खुद्दारी,
ईमानदारी और इंसाफ़पसंदगी की कीमत चुकाने की एक हद थी, जिसे एक
न एक दिन पार तो होना ही था। वही हुआ। शहर से उजाड़ देने और
मिटा डालने की धमकियाँ क्रमश: तेज़ होने लगीं और तारीख दर
तारीख की टलती अदालती कार्रवाइयों में गवाह और जिरह के पक्ष
कमज़ोर होते गए। प्रेरित ने जैसे हार मानते हुए कहा, "अब तुम
अगर वाकई हमारा कुछ उद्धार करवा सकती हो रेशमी, तो करवा दो।
पिताजी बुरी तरह टूट गए हैं और मुझे भी सत्य-मार्ग की दलदल में
अंदर तक धँसते जाने के सिवा कोई उम्मीद नहीं दिखती।"
रेशमी को सुनकर ज़रा भी ताज्जुब नहीं हुआ। मानो उसे पहले से
पता था कि अंत में यही होना है।
उसने प्रेरित के लिए बिल्टू के सामने जैसे अपना आँचल फैला
दिया, "उसे उबार लो बिल्टू। उसका पूरा परिवार भय, अपमान, पीड़ा
और दरिद्रता की गर्त में घुट-घुटकर जी रहा है। तुम्हीं अब
संकटमोचक बन सकते हो।"
बिल्टू ने ताज्जुब करते हुए कहा, "रेशमी, एक अर्से से वह इतनी
परेशानियों में रहा, फिर पहले ही मुझे क्यों इसकी जानकारी नहीं
दी? तुम्हारा वह सबसे घनिष्ठ दोस्त है, उस पर जुल्म होता रहा
और तुम चुप्पी साधे रही? ख़ैर, मैं देखता हूँ अब।"
सकुचाते हुए कहा रेशमी ने, "दरअसल, वह चाहता था कि कानून और
सच्चाई के रास्ते से चलकर ही इस मुसीबत से निजात पाएँ।"
"मैं समझ गया। हर आदमी यही चाहता है शांति, इंसाफ़ और
ईमानदारी की डगर पर चलना। मगर ऐसा हो नहीं पाता तभी टेढ़ा और
ख़तरनाक रास्ता चुनने के लिए आदमी को मजबूर होना पड़ता है। कभी
मैंने भी ऐसा ही चाहा था, रेशमी। प्रेरित को दिलासा देना कि अब
उसके लिए घी टेढ़ी उँगली से ही निकलेगा। उसे हम बचाएँगे रेशमी,
हर हाल में बचाएँगे, इसलिए कि उससे तुम प्रेम करती हो।
तुम्हारी खुशी के लिए मैं कुछ कर सकूँ, ऐसा मौका मेरे लिए पहली
बार आया है।"
रेशमी अचंभित रह गई। यह आदमी, जो एक बुरा आदमी माना जाता है,
प्रेरित की इसलिए मदद करना चाहता है कि उसे रेशमी प्रेम करती
है। मगर एक प्रेरित है, जो अच्छा आदमी है, बिल्टू से इसलिए मदद
या एहसान लेने से कतराता रहा क्योंकि वह रेशमी से प्यार का
इज़हार करता आ रहा है। यहाँ प्रेम में गहराई और सच्चाई होने की
सुई ज़्यादा किसकी ओर झुकती है? रेशमी के भीतर जैसे निर्णय का
कोई मज़बूत स्तंभ हिल गया। लगा कि बिल्टूराम बोबोंगा अब कहीं
से भी बदसूरत नहीं रहा।
बिल्टू ने पूरी गंभीरता और शिद्दत से इस काम को अपने हाथ में
लिया और एक चमत्कार करने की तरह थोड़े ही समय में सब कुछ
ठीक-ठाक कर दिया। मुंशी जी की पुरानी हैसियत फिर से बहाल हो
गई।
बिल्टू ने अपनी ओर से ज़रा-सी भी आहट लगने नहीं दी कि उसे इस
काम में क्या-क्या पापड़ बेलने पड़े। प्रेरित ने ही एक दिन इसे
खुलासा किया। बिल्टू के प्रति उसके चेहरे पर ज़मीं पूर्वाग्रह
और हिकारत की सारी कड़वाहटें काफ़ूर हो गई थीं। अब वह एक एहसान
और उसके करिश्माई तेज से मानो अभिभूत था। उसने जो बताया, वह
कहानी इस तरह थी -
रामधनी शर्मा किसी भी तरह मानने के लिए तैयार नहीं था। पहले तो
जेल में बंद गोनू के गैंगवालों ने फुफकार दिखाई कि वे लोग भी
किसी से कम नहीं हैं। कोई बाहरी आदमी टाँग अड़ाएगा तो खून की
नदी बहेगी, लेकिन स्कूल में मुंशी को घुसने नहीं दिया जाएगा।
बिल्टू ने भी ताल ठोक ली, "ठीक है, जब खून की नदी ही बहनी है
तो बहे, लेकिन किसी भी सूरत में मैं मुंशी जी के बिना स्कूल
चलने नहीं दूँगा। इतना डिस्टर्ब कर दूँगा कि सारे माँ-बाप अपने
बच्चों को यहाँ भेजना बंद कर देंगे।"
बिल्टू के फ़ौलादी और आक्रामक तेवर देखकर रामधनी शर्मा भीतर से
हिल गया। सेर को सवासेर मिल जाने का उसे अंदाज़ हो गया। उसे
स्कूल से बरसते धन और सम्मान के उपभोग का चस्का लग गया था।
उसने बिल्टू को पैसे से पटा लेने का मन बनाया और कहा, "दो लाख
चार लाख, जितना चाहे ले लो और इस मामले में दखल देना छोड़ दो।"
बिल्टू ने कहा, "मैं पैसे के लिए काम ज़रूर करता हूँ, लेकिन यह
काम मैं एक ऐसी चीज़ के लिए कर रहा हूँ, जिसके सामने पैसा कोई
मोल नहीं रखता।"
रामधनी शर्मा ने कहा, "इस काम के बदले आख़िर तुम्हें क्या
मिलनेवाला है। जो मिलने वाला है उससे मैं ज़्यादा देने को
तैयार हूँ।"
"इस काम के बदले मुझे जो मिलने वाला है, उससे ज़्यादा तो मुझे
ईश्वर भी नहीं दे सकता त़ुम क्या दोगे?" बिल्टू का जवाब था।
रामधनी समझ गया। यह आदमी ज़रा सनकी और जुनूनी है। इसकी सख्त
तस्वीर के भीतर ज़रूर कोई बड़ा मकसद काम कर रहा है, वरना पैसे
के लिए कुछ भी कर गुज़रनेवाला आदमी इतना मज़बूत नहीं हो सकता।
रामधनी ने जब अपने सूत्रों से गहरी छानबीन शुरू की तो बिल्टू
का एक सहपाठी और अब उसके एक विश्वसनीय साथी ने तथ्य से अवगत
करा दिया, "बिल्टू भाई प्यार करता है रेशमी से और रेशमी प्यार
करती है प्रेरित से। अत: यह तय है कि प्रेरित-परिवार को इस
मुसीबत से निकालने के लिए वह कुछ भी कर गुज़रेगा क़ुछ भी।"
सुनकर रामधनी शर्मा के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसके लिए यकीन
करना मुश्किल था कि जिस आदमी के लिए यह बात कही जा रही है वह
एक बदशक्ल, डरावना और लिजलिजा-सा दिखनेवाला आदमी है। अगर यह सच
है तो प्रेरित के लिए कुछ भी कर गुज़रेगा। इस बात में उसे कोई
शक नहीं रह गया। उसका बेटा अगर जेल से बाहर रहता तो मुकाबला
किया भी जा सकता था। फ़िलहाल उसने झुक जाने में ही अपनी खैऱ
समझी। अगर हिसाब-किताब चुकाना होगा तो बाद में देखा जाएगा।
रेशमी देख रही थी कि जिन आँखों में बिल्टूराम बोबोंगा के लिए
ढेर सारी घृणा और कटुता समाई रहती थी, आज उनमें बेपनाह
सद्भावनायें तैर रही हैं। प्रेरित एकदम उसका कायल हो उठा था।
रेशमी की कल्पना-दृष्टि में अचानक एक तराजू उभर आया, जिसके एक
पलड़े पर प्रेरित और दूसरे पर बिल्टू तुलने लगा। वह देखना
चाहती थी कि प्रेरित वज़नदार दिखे, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा था।
प्रेरित ने जैसे उसके मन को पढ़ते हुए कहा, "बिल्टू ने सचमुच
साबित कर दिया है रेशमी कि वह तुमसे मेरी तुलना में सच्चा और
ज़्यादा प्यार करता है।"
रेशमी ने कोई टिप्पणी नहीं की।
डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी हो गई तो रेशमी ने पूर्व निर्णय के
अनुसार अपने शहर में ही बतौर एक नेत्र विशेषज्ञ आई क्लिनिक खोल
ली। उसके डॉक्टर पिता काफ़ी बूढ़े हो गए थे। अत: उन्हीं की
क्लिनिक को उसने अपने लायक बना लिया। प्रेरित नौकरी की राह पर
चल पड़ा था, मगर कहीं एक जगह स्थिर नहीं था। बड़े ओहदे तथा
मोटी तनख्वाह की तलाश में उसे बार-बार कंपनी बदलनी पड़ रही थी।
रेशमी की प्रेरित से मुलाकात में काफ़ी कमी आ गई, जबकि बिल्टू
से मुलाकात में तेज़ी आ गई। बिल्टू अक्सर क्लिनिक में आ जाता।
पेशेंट नहीं होते तो देर तक अड्डा मार देता। अब दोनों के बीच
बोरियत या ऊब की जमी बऱ्फ सदा के लिए पिघलकर आत्मीयता और
सौहार्द्र की सरिता में रूपांतरित हो गई थी।
रेशमी अनुभव करती कि बिल्टू अपने काम, अपने ग्रुप और तमाम तरह
के ख़तरे और जोख़िम के बारे में बातें करता तो उन्हें सुनना
अच्छा लगता। राजनीति में प्रवेश और उसकी एक-एक सीढ़ी पर अपनी
चढ़ाई के बारे में भी वह बताने लगा था। सीढ़ियों की चढ़ाई में
कई तरह के सामाजिक कार्य शामिल हो गए थे। झोपड़पटि्टयों में
कंबल बाँटना बंद कारखाने के मज़दूरों में राशन बाँटना, गऱीब
बच्चों में किताबें बाँटना। बिजली-पानी के लिए हाहाकार वाले
इलाके में लोगों के आँदोलन में भाग लेना आदि-आदि।
एक बार उसने एक गऱीब बस्ती में नेत्र शिविर लगाने की योजना
बनाई और उसमें चिकित्सकीय सहायता उपलब्ध कराने का दायित्व
रेशमी पर डाल दिया। रेशमी अब उसके ऐसे जनहित कार्यक्रम के लिए
इंकार नहीं कर सकती थी।
पहले नेत्र शिविर में वह गई तो वहाँ की व्यवस्था देखकर
आह्लादित हो उठी। एक विशाल तना हुआ तंबू और उसमें जाँच करवाने
के लिए उपस्थित सैकड़ों साधनहीन लोग और वहाँ सेवा देने के लिए
दर्जनों कार्यकर्ता। सबके लिए कंबल, चश्मा और भोजन की नि:शुल्क
व्यवस्था। बिल्टू ने इतना-इतना इंतज़ाम अपने बलबूते अकेले कर
लिया था। उसकी विस्तार पाई सामर्थ्य और उस सामर्थ्य का भलाई
में रूपांतरण उसके उजले पक्ष का एक नया परिचय था। इस शिविर की
सफलता के बाद बिल्टू हर साल ऐसे शिविर का आयोजन करने लगा।
जिनके लिए दुनिया धुँधली या बिल्कुल अँधेरी होनेवाली थी, ऐसे
सैकड़ों लोगों को उसकी पहल से नयी रोशनी मिल गई।
प्रेरित से धीरे-धीरे संपर्क कम होते-होते जैसे पूरी तरह ख़त्म
हो गया था। रेशमी हैरान थी कि हर दूसरे-तीसरे दिन फ़ोन
करनेवाला उतावला और बेकरार आदमी इस तरह उदासीन और निरपेक्ष
कैसे रह सकता है? कहीं उसने यह तो नहीं मान लिया कि रेशमी की
चाहत बिल्टू की तरफ़ शिफ्ट हो गई, अत: नज़दीकी मिटाकर बीच की
रागात्मकता और त्रिकोण की दुविधा को ख़त्म कर दे? रेशमी जैसे
उदास हो गई। उसे बड़ा दुख हुआ कि जिस आदमी के मन-प्राण में
बरसों-बरस प्यार करने और निभाने की बेइंतहा तड़प बसी थी, उसने
अपने को इस तरह काट लिया। निश्चय ही ऐसा करने के लिए उसे अपने
सीने पर एक भारी पत्थर रखना पड़ा होगा। जबकि सच्चाई यह थी कि
रेशमी ने अपने मन में उसके आसन की ऊँचाई को ज़रा-सा भी कम नहीं
किया था। बिल्टू ने उसकी उदासी को पढ़ते-पढ़ते आख़िर इसका भेद
एक दिन खुलवा ही लिया। रेशमी को लगा कि वस्तुस्थिति जानकर
बिल्टू का मन भारी हो जाएगा, लेकिन उसने ऐसा कुछ भी ज़ाहिर
होने नहीं दिया और बड़े हौसले के साथ कहा, "मुझे तुम उसका पता
दे दो, वह जहाँ भी होगा मैं उसे पकड़कर ले आऊँगा। वह तुम्हें
इस तरह सता रहा है, यह जायज़ नहीं है।"
रेशमी उसका मुँह देखने लगी थी। उसका नवीनतम पता और फ़ोन नंबर
अब उसके पास था ही कहाँ जो वह देती। मुंशी जी से माँग लाने में
एक ज़िद आड़े आ जाती।
एक दिन अचानक प्रेरित उसके सामने आकर खड़ा हो गया। रेशमी को
लगा जैसे स्वप्न देख रही हो।
वह काफ़ी दुबला और कांतिहीन-सा हो गया था। वह समझ गई कि शायद
विरह में घुट-घुट और तड़प-तड़प कर काफ़ी एकतरफ़ा एकांत यातना
झेली गई है।
रेशमी ने उसकी ठंडी और सूखी हथेलियों को अपने हाथों में भर
लिया और उलाहना भरे स्वरों में कहने लगी, "क्यों खुद पर जुल्म
करते रहे? तुमने कैसे समझ लिया कि तुम्हारे सज़ा भोगने से मुझे
खुशी मिलने लगेगी?"
"मुझे माफ़ कर दो रेशमी, मैं वाकई नहीं जानता था कि कक्षा का
और साथ ही समाज का भी सबसे फिसड्डी और आख़िरी पंक्ति का लड़का
बिल्टू राम बोबोंगा अब हैसियत से ही नहीं बल्कि दिल और दिमाग
से भी अगली पंक्ति का इंसान बन गया है। मैं हैरान हूँ कि उसके
मन में मेरे लिए रंचमात्र ईर्ष्या नहीं है।" श्रद्धा से
परिपूर्ण प्रेरित की आवाज़ में एक अलौकिक मिठास उतर आई थी।
रेशमी अभिभूत-सी हो उठी, "तो तुम्हें यहाँ लेकर बिल्टू आया
है?"
"बिल्कुल। अन्यथा मैंने तो अब यही तय कर लिया था कि मेरे
बनिस्वत बिल्टू की अब तुमसे ज़्यादा नज़दीकी है, ज़्यादा निभती
है।"
प्रेरित ने ऐसा कहा तो क्षण भर के लिए रेशमी सचमुच डगमगा गई।
यह अजीब स्थिति थी कि बिल्टू प्रेरित को उसके समीप ला रहा था
और प्रेरित बिल्टू को उसके समीप मान रहा था। दोनों की इन
नि:स्वार्थ क्रियाओं से यह फ़ैसला करना जैसे एक बार फिर से
मुश्किल हो गया था कि वह वाकई किसके ज़्यादा करीब है।
पार्टी का टिकट अब तक बिल्टू को मिल गया था। रेशमी ने इसकी
जानकारी देते हुए कहा, "वह सचमुच अब मामूली आदमी नहीं रहा।
हमें कभी यकीन नहीं आया था कि टिकट लेने की आपाधापी में वह
बाज़ी मार लेगा। हम यही सोचते थे कि ऐसे-ऐसे पार्टी वर्करों का
नसीब झंडा ढोना और जय-जयकार करना भर ही होता है। चूंकि हमें अब
यही देखने को मिल रहा है कि कोई भी पार्टी अब आम या मामूली
आदमी को टिकट नहीं देती। पहले से जो जमा हुआ पदासीन है, वह
मरता है या बू़ढ़ा हो जाता है तो टिकट उसकी बीवी या बेटे को दे
दिया जाता है, जिसे हमारी महान जनता अक्सर सहानुभूति वोट देकर
विजयी बना देती है। कहने वाले ठीक ही कहते हैं कि महान जनता के
पूर्वजों के खून में ही विदेशी आक्रांताओं ने वंशवाद के विषाणु
इंजेक्ट कर दिए थे। अपवादस्वरूप अगर किसी छोटे आदमी को टिकट
मिल जाता है तो उसे हराने के लिए अन्य पार्टियाँ हज़ारों अवरोध
उसके रास्ते में बिछा देती हैं।"
"लेकिन अपना यह बिल्टू देखना सारे अवरोधों को पार कर लेगा,
रेशमी।"
"बिल्टू अगर वाकई ऐसा कर सका तो हम इसे एक नये युग की शुरुआत
मानेंगे।"
बिल्टू का प्रचार अभियान तेज़ी से चल निकला। पोस्टर, बैनर,
भाषण, रैली आदि सभी मोर्चों पर वह किसी से पीछे नहीं दिख रहा
था। उसके पीछे उसके सहपाठियों, कार्यकर्ताओं, शुभचिंतकोंे और
समर्थकों की एक बड़ी फौज थी। दूसरे दल के उम्मीदवार, जो बड़ी
जाति के खानदानी रईस लोग थे, ने भी अपनी पूरी शक्ति और तिकड़म
झोंक दी थी। उनमें त्रिशूल छाप का उम्मीदवार दीनानाथ सबसे भारी
लग रहा था और उसने चुनाव को एक दलित के खिलाफ़ सवर्ण की
प्रतिष्ठा का सवाल बना दिया था। पता चला कि दीनानाथ ने अपनी
पहुँच का उपयोग करते हुए अपनी मदद के लिए जेल में बंद कुछ
अपराधियों की ज़मानत करवा ली थी। रामधनी शर्मा का बेटा गोनू भी
दीनानाथ द्वारा भिड़ायी किसी बड़ी सिफ़ारिश से बाहर आ गया था
और बिल्टू के खिलाफ़ काम करने लगा था। बिल्टू को किसी की परवाह
नहीं थी और वह किसी से भी किसी मामले में उन्नीस नहीं था।
जातीय आधार पर भी दलितों और आदिवासियों की संख्या यहाँ किसी से
कम नहीं थी।
एक दिन रेशमी आई क्लिनिक के पास चुनाव प्रचारवाली गाड़ियों का
एक लंबा काफ़िला आकर रुका। दर्जनों गाड़ियाँ, दर्जनों
कार्यकर्ता। पूरा बाज़ार उस काफ़िले को हसरत भरी आँखों से देख
रहा था कि क्या एक दलित, पीड़ित, शोषित और उपेक्षित आदमी का
रुतबा भी इतना बड़ा हो सकता है! बिल्टू उतरकर रेशमी के पास आ
गया। रेशमी उसकी तैयारी देखकर हर्ष-विभोर हो गई। कहा, "आज एकदम
विजेता की तरह लग रहे हो।"
"विजेता हुआ नहीं हूँ, होने के लिए वोट माँगने निकला हूँ। सोचा
आज बोहनी तुमसे ही करता चलूँ। तुम्हारा वोट चाहिए मुझे।"
"मेरे वोट पर तो तुमने अपना नाम बहुत पहले ही लिख दिया है,
बिल्टू।"
"अगर यह सच है तो मुझे जीतने से कोई रोक नहीं सकता, रेशमी।
चलता हूँ। आज अपनी उन बस्तियों में जाना है जहाँ अब तक विकास
का कोई काम नहीं हुआ। जहाँ लोग कीड़े-मकोड़े की तरह छोटे-छोटे
दड़बों, खोलियों और झोपड़ियों में रहते हैं। वे मेरी जाति,
मेरे रंग और मेरी औकात के लोग हैं। उनकी बुझी आशाओं को हम एक
बार फिर से जगाना चाहते हैं।"
"मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ है, बिल्टू। अपना पूरा खयाल
रखना।"
"आज कितने दिनों बाद जैसे एक बार फिर से तुम्हारे चेहरे खिले
हुए दिख रहे हैं। उम्मीद है प्रेरित तुम्हें सताने का काम अब
कभी नहीं करेगा।"
बिल्टू ने जैसे मनोयोग से उसे पढ़ते हुए कहा और हाथ हिलाते हुए
निकल गया। रेशमी आभार जताने के लिए बस सोचती रह गई।
प्राय: लोगों का ऐसा मानना था कि हवा बिल्टू के पक्ष में बह
रही है। रेशमी को भी विश्वास हो चला था कि चुनावी रेस में वह
निश्चय ही सबसे आगे निकल जाएगा। उसकी जीत के लिए मन ही मन एक
अनवरत प्रार्थना चल रही थी। प्रेरित से अब बातचीत का विषय
चुनाव और बिल्टू पर ही केंद्रित हो गया था। उसकी जीत से वह
इतना जुड़ गई थी कि सपने भी आते तो उसमें विजय पताका फहराते
हुए बिल्टू ही दिखाई पड़ता। रेशमी के लिए यह अत्यधिक
रोमाँचकारी था कि एक ऐसे समय में जब मामूली आदमी को दबाए रखने
के हज़ारों षड़यंत्र चल रहे हों, एक लांछित-अवांछित आदमी
लोकतंत्र की सीढ़ी चढ़कर शासन और सरकार के सबसे बड़े प्राचीर
में पहुँच जाएगा।
मतदान में दो दिन रह गए थे। उसकी धड़कनें काफ़ी बढ़ गई थीं।
शाम को चुनाव प्रचार ख़त्म होनेवाला था। रेशमी जानती थी कि
फुर्सत मिलते ही बिल्टू सबसे पहले यहीं आकर चैन की साँस लेगा।
वह प्रतीक्षा कर रही थी। जिस बिल्टू को वह कभी निर्ममता से
दुत्कारकर देती थी, जिसके सामने आ जाने से उसका मूड बिगड़ जाता
था, आज उससे मिलने की तलब मानो चरम पर थी। क्लिनिक की खिड़की
से वह सड़क पर गुज़रती गाड़ियों में उसकी बोलेरो को पहचानने की
कोशिश कर रही थी। इसी बीच प्रेरित भागता हुआ दिखाई पड़ गया।
रेशमी देखते ही समझ गई कि उसके चेहरे की उड़ी रंगत में किसी
अशुभ की छाया कंपकंपा रही है। आशंका सच साबित हुई। उसने बताया,
"गोनू शर्मा ने बिल्टू की गोली मारकर हत्या कर दी।
रेशमी को लगा जैसे कोई भूचाल आ गया और छत टूटकर उसके सिर पर
गिर पड़ी। उसकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। तो आख़िरकार
कक्षा का सबसे बदसूरत, सबसे दबा हुआ, सबसे छोटा, सबसे दीन-हीन
और सबसे भोंदू लड़का, जो अपना सूरतेहाल बदलकर बड़ा और अगली
पंक्ति का आदमी बनने चला था, बन नहीं सका। दीनानाथ ने उसे
मरवाकर अपने सामंती राजमार्ग पर एकाधिकार को फिर से सुरक्षित
कर लिया और गोनू ने मारकर अपना बदला ले लिया। गोनू से उसकी
अदावत रेशमी के कारण ही थी। मतलब उसके फना होने में सियासत ही
नहीं मोहब्बत भी एक वजह थी।
बिल्टू की मार्फत वह दुनिया को बदलते हुए देखने की उम्मीद में
एक रोमांच से भरी रहती थी। आज वह पूरे यकीन से कह सकती थी कि
दरअसल वह प्रेरित से ज़्यादा बिल्टू को ही प्यार करती रही। अब
उसके बिना उसके चेहरे पर खुशी शायद कभी नहीं लौटेगी।
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