछ शुरू हो गया था। कितने अनोखे प्रश्न. . . .अश्लील. . .बेबुनियाद. . .सुमन बेचारी सर झुकाए खड़ी थी। चुपचाप। सिर का दुपट्टा आँखों पर से नीचे तक सरक आया था। आँखों से अविरल आँसुओं की धारा बहती जा रही थी। पर वकील सहाय के प्रश्नों की चौंध के बीच उसकी सिसकियाँ गुम होती गई। उसने किसी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। जैसे उसकी ज़बान ही बंद हो गई थी। वह सोच रही थी कि काश! वह सीता होती तो धरती माँ को पुकारती और वह फट जाती। उसमें समा कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देती। पर वह जानती है. . .वह सुमना है। ग़रीब और असहाय हरिजन की बेटी। इकलौती।

कोई उसके बापू को कुर्सी के बीच उकड़ूँ बैठे देखता तो जानता कि वह किसी तरह एक जीती जागती देह से मोटे पत्थर की तरह फ़र्श पर गड़ गया था।
वकील सहाय ने इस मामले को नया मोड़ दे दिया। चुनाव नज़दीक थे। वकील की दलील थी कि कैलाश के पिता विधायक गणेशदत्त सत्तारूढ़ पार्टी के हैं इसीलिए कुछ शरारती तत्वों ने कई विपक्षी नेताओं के झाँसे में आकर उनकी छवि बिगाड़ने के लिए ही यह मामला घड़ा है। इसके लिए एक गँवार, असहाय और हरिजन की ग़रीब लड़की को ढाल बनाया गया है। जितने भी गवाह पेश किए उन्होंने इस घटना के बारे में अनभिज्ञता ज़ाहिर कर दी। केवल सुनी-सुनाई बातों पर ही उन्होंने गवाही दी। कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं था।

आश्चर्य था कि जिन लोगों ने इस मामले को पंचायत से लेकर कोर्ट तक पहुँचाया था वही आज पीछे हट गए थे। कुछ महिलाएँ और गाँव के लोग चश्मदीद भी थे। इनमें जो कुछ प्रभावी लोग शामिल थे उन्हें पार्टी की तरफ़ से कई पुरस्कार और ओहदे बाँट दिए गए थे। मसलन जिस डाक्टर ने सुमना की मेडिकल रिपोर्ट दी थी उसे रिपोर्ट को बदलने के एवज़ में मुख्य चिकित्सा अधिकारी बना दिया गया था। जिस पुलिस निरीक्षक ने चालान बदल कर कोर्ट में पेश किया उसे पदोन्नत करके मुख्यमंत्री की सुरक्षाटीम का इनचार्ज बना दिया गया। गाँव की महिला मंडल की प्रधान जिसने प्रारंभ में इस मामले की पुरज़ोर आवाज़ उठाई उसे चुप्प रहने के पुरस्कार बतौर जिला महिला कल्याण मोर्चे की महा सचिव नियुक्त कर दिया गया था। और जो दो-चार दूसरे लोग इसमें शामिल थे उन्हें भी उनकी हैसियत के मुताबिक दाना-पानी दे दिया गया था। जो एक-दो गाँव की महिलाएँ सुमना के साथ आती-जाती थीं वे भी गवाही के दिन अपने-अपने मायके चली गई थी।

सुमना कहीं नीचे धँसती चली जा रही थीं। आँखें बंद किए हुए वह अपने साथ हुए कुकृत्य की चश्मदीद उन दुर्भाग्यपूर्ण क्षणों में खो गई। उसके मस्तिष्क में वे दृष्य घूमने लगे थे।

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