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"यह स्कूल तो सस्ता है। सुना है, सेंट जान्स वाले नाम लिखने का पाँच हज़ार रुपए लेते हैं।"
"हाँ, कितनी नेक हैं मेम साहब, दो सौ रुपए छोड़ दिए।"
"पड़ोसियों का कितना ख़याल रखती हैं।"
"आज के ज़माने में लोग पैसे दांत से पकड़ते हैं।"
"अंगनू साव हैं न, हर चीज़ बाज़ार से महँगा देते हैं।"
"उधारी पर जो ब्याज रख लेते हैं।"
"अच्छा, तुम डाकख़ाने जा कर पैसे निकाल लाओ, मैं सेठ का काम निपटा के आती हूँ। आकर ही खाना बनाऊँगी। बस, गई और आई।"
"तुम सेठ के यहाँ कपड़ा धो आई हो न?"
"अभी कहाँ, तुम रिक्शा निकालो मैं बबलू को लेकर जाऊँगी।"
"बबलू सो गया। तुम आज नागा कर दो, तुम्हारे साथ खुशी मनाऊँगा।"
"किस बात की खुशी?"
"बबलू कल से स्कूल जाने लगेगा न।"
"हाँ, यह तो खुशी की बात है ही।"

दूसरे दिन सुबह ही कांता और छनिया बबलू को लेकर बाल निकेतन गए। इस विद्यालय के संस्थापक सूरज प्रसाद अग्रवाल की बहू सुमन लता अग्रवाल ही प्रधानाध्यापिका थीं। मुहल्ले का होने के नाते कांता और छनिया को उन्होंने विशेष तवज्जो दिया। बैठने के लिए कुर्सी दी।
हिसाब जोड़ कर बोलीं, "वैसे तो एडमिशन के कुल पैंतीस सौ रुपए हुए, लेकिन आप लोग दो सौ कम दे दीजिए।"
"जी, आज फारम दे दीजिए, कल पैसे लेकर आएँगे तो नाम लिख लीजिएगा।"
"ठीक है, फार्म के सौ रुपए दे दीजिए।"
कांता ने जेब से सौ रुपए निकाल कर पकड़ाए। प्रधानाध्यापिका ने आलमारी से प्रवेश फार्म निकाल कर दिया। कांता और छनिया खुशी-खुशी घर लौट आए।

