उसने
कोई एकांत कोना ढूँढकर अपना प्रणय निवेदन करते हुए कहा था,
"रेशमी, मैं बदसूरत हूँ, पढ़ने में बोका हूँ, छोटी जाति का
हूँ, गरीब हूँ, एक अच्छा नाम तक नहीं है मेरा, इसका यह मतलब
नहीं कि मुझे प्यार करने का हक नहीं है। मैं तुम्हें प्यार
करता हूँ, अब यह तुम्हारी मरज़ी कि तुम मुझसे प्यार करो या न
करो।"
रेशमी हिकारत से उसका हुलिया देखते हुए उसकी हिमाकत पर पहले तो
अचंभित हुई, फिर उसे बुरी तरह दुरदुराकर मुँह मोड़ लिया।
कक्षा में प्राय: सभी जानते थे कि रेशमी की दोस्ती प्रेरित
चौधरी से है। प्रेरित कक्षा का अव्वल छात्र था, सुंदर था और
अच्छे घर-खानदान से ताल्लुक रखता था। उसकी क्रियाओं से रेशमी
के प्रति सान्निध्य और स्नेह की तरंगें हमेशा निसृत होती रहती
थीं। रेशमी तब यही समझती थी कि कमसिन उम्र का यह अल्हड़ आकर्षण
स्कूल तक ही सीमित रह जाएगा। स्कूल के बाद फिर पता नहीं कौन
कहाँ रहेगा अ़लग-अलग गंतव्य अपनी-अपनी दिशाओं में बुला लेंगे
तो फिर कौन किसको याद रखेगा। मगर ऐसा नहीं हुआ।
रेशमी डॉक्टरी पढ़ने चली गई फिर भी उसका पता जुगाड़ करके
बिल्टू और प्रेरित उसे पत्र लिखते रहे। उसने बिल्टू को तो जवाब
कभी नहीं दिया, हाँ प्रेरित को कभी-कभी लिख दिया करती। फ़ोन पर
भी कभी बात कर लेती। प्रेरित इंजीनियरिंग करने चला गया। बिल्टू
किसी तरह दसवीं पास करने के बाद, पढ़ाई-लिखाई छोड़कर शहर में
ही जम गया।
रेशमी छुटि्टयों में जब शहर आती तो बिल्टू पता नहीं किस सूत्र
से अवगत हो लेता और फूलों का गुलदस्ता लेकर उससे मिलने चला
आता। रेशमी को उसकी दीवानगी हैरत में डाल देती। एकदम बेमुरव्वत
होकर बार-बार दुत्कारना-फटकारना उसे एक अमानवीय श्रेणी की
कार्रवाई लगती। आख़िर सहृदयता का जवाब कोई हर बार निष्ठुरता से
कब तक दे सकता है? वह उससे दो-चार मिनट बोल-बतियाकर उसका
हालचाल पूछ लेने की शालीनता दिखाने लगी।
कुछ छुटि्टयों के माह और अवधि लगभग समान होने से प्रेरित से भी
मुलाकात का संयोग बैठ जाता। दोनों इकठ्ठे काफ़ी बातें और
तफ़रीह करते। उन्हें एक-दूसरे से कभी ऊब नहीं होती। ऐसा लगने
लगा था कि दोनों उस परिणति की ओर बढ़ रहे हैं जो प्रेम की
शीर्ष मंज़िल बन जाती है। प्रेरित के लिए यह तय था कि
इंजीनियरिंग पूरा करने के बाद वह किसी अच्छी कंपनी में नौकरी
कर लेगा। रेशमी का लक्ष्य शहर में ही आई क्लिनिक खोलकर
प्रैक्टिस करने का था। उसके पिता भी एक डॉक्टर थे। अत: वह उनकी
विरासत को कायम रखना चाहती थी।
वह सायास चाहती थी कि बिल्टू के बारे में पूरी तरह बेख़बर और
अनजान बनकर रहे, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता और उसके भीतर बरबस एक
इच्छा झाँक उठती कि आख़िर वह क्या कर रहा है, उसका कैसा चल रहा
है? हर मामले में निरीह, तुच्छ, पीड़ित और शापित-सा दिखनेवाला
वह आदमी आख़िर अपने जीवन की नैया कैसे खे पा रहा है? पता चला
कि वह काफ़ी मज़े में है। अंग्रेज़ी शराब की एक दुकान खोल ली
है और एक ढाबा चला लिया है। ऊपर से मकान और सड़क बनाने की
कॉन्ट्रैक्टरी भी शुरू कर दी है।
एक बार प्रेरित ने उसे जानकारी दी, शायद नज़रों में गिराने की
मंशा से, कि किसी ठेकेदारी को लेकर शहर के एक क्रिमिनल ग्रुप
से बिल्टू की भिडंत हो गई और गोली-बारी तक चल गई। दो गोलियाँ
आकर उसकी जाँघ में लग गई, जिसके इलाज के लिए वह एक नर्सिंग होम
में भर्ती है। सुनकर रेशमी में खिन्नता आने की जगह एक दया-भाव
उभर आया। उसका मन करने लगा कि उसे देखने के लिए प्रेरित से साथ
चलने का अनुरोध करे। लेकिन वह जानती थी कि प्रेरित उससे घृणा
करता है और उसे गोली लगने से इसे कोई अफ़सोस नहीं है। शायद
रेशमी पर ज़बर्दस्ती अपनी निकटता थोपने के उसके दुस्साहस को
लेकर उसमें एक स्थायी चिढ़ घर कर गई थी। रेशमी समझ सकती थी कि
प्रेरित की अत्यधिक चाहत ही इसकी वजह है। उसके लिए यह असह्य था
कि उसके सिवा कोई और उस पर फ़िदा होने का प्रदर्शन करे।
रेशमी को लगा कि उसमें चाहे लाख बुराई या ऐब हो, इतना
शिष्टाचार तो लाज़िमी है कि उसे जाकर एक बार देख लिया जाए।
प्रेरित की आनाकानी के बावजूद वह उसे देखने चली गई। आज पहली
बार उसके हाथों में उसके लिए गुलदस्ता था। वह आदमी तो न जाने
कितनी बार उसे गुलदस्ता भेंट कर चुका था। उस पर नज़र पड़ते ही
बिल्टू की जैसे बाँछें खिल गई और उसके चेहरे पर ढेर सारी
कृतज्ञता के भाव उभर आए। उसका हृदय भर आया, "तुम आ गई तो यह
कहने का मन करता है कि गोली खाना महँगा नहीं पड़ा। इस शर्त पर
तो मैं और भी कितनी गोलियाँ खा लूँ। देखना, अब मेरे ज़ख्म
सचमुच बहुत जल्दी भर जाएँगे।"
यह पहला मौका था जब उसकी दीवानगी ने ज़रा-सा छू लिया उसे। कुछ
देर वह उसे अपलक निहारती रही, जैसे परख रही हो कि क्या वाकई यह
आदमी उतना बदसूरत है, जितना वह समझती है? उसे बड़ा ताज्जुब हुआ
कि कक्षा में पढ़नेवाले पंद्रह बीस लड़के वहाँ मौजूद हैं। क्या
यह आदमी सबका इतना प्रिय और हितैषी है? पता चला वे सारे लड़के
उसके नेतृत्व में एक स्वयं सहायता समूह बनाकर कॉन्ट्रैक्टरी कर
रहे हैं और अपनी अच्छी आजीविका चला रहे हैं। उन सभी लड़कों की
आँखों में बिल्टू के प्रति गहरी चिंता और कुछ भी कर गुज़रने का
संकल्प समाया था।
रेशमी ने सहानुभूति जताते हुए कहा, "क्यों करते हो ऐसा काम,
जिसमें खून-ख़राबा और मार-काट मचती हो।"
बिल्टू पर एक संजीदगी उतर आई। कहा उसने, "आख़िर क्या करें हम?
हम वे मामूली और भीड़ में शामिल बेसिफ़ारिश लोग हैं जिनके लिए
शराफ़त का कोई काम नहीं है इस देश में। जो काम है उससे जीवन
जिया नहीं बल्कि ठेला जा सकता है। हमें अपनी शक्ल और अक्ल के
अनुसार पेशा का चुनाव करना पड़ा है। तुमसे ज़्यादा भला कौन समझ
सकता है कि मेरी डरावनी शक्ल और फटेहाल हैसियत का आदमी एक
विलेन या बदमाश ही बन सकता है, हीरो नहीं।"
रेशमी ने महसूस किया कि बिल्टू की यह बेबाक उक्ति सीधे उसके
मर्म के भीतर प्रवेश कर गई। सचमुच इस देश में ऐसे लाखों औसत
लाचार युवकों की सुधि लेने वाला कोई नहीं है न कोई मुकम्मल
योजना न कोई सही दिशा? जब खुद से ही रास्ता चुनना है तो कौन
नहीं चाहता ज़्यादा से ज़्यादा आसान और मलाईदार रास्ता!
उसने आगे कहा, "हम इस तरह की जोख़िम उठाए बिना समाज में और
अपने पेशे में टिके नहीं रह सकते, रेशमी। हमारे सामने
बेरोज़गारों की बेहिसाब बड़ी फौज है और उनमें इतनी कठिन
आपाधापी है कि हर कोई एक-दूसरे को गिराने के लिए तत्पर है। तुम
ऐसा मत समझो कि हमें ख़तरों से खेलने का शौक हो गया है। हमने
सिक्युरिटी एजेंसी में काम करके देखा सप्ताह के सातों दिन आठ
घंटे हाथ बाँधे खड़े रहो, तनख्वाह डेढ़ हज़ार रुपये। हमने
अख़बार में रिपोर्टरी करके देखी च़ौबीस घंटे इधर-उधर भागते
रहो। तनख्वाह डेढ़ हज़ार रुपये। हमने स्मॉल इंडस्ट्री में काम
करके देखा। पसीने और कालिख से लिथड़कर ख़तरों से खेलते रहो
तनख्वाह डेढ़ हज़ार रुपये। हमने कुरियर सर्विस में जाकर साइकिल
से या पैदल दर-दर भटककर चिठि्ठयाँ बाँटीं। तनख्वाह डेढ़ हज़ार
रुपये। सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मज़दूरी तक देने के लिए
कोई तैयार नहीं। हमें ऐसा महसूस होने लगा जैसे पूरे देश में
मुनाफ़ाखोरों और सरमायेदारों ने मिलकर तय कर लिया है कि भूख से
लड़ते सर्वहारों को आधा पेट भरने से ज़्यादा का हक कतई नहीं
देना है।"
इतने कठोर सच से रेशमी का जैसे पहली बार वास्ता पड़ रहा था।
उसकी देह में एक सिहरन दौड़ गई। आख़िर यह देश गरीबी और अमीरी
के बीच आसमान-ज़मीन के ऐसे फ़ासले को लेकर कब तक शांत और चैन
से चल सकेगा?
अनायास बिल्टू में रेशमी की रुचि बढ़ गई थी। अब वह जब भी
छुटि्टयों में आती, मन में उससे मिलने का एक अव्यक्त
इंतज़ार-सा बना रहता। उसका लाया गुलदस्ता अब वह अनमनेपन से
नहीं तनिक गर्मजोशी से लेने लगी। जो मुलाकात दो-चार मिनटों में
सिमट जाया करती थी, अब वह ज़रा लंबी खिंचने लगी।
प्रेरित ने उसके बदले अंदाज़ को ताड़ लिया। जिसका ज़िक्र आते
ही उबकाई आने लगती थी, उसकी चर्चा अब किसी स्वादिष्ट व्यंजन की
तरह होने का राज़ भला छिपा कैसे रह सकता था। कभी-कभी तो वह इस
तरह कह जाती थी जैसे पूर्व के हेय-दृष्टिवाले सलूक पर अफ़सोस
जता रही हो। उसने एक दिन स्थानीय अख़बार दिखाते हुए कहा, "देखो
ज़रा बिल्टू का जलवा। आजकल वह अख़बार की सुर्खियों में आने लगा
है। उसने झारखंड मुक्ति संघ ज्वाइन कर लिया है और उस मंच से
बहुत सारे सामाजिक काम करने लगा है।"
प्रेरित जैसे कु़़ढ गया, "इसमें नया क्या है रेशमी? गल़त और
अवैध काम करनेवाले तत्त्व तो राजनीतिक पार्टियों को अपना आश्रय
बनाकर रखते ही हैं। अपनी काली करतूत को ढँकने के लिए सामाजिक
काम का लेबल तो मुँह पर चिपकाना ही पड़ता है।"
रेशमी ने उसके पक्ष में कोई दलील रखना उचित नहीं समझा। वह समझ
गई कि बिल्टू के बारे में कुछ भी अच्छा सुनना अब भी इसके लिए
नाकाबिले बर्दाश्त है। रेशमी की चुप्पी को प्रेरित ने खुद से
असहमति समझी। उसने फिर कहा, "देखना, किसी दिन यह आदमी मारा
जाएगा। शहर में इसकी दबंगता के बहुत किस्से सुनाई पड़ने लगे
हैं।"
रेशमी जानती थी कि प्रेरित का कहना पूरी तरह निराधार नहीं है।
बेशक वह शहर में सबका हितैषी ही बनकर नहीं था, कुछ के लिए खौफ़
और एक सख्त अवरोधक के रूप में भी वह जाना जाने लगा था। ऐसा
नहीं कि रेशमी उसकी तरफ़दार बन गई थी। हाँ, उसमें उसके हर
विकास की ख़बर रखने की एक उत्सुकता ज़रूर जग गई थी।
उसके मन में कभी-कभी यह द्वंद्व झाँक उठता कि अगर बिल्टू जो कर
रहा है, वो सब छोड़ दे तो आख़िर वह क्या करे? उसने पूछ लिया
प्रेरित से। प्रेरित इस सवाल में निहित एक मौन समर्थन से जैसे
भन्ना उठा। उसने कहा, "करने के लिए इस देश में सिर्फ
गुंडागर्दी और रंगदारी ही नहीं है। दुनिया में ज़्यादातर लोग
सज्जनता और ईमानदारी के धंधे करके ही अपनी जीविका चलाते हैं।
लेकिन कोई रातोंरात लाखों के ऐश्वर्य का किला खड़ा कर लेना
चाहे तो उसके लिए गल़त और अवैध होना या फिर आततायी और बर्बर
होना ही एकमात्र शार्टकट रास्ता हो सकता है।"
रेशमी को लगा कि अपने दुराग्रह के कारण प्रेरित सच्चाई की
खामखाह अनदेखी कर रहा है। वह अपने को रोक न सकी, "बिल्टू बर्बर
और आततायी नहीं है प्रेरित। वह साहसी है, निडर है। किसी भी
जुल्म और आतंक से टकरा जाने का उसमें माद्दा है। अपने हक के
लिए मर मिटने की उसमें दिलेरी है। ऐसा नहीं कि किसी बेकसूर या
भले आदमी को यों ही परेशान या तंग करता है। हाँ, जो चीज़ें
समाज में बाहुबल, सीनाजोरी और टेढ़ी उँगली से हासिल करने का
चलन है, उसमें वह भी अपना ज़ोर लगा देता है। अब भला रोड या
बिल्डिंग बनाने का ठेका किसी साधु को तो नहीं मिल सकता?"
आपसी वाद-विवाद बीच में असहनीय खटास की स्थिति उत्पन्न न कर दे
इसलिए प्रेरित ने खुद को संयमित कर लेना ही उचित समझा।
अगली छुटि्टयों में वह आई तो बिल्टू के पहले उससे मिलने पड़ोस
की एक बुजुर्ग महिला आ गई। उसने अत्यंत दयनीय और विनीत भंगिमा
बनाकर कहा, "बेटी, मैं महीनों से तुम्हारी राह तक रही थी। तुम
जानती हो कि मैं एक अकेली औरत हूँ और मेरे दो छोटे-छोटे बच्चे
हैं। टाइगर फोर्ट नामक बिल्डर ने मेरी ज़मीन पर कब्जे के लिए
पूरा जाल फैला दिया है और वह हमें डरा-धमका कर ज़बर्दस्ती करने
पर उतारू है। हमने मदद के लिए कई कथित पराक्रमियों और पुलिस
अधिकारियों से गुहार लगाई, मगर सबने उस बिल्डर का नाम सुनते ही
अपने हाथ खड़े कर लिए। तुम चाहो तो हमें उससे मुक्ति मिल सकती
है, अन्यथा हम बर्बाद हो जाएँगे।"
"मेरे चाहने से आपको मुक्ति मिल जाएगी, कैसे? मैं समझी नहीं?"
हैरत में पड़ते हुए कहा रेशमी ने।
"मैंने कई बार देखा है, बिल्टूराम बोबोंगा तुम्हारे घर आता है,
उससे तुम्हारी दोस्ती है। वही एक आदमी है जो मुझे मुसीबत से
छुटकारा दिला सकता है।"
रेशमी को सब कुछ समझ में आ गया। बिल्टू के एक नये चेहरे से वह
परिचित हो रही थी। तो उसकी अब यह हस्ती हो गई! उसने बड़े आदर
से आश्वासन दिया, "आँटी, अगर मेरे कहने से आपका काम हो जाएगा,
तो आप निश्चिंत होकर घर जाइए, मैं बिल्टू को ज़रूर कहूँगी और
उम्मीद है वह मेरा कहा नहीं टालेगा।"
ठीक ऐसा ही हुआ। बिल्टू ने चुटकी बजाते ही उसकी मुसीबत दूर कर
दी। रेशमी ने कहा तो उसी वक्त उसने अपने मोबाइल पर बिल्डर
टाइगर फोर्ट से संपर्क कर लिया। उसके रौब और धाक भरे संबोधन
सुनकर वह उसका मुँह देखती रह गई। सबसे पीछे बेंच पर बैठनेवाला
और कक्षा का सबसे चुप रहनेवाला दब्बू लड़का क्या इस तरह
रूपांतरित हो सकता है? बिल्टू अब आता था तो उसके पीछे दो-तीन
सुमो और क्वालिस गाड़ियाँ होती थीं। खुद वह बोलेरो में होता था
और उसके साथ कई लोग होते थे। अत: उसका आना एक ख़बर बन जाती थी।
आसपास के लोग हसरत से देखने लगते थे। रेशमी को पहले उसके इस
तरह तामझाम के साथ आने पर झेंप होती थी, अब जरा फ़ख्र जैसा
होने लगा था।
अगले दिन कृतज्ञता से भरी वह महिला हाथ जोड़े उसके सामने खड़ी
हो गई। रेशमी सोचने लगी कि क्या आज की बेमुरव्वत हो रही फिज़ा
में अपने ऊपर एक ऐसे आदमी की छतरी का तना होना अनिवार्य बन गया
है?
प्रेरित को जब उसने इस घटना की जानकारी दी तो कसैला हो गया
उसका मुँह। वह इसकी आलोचना करते हुए कहने लगा, "ऊपरी तौर पर
लगता है कि आसानी से काम हो गया, लेकिन इसका दूरगामी असर सुखद
नहीं हो सकता। ठूँठ पेड़ की छाया धूप हो या चाँदनी, बेमानी और
एक छलावा है।"
प्रेरित के इस वक्तव्य में जहाँ एक सच्चाई की ध्वनि थी वहीं यह
हिदायत भी थी कि ऐसे आदमी से जितना दूर रहा जाए, उतना अच्छा
है। रेशमी को इससे इंकार नहीं था कि बिल्टू का प्रभाव क्षेत्र
चाहे जितना बड़ा हो गया हो, मगर छवि तो उसकी एक बुरे और दागदार
आदमी की ही है। रेशमी इसका पूरा ख़याल रखना चाहती थी कि बिल्टू
के कारण प्रेरित से लगाव में कोई फीकापन न आए। मगर यह कौन
जानता था कि प्रेरित का यह मंतव्य खुद उसे ही कसौटी पर खड़ा
करके डाँवाडोल कर देगा!
प्रेरित के पिता का एक जमा-जमाया स्कूल उनके पार्टनर द्वारा
कब्ज़ा कर लिया गया। उसके पिता मुंशी सुखधर चौधरी एक शिक्षक
थे। रिटायर होने के बाद उन्होंने समाजसेवक कहे जानेवाले एक
व्यक्ति रामधनी शर्मा के साथ मिलकर एक विद्यालय की स्थापना की।
इसमें उन्होंने अपने सारे संसाधन और अपनी सारी जमापूंजी लगा
दी। सारी वांछित सुविधाएँ जुटाकर स्कूल को सी बी एस ई से
संबद्धता दिलाने में सफल रहे। शैक्षणिक गुणवत्ता से कोई समझौता
न करना पड़े, इसे ध्यान में रखकर अन्यत्र काम कर रहे उच्च
शिक्षा प्राप्त अपनी एक बेटी और दामाद को भी बुलाकर स्कूल में
लगा दिया। स्कूल की अच्छी साख बन गई और खूब चल निकला।
प्रतिष्ठा और आय का एक अजस्र स्रोत बन गया। उत्कृष्ट पढ़ाई की
दृष्टि से सभ्रांत नागरिकों में इसके क्रेज़ का ग्राफ़ सबसे
ऊपर हो गया। इसमें नामाँकन के लिए जाँच-परीक्षा के रूप में एक
कड़ी कसौटी तय करनी पड़ी। रामधनी शर्मा की नीयत ख़राब होने
लगी। आमदनी, हैसियत और कद्र का बँटवारा उसे खटकने लगा। ज़मीन
उसकी दी हुई थी, इसलिए उसे लगा कि इस पर सौ प्रतिशत स्वामित्व
उसका ही होना चाहिए।
उसका एक बेटा गोनू शर्मा नालायक निकलकर सीधे-सीधे अपराध और
तमाम तरह के दुष्कृत्यों व काले कारनामों का हिस्ट्रीशीटर बन
गया था और उसे ज़्यादातर समय जेल में ही बिताना होता था। खूँटा
मज़बूत और सिर पर तने चंदोवा को अभेद्य जानकर रामधनी ने मुंशी
जी को स्कूल से बेदखल कर देने का हिटलरी फ़ैसला कर लिया। जानता
था कि मुंशी शरीफ़ आदमी है, कुछ कर नहीं पाएगा। मुंशी के साथ
उनकी बेटी और दामाद को भी उसने निष्कासित कर दिया। मुंशी जैसे
अचानक सड़क पर आ गए। सपरिवार मिलकर खून-पसीने से उसे सींचा था
और अपना सर्वस्व दांव पर लगाकर उसमें वांछित फूल खिलाए थे।
स्कूल से बेदखली का अर्थ पूरी तरह उनकी बर्बादी था। उन्होंने
न्याय के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाया। मुकदमा चलने लगा। एक
साल द़ो साल प़ूरे परिवार की स्थिति बिगड़ती गई।
रेशमी देख रही थी कि प्रेरित का सुखी-संपन्न परिवार तकलीफ़ों
और परेशानियों में घिरता जा रहा है। उसकी माली हालत खस्ता होती
चली जा रही है। एक बार तो यों जान पड़ा कि उसकी इंजीनियरिंग की
पढ़ाई भी बाधित हो जाएगी। हालात बता रहे थे कि अदालत में टलती
और बढ़ती हुई तारीखें जब फ़ैसले तक पहुँचेंगी तब तक बहुत कुछ
ख़त्म हो चुका होगा।
रेशमी बार-बार इशारा कर रही थी कि इस मामले में बिल्टूराम
बोबोंगा का हस्तक्षेप काफ़ी लाभप्रद सिद्ध हो सकता है। अंतत:
एक दिन प्रेरित ने अपने मन की तहें खोलते हुए कहा, "पहले तो
मेरे पिता किसी ऐसे आदमी की सहायता स्वीकार नहीं करेंगे जो
आतंक और ज़ोर-ज़बर्दस्ती का पर्याय है। दूसरी बात यह कि बिल्टू
मेरी मदद करेगा भी नहीं। क्योंकि वह अच्छी तरह जानता है कि मैं
शुरू से ही उससे नफ़रत करता रहा हूँ। वह तुम पर अपनी चाहत
थोपता है, इस मामले में तो वह मुझे अपनी राह का काँटा समझता
होगा। क्या पता वह मदद करने की जगह मेरी और जड़ खोदने लग जाए।
जो भी हो, फिलहाल हमारी अंतरात्मा उसकी शरण में जाने की
इज़ाज़त नहीं देती। हम लोगों के धैर्य अभी ख़त्म नहीं हुए हैं।
इंसाफ़ और सच्चाई पर अब भी हमारा भरोसा कायम है। हम कुछ दिन और
इंतज़ार करना चाहते हैं।"
"जैसा तुम उचित समझो। मेरा मकसद तुम पर अपना विचार लादना नहीं
है। हाँ, इतना मैं अवश्य कहना चाहूँगी कि अगर पानी सिर से इतना
ऊपर हो जाए कि नैतिकता, उसूल, जान-जहान आदि सब कुछ के डूब जाने
का ख़तरा बन जाए तो तिनके का सहारा समझ बिल्टू को एक बार आज़मा
लेना कोई ऐसा पाप नहीं होगा कि परलोक में नर्क भोगने की नौबत आ
जाए। मुझे पूरा विश्वास है कि तुम्हें मदद करने में वह ज़रा भी
कोताही नहीं करेगा। तुमसे वह किसी तरह का बैरभाव रखता है, ऐसा
मैंने कभी महसूस नहीं किया। अगर रखता भी होगा तो मैं अपनी तरफ़
से उससे विशेष निवेदन करूँगी।"
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