दूसरे दिन बबलू को लेकर कांता बाल विद्या निकेतन पहुँचा। उसके पास डाकखाने से निकाले हुए कुल जमा अड़तीस सौ रुपये थे। वह सीधे प्रधानाध्यापिका के पास गया। प्रधानाध्यापिका ने फार्म लिया। उस पर एक सरसरी निगाह डाली और बत्तीस सौ रुपए बतौर एडमिशन फीस लेकर मेज़ की दराज में रख लिया। इसके बाद उन्होंने कांता को ड्रेस और पुस्तकों आदि के लिए एक स्लिप देकर रूम नंबर तीन में भेज दिया। इस कमरे में बैठी थीं कुमारी मंजुलता पांडेय। कमरे में लोहे के कई रेक कतार से लगे थे। उस पर सफ़ेद रंग का हाफ शर्ट, नीला हाफ पैंट, लाल रंग की शर्ट, बैग, पुस्तकें, अभ्यास पुस्तिकाएँ, खिलौने आदि रखे। कुल मिलाकर यह कमरा दुकान जैसा लग रहा था। कुमारी पांडेय ने कांता के हाथ से स्लिप लिया, उस पर एक नज़र डाली और फाड़कर डस्टबिन में डाल दिया। उठ कर रेक के पास गईं। शर्ट, पैंट, टाई, बेल्ट, बैग, डायरी, चार पुस्तकें, चार अभ्यास पुस्तिकाएँ, एक काउंटिंग स्लेट, रबर, पेंसिल कटर आदि ढेर सारी वस्तुएँ लाकर अपनी मेज़ पर एक तरफ़ रख दिया। सभी के दाम जोड़ो - ग्यारह सौ तिरपन तिहत्तर पैसे। फिर कांता की ओर देखकर पूछा - "आपका नाम?"
"जी, कांता, कांता परसाद।"
"ग्यारह सौ तिरपन रुपए तिहत्तर पैसे लाइए। काले रंग का जूता आपको बाज़ार से लेना होगा। कल बच्चे को ड्रेस पहना कर सुबह ठीक सात बजे स्कूल भेजिएगा।"
"जी, आज पूरे पैसे नहीं हैं, कल ले लेंगे।"
कुमारी पांडेय की त्योरियाँ चढ़ गईं। कांता पर तीखी नज़रें फेंकते हुए बोलीं, "कितने रुपए हैं?"
"जी छ: सौ रुपए हैं।"
"तो आज ड्रेस ले जाओ, बाकी चीज़ें कल ले जाना।"
"जी, यह ले लीजिए।" कांता ने छ: सौ स्र्पए मेज़ पर रख दिए।"
"क्या करते हो?" कुमारी पांडेय ने रुपए गिनते हुए पूछा।
"जी, रिक्शा चलाता हूँ, अपना रिक्शा है।"
"बच्चे को पब्लिक स्कूल में पढ़ाने का शौक है तो कोई दूसरा धंधा करो। रिक्शे की कमाई से पूरा नहीं पड़ेगा। कु. पांडेय ने पाँच रुपये हुए। पकड़ो पाँच स्र्पए। कांता ने पाँच रुपए जेब में डाले। बबलू का स्कूल ड्रेस समेटा। और प्रमुदित मन से घर के लिए वापस हुए। कांता के जाने के बाद कु. पांडेय बड़बड़ाई- जिसे देखो, वही अपने बेटे को कलक्टर बनाना चाहता है, चाहे खाने को अँटता हो या नहीं, पढ़ाएँगे इंग्लिश मीडियम से।"

कांता घर आया तो छनिया का हुलास फूट पड़ा। उसने तुरंत बबलू को गोद में उठा कर उस पर अपना ममत्व उड़ेल दिया। मुदित मन छनिया ने बबलू पर चुंबनों की झड़ी लगा दी।
"अब मेरा बबलू कल से स्कूल जाएगा।" फिर उसने कांता की ओर झपटते हुए कहा, "ज़रा देखूँ तो क्या-क्या लाए हो।" और बबलू का स्कूल ड्रेस कांता के हाथ से लेकर चारपाई पर छितरा दिया, "यह पैंट, यह शर्ट मेरे बबलू पर खूब जमेगा। ठीक से नाप किए हो न, ज़्यादा झोझर तो नहीं होगा, अरे, यह टाई तो बहुत अच्छी है, लाल रंग की। बबलू टाई लगा लेगा तो बड़े बाप का बेटा लगेगा और यह सफ़ेद मोजा, बहुत अच्छा है, बस जूता लेना होगा बाज़ार से, और कापी-किताब जी?" कांता की तरफ़ देखते हुए छनिया ने पूछा।
"कापी-किताब भर के पैसे बचे ही नहीं।"
"कितने पैसे और चाहिए?"
"छ: सौ रुपए।"
छ: सौ रुपए की कापी-किताब? बैग भी तो चाहिए।"
"इसी में सब हो जाएगा। मेम साहब ने कहा है, कल लेके आना तो दे देंगे।"
"मेरे पास चाँदी की हंसुली है, पाजेब और करघनी है। सेठ के यहाँ गिरवी रख देते हैं, हाथ सरकेगा तो छुड़ा लेंगे। दुकान तो दस बजे खुलेगी न, तब तक खाना बना लेते हैं, खा-पीकर चलेंगे।"
"हाँ, खा-पीकर निकलेंगे। तुम बाज़ार का काम निपटा कर बबलू को लेकर घर चली आना, मैं कुछ कमाई कर लूँगा। कल भी नहीं निकाला था रिक्शा।"
"हाँ बबलू को पढ़ाना है तो रोज़ कमाई ज़रूरी है।"

छनिया ने जल्दी-जल्दी आटा गूँथा, रोटियाँ सेंकी। कांता से दो रुपए का दूध मँगाया। बबलू को दूध के साथ एक रोटी खिलाई और पति-पत्नी ने नमक, प्याज़, सरसों के तेल से पेट भरा, फिर एक झोले में गहने लेकर साव की दूकान पर पहुँच गए।
ग़रीब-गुरवा का जो गहना गीठो एक बार सेठ घनश्याम की आलमारी में पहुँच गया, वह वापस नहीं लौटा। मूलधन कौन कहे, ब्याज भर का ही होकर रह गया।
"तेरे गहना में मिलावट ज़्यादा है बहिन जी, ऐसे मूर तो दूर सूदो नाहीं निकली। भाग मनावा सेठ घनश्याम के इहाँ आई हऊ, नहीं केहू दुसरे कीहाँ गई होतू तो घर-दुआर सब लिखै के पड़त। गहना देके जान छोड़ावा, हँसत-खेलत जा घरे। तीन साल के टेम कउनो कम नाहीं होत। ला दस रुपया रिक्शा भाड़ा और दस रुपया साग-सब्ज़ी के।" कितने दयालु हैं सेठ घनश्याम दास। इसी से फल-फूल रहे हैं न।
"का लायू हो।" सेठ ने छनिया के झोले की तरफ़ हाथ बढ़ाते हुए कहा।

छनिया ने झोले में से गहने निकाल कर सेठ के सामने रख दिया। सेठ के एक-एक गहना उलट-पलट कर देखा फिर बोले, "इसमें तो बारह आना गीलट है, बस चार आना चाँदी है।"
"क्या कह रहे हो सेठ? मेरे बाप ने मेरी शादी के समय पाँच हज़ार में ख़रीदा है, तू कह रहे हो निराल गीलट है?" छनिया के तेवर थोड़े तीखे हो गए।
"तुम्हरे बाप को ठग लिए हैं दूकानदार। कौन जिला में मायका है तुम्हार?"
"इटावा में।"
"तो ऊहाँ के तो सब सोना चाँदी वाले ठग होत हैं। ख़ैर, छोड़ा ई कुल बात, बतावा केतना चाही?"
"छ: सौ।"
"छ: सौ?" सेठ ने अचरज से आँख तरेरते हुए कहा, "तीन सौ से ऊपर कहू का ना देई। साल भर में छोड़ सूद त सूद-ब्याज लेके माल के कीमत से ज़्यादा बइठ जाई। मोर कहा माना त एके बेचदा। बेच के आपन काम करो, जब हाथ-गोड़ सरकी तब आया, हम खांटी के रकम देव। का करिहौ ई गीलट रखके।"
बेचे से केतना मिलेगा?" कांता ने पूछा।
"निखालिस चाँदी रहत त ढेर मिलत बाकि रह में गीलट ज़्यादा है तो यही कुल ले-दे के पंद्रह के करीब बनी।" सेठ ने माथे पर बल देते हुए कहा, "वइसे बन तो रहा है बारहा सौ, बाकी आप लोगन के परमानेंट ग्राहक बनावै के है, एही से हम तीन सौ ज़्यादा देय रहा हूँ। दू-तीन सौ रुपया में का घटा हैं। फेर कबों कमा लेव आप लोगन से। ग़लत तो नाही कहा न बहन जी?"

छनिया ने कांता की ओर देखा मूक भाषा में दोनों के बीच बातचीत हुई, सहमती बनी, फिर छनिया ने कहा, "सेठ न हमार न तुम्हार, सौ रुपए बढ़ा के सौलह सौ दे दो।" सोलह सौ रुपए पाकर कांता और छनिया बेहद खुश हुए। कहाँ दस रुपए भी नहीं था पास में कहाँ सोलह सौ रुपए। कांता कमाई के लिए शहर निकल गया, छनिया बबलू के साथ घर लौटी। उस दिन की रात तो जैसे कुंडली मार कर बैठ गई थी। सरकने का नाम ही नहीं ले रही थी। छनिया कमरे से बाहर निकल कर गली में आई। आकाश की ओर देखा। टहक अजोरिया उगी थी। बादल के कुछ टुकड़े इधर-उधर छितराए थे। चाँद एकदम सिर के ऊपर है। लगता है, रात अभी आधी बाकी है।" बड़बड़ाती हुई अंदर चली गई छनिया।
"बाहर क्यों गई थी?"
"तुम भी जाग रहे हो क्या?"
"ऐसे नींद कहाँ आती है।"
"अभी आधी रात बाकी है।"
"यही देखने गई थी क्या?"
"चाँद बिलकुल मूड़ के ऊपर है।"
"फिर तो...।"
"तुम थक कर आए हो, सोए रहो।"
"थकान का नुस्खा तो तुम्हारे पास ही है न।"

छनिया और कांता दोनों हँसने लगे। फिर पता नहीं नींद आ गई। छनिया की आँख खुली तो गली में लोगों के आने-जाने की आहट सुनाई दे रही थी। झट उठी, बबलू और कांता को जगाया। कांता चाय बनाने में जुट गया, छनिया बबलू को तैयार करने लगी। खुद दोनों ने चाय पी। बबलू को चाय के साथ बासी रोटी खिलाई। स्कूल ड्रेस पहनाया। ऊपर से नीचे तक निहारा। छाती से चिपका कर चूमा। माथे पर काजल का टीका लगाया। फिर बबलू को कांता के साथ स्कूल भेजा। चबूतरे पर खड़ी हो तब तक अपलक देखती रही, जब तक बबलू दूसरी गली में नहीं मुड़ गया। कांता बबलू को स्कूल छोड़ कर आएगा तो नमक-तेल से बासी रोटी खाकर रिक्शा निकाल लेगा। वह सेठ के यहाँ कपड़े धोकर लौटते समय बबलू को स्कूल से लेती आएगी। कल से चौका बर्तन वालों के यहाँ भी जाने लगेगी। तीन दिनों से छुट्टी ले रखी है।

बबलू यानी राहुल को स्कूल जाते एक महीना हो गया। स्कूल की टीचर ने राहुल की डायरी में लिखा -"राहुल पढ़ने में काफ़ी कमज़ोर है। एक महीने में अंग्रेज़ी का एक अक्षर भी नहीं सीख पाया। आकर मिलें।"
अंग्रेज़ी में लिखा गया यह संदेश कांता के लिए था। उसने पड़ोस के एक सज्जन से उसका अर्थ पूछा। इन सज्जन ने अर्थ तो बताया लेकिन कांता के चलते-चलते व्यंग्य भी किया - "बाप के नाम साग-पात, पूत के नाम परोरा।" कांता ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया। यह भी हो सकता है कि उसे इसका मतलब न समझ में आया हो। लेकिन इतना तो तय था कि डायरी में लिखे का हिंदी में तर्जुमा सुन कर कांता की रक्त नलिकाएँ सूखने लगीं। उसने मटमैला कुर्ता-पायजामा पहना, जो कई जगह सिला हुआ था, शरीर पर डाला और राहुल के स्कूल चला गया। थोड़ी देर बाद वह राहुल की क्लास टीचर के सामने था।
"कहिए?"
"जी, आपका बेटा पढ़ने में बहुत कमज़ोर है, बिना टयूशन के नहीं चल पाएगा।"
"जी, समझा नहीं।"
"मतलब यह कि इसे अलग से पढ़ाना होगा।"
"तो पढ़ा दिया कीजिए, बड़ी मेहरबानी होगी।"
"उसके चार सौ रुपए और देने पड़ेंगे।"
"जी कुछ कम...।"
"काफ़ी मशक्कत करनी होगी इसके साथ। अभी यह ए फार एपल भी नहीं सीख पाया। बहुत डल है।"
"तो कब पढ़ाएँगी?"
"स्कूल से छुट्टी होने के बाद एक घंटा रुकना होगा। अब आप लोग साढ़े बारह बजे के बजाय डेढ़ बजे आएँगे राहुल को लेने।"
"ठीक है जी। नमस्ते जी।"

स्कूल से लौटते हुए कांता ने कुछ राहत महसूस की। राहत इसलिए कि राहुल को स्कूल से निकाला नहीं गया। सुबह डायरी देख कर उसे शंका हुई कि राहुल की स्कूल से छुट्टी कर दी जाएगी। आख़िर जब उसे अंग्रेज़ी समझ में ही नहीं आ रही है तो यह अंग्रेज़ी स्कूल में कैसे पढ़ सकता था? अब राहुल अंग्रेज़ी की पढ़ाई जारी रख सकेगा। चार सौ रुपए अधिक लग रहे हैं तो क्या हुआ। बेटे के भले के लिए ही तो इतना जांगर तोड़ रहा हूँ।
घर लौट कर जब कांता ने छनिया को यह बात बताई तो वह क्षण भर के लिए जैसे जड़ हो गई। फिर बिना कुछ बोले अपने काम में लग गई।

इस घटना के एक सप्ताह बाद कांता राहुल को स्कूल पहंुचाने गया तो क्लास टीचर ने उन्हें फिर रूम नंबर तीन में भेज दिया। कांता जाकर रूम नंबर तीन वाली मैडम के सामने खड़ा हो गया।
"जी, मुझे टीचर जी ने आपके पास भेजा है।"
"कांता प्रसाद जी, अब हर शनिवार को बच्चों की पी.टी. कराई जाएगी," कुमारी पांडेय ने रुखे लहजे में कहा, "इसके लिए सफ़ेद ड्रेस चाहिए। कल आइएगा तो पाँच सौ पचीस रुपए लेते आइएगा। सफ़ेद पी.टी. शू आपको बाज़ार से लेना पड़ेगा, समझे।"
"जी, समझ गया।"

कांता कमरे से बाहर तो हुआ पर रूम नंबर तीन उसके ऊपर प्रेत की तरह सवार हो गया। वह प्रेत इस कदर उसका खून चूसता गया कि वह बेदम हो गया और उसके कदम लड़खड़ाने लगे। घर पहुँच कर किसी तरह ताला खोला, कुंडी हटाई और दरवाज़ा खोल कर अंदर घुसते ही खाट पर धड़ाम से गिर पड़ा। छनिया धंधे से लौटी तो कांता को बदहवास से खाट पर पड़ा देख कर घबड़ा गई। उसने कांता को झकझोरा, "तबीयत तो ठीक है न इस तरह निढाल हो कर क्यों पड़े हो?"
"कोई ख़ास बात नहीं, बस आँख लग गई थी।" कांता ने बैठते हुए कहा, "बबलू को सफ़ेद रंग का ड्रेस चाहिए। ड्रेस स्कूल से मिलेगा। सवा पाँच सौ रुपए में। सफ़ेद पी.टी. शू बाज़ार से ख़रीदना होगा। मेम साहब ने कल ही ख़रीदने को कहा है। कुल साढ़े छ: सौ रुपए का खेल है।"
"तो इसमें चिंता की क्या बात है, मैं आज ही सेठ के यहाँ से छ: सौ रुपए ले लेती हूँ तीन-चार महीने में कटा दूँगी।"

छनिया दोपहर में सेठ के यहाँ कपड़ा धोने गई तो सेठाइन से छ: सौ रुपए ले आई। रुपए इस शर्त पर मिले कि तीन महीने में काट लिए जाएँगे यानी दो सौ रुपए प्रति माह।

दूसरे ही दिन राहुल के लिए सफ़ेद ड्रेस और सफ़ेद पी.टी. शू आ गए। सात सौ रुपए बबलू की पढ़ाई की फीस और दो सौ रुपए के पगार में से कटने के कारण कांता का हाथ सकते में पड़ गया। ऊपर से आए दिन का खुचुड़-पुचुड़। कभी बच्चों का टूर जाना है, दो सौ रुपए चाहिए। कभी भूकंप पीड़ित राहत कोष के लिए पचास रुपए चाहिए। कभी भवन निर्माण के लिए सौ रुपए चाहिए। कभी वार्षिकोत्सव के लिए पचास रुपए। अब सुनते हैं, बच्चों के लिए कंप्यूटर आ रहा है, इसे सीखाने के दो सौ रुपए महीने अलग से लगेंगे। एक तो रात-दिन रिक्शा खींचना, दूसरे सूखी रोटी चबाना, कब तक थमी रहेगी यह देह? छनिया भी धीरे-धीरे खिसकती आ रही है, बबलू को भी पाव भर दूध का जुगाड़ नहीं हो पा रहा है। चाय से रोटी खा के जाता है स्कूल। लड़काई में जब नहीं खाएगा-पिएगा तो कैसे बनेगा पुरहर मरद? रात दिन की हाड़तोड़ मेहनत, ऊपर से पैसे की किल्लत ने कांता को चिड़चिड़ा बना दिया था। उसके चिड़चिड़ेपन से छनिया की नारी सुलभ चपलता भी गायब होती जा रही थी... 'लेकिन बबलू को अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ाने के लिए यह सब तो सहना ही पड़ेगा।'

कांता आज कुछ जल्दी ही आ गया था घर। पता नहीं क्यों चार-छ: चक्कर लगाने से ही हफरी छूटने लगी थी उसे। आज रात में गाड़ी नहीं निकालेगा वह। पूरी तरह आराम करेगा और बबलू तथा छनिया के साथ रहेगा। ऐसा भी क्या कमाना कि अपनी देह भी माटी हो जाए और न पत्नी का सुख मिले, न बच्चे का।

रात के आठ बजे थे। मुहल्ले में कोलाहल लगभग थमने लगा था। छनिया ने चूल्हा जलाया। चाय बनाई। कांता चाय पी रहा था। छनिया खुद चाय पीने के साथ ही बबलू को चाय के साथ रोटी खिला रही थी। कांता ने चाय ख़त्म कर बीड़ी सुलगा ली। छनिया ने भी चाय ख़त्म की। बबलू को खिलाकर कांता के पास बैठा दिया। खुद आलू काटने में लग गई। वह आलू का झोल लगाएगी और परोठे बनाएगी। आज की शाम खूब अच्छी तरह बिताएगी कांता के साथ।

कांता ने बीड़ी ख़त्म की। उसे खाट की पाटी से रगड़ कर बुझाया और एक तरफ़ फेंक दिया। बबलू लेट गया था। कांता ने उसे उठाया, "अले, बेटा मेरा इतनी जल्दी छो रहा है, पापा के छाथ बात नहीं कलेगा क्या भई आ जा बेटे, मेले बबलू आजा मेली गोदी में आ, हाँ, छाबाश।" कांता बबलू को गोद में लेकर उसके सिर और गालों पर हाथ फेरने लगा।
"बबलू बेते?"
"ऊँ।"
"ऊँ नहीं कहते, यस पापा कहते हैं।"
"यछ पापा।"
"हाँ यह हुई न कोई बात। मेला बेटा बहुत तेज़ है, पढ़-लिखके छाहेब बनेगा, बला आदमी बनेगा।" कांता ने खुशी से चूम लिया बबलू को।
"ए फार?"
"बोल बेटे, ए फार? हाँ, हाँ बोल। पापा छे नई डरते, नई डरते पापा छे, मेला बेटा बताएगा- ए फार। बला आदमी बनेगा मेला बेता...।" कांता बबलू के सिर पर हाथ फेरने लगा, "बोल बेते, ए फार?" बबलू ने आँखें बंद कर ली थीं।
"छनिया, यह रोज़ इसी समय सो जाता है क्या?"
"नहीं तो, खेलता रहता है। आज थक गया होगा। स्कूल में मेहनत पड़ गई होगी।"
कांता ने बबलू को ज़ोर से झकझोरा। बबलू ने आँख खोलीं। कांता ने उसे गोद से उठा कर खाट पर बैठा दिया। कांता की भवें तन गई थीं।
"बोलो बबलू ए फार?
"..."
"देख रही हो इसकी ढिठाई," कांता ने छनिया की तरफ़ देखते हुए कहा, "कितना ढीठ हो गया है यह, मैं बकता जा रहा हूँ, इस पर कोई असर ही नहीं हो रहा है, धूइंस की तरह बैठा है।"
"उसे नींद आ रही होगी, फिर कभी पूछ लेना।"
"बोल बबलू। बोल। ए फार?" कांता पूछता रहा, "बोल बेटा, मेरा बबलू अब बताएगा।" उसने बबलू का कंधा पकड़ कर और तेज़ी से झकझोरा, "बोल बे, बोलता क्यों नहीं? ए फार?"

बबलू कांता की कड़क आवाज़ सुन कर बुरी तरह डर गया। खाट पर लुढ़क कर आँखें बंद कर लीं उसने। कांता का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। बित्ते भर का है साला, जब अभी नहीं सुन रहा है, तो बड़ा होकर क्या करेगा? मैं बके जा रहा हूँ और यह धाउरधप्प की तरह आँखें मूँदे हैं। जानबूझ कर नाटक किए है। नाटकबाज़ है साला। ज़्यादा प्यार करने से भी बाढ़ पर हो जाता है बच्चों का मन। बिगड़ जाते हैं साले। ठेंगा दिखाने लगते हैं माँ-बाप को। गुस्से में आपा खो बैठा कांता। उसने एक झापड़ दे मारा बबलू के गाल पर, "साला, मैं बेवकूफ़ों की तरह बके जा रहा हूँ और तू सोने का नाटक कर रहा है?" बबलू चीखा, "पापा...।"
"बोल! ए फार? ब़ोलता है कि नहीं, आंय।" दूसरा झापड़ लगा बबलू को। वह छटपटा उठा।
"बोल...।" तीसरा झापड़ लगा।
"नई पापा, नई पापा...।" फिर एक झापड़,
"बोल बे, आज तुझे बोलवा कर रहूँगा। देखता हूँ कि तुम्हारी ढिठाई रहती है, या मेरी ज़िद।" एक झापड़ फिर लगाया कांता ने बबलू को।
"मम्मी...म़म्मी।"
"मार डालेगा क्या मेरे बेटे को? कसाई हो गया है क्या?" छनिया के बर्दाश्त से बाहर हो गया तो ज़ोर से चीखी वह।
"चुप रह तू, इसे नहीं देख रही है कि किस तरह अडिया गया है यह? बोल बे, आज मैं...।" एक झापड़ फिर पड़ा बबलू के गाल पर।
"खबरदार अब जो हाथ उठाया मेरे बेटे पर," कहती हुई छनिया आ गई खाट के पास, भाड़ में जाय तुम्हारी पढ़ाई। साहेब नहीं बनना मेरे बेटे को।"

बबलू की चीख बंद हो गई थी। छनिया ने उसे गोद में उठाया तो उसका सिर झूल गया। आँखें बंद थीं। छनिया का करेजा धक से कर गया।
"बबलू, बबलू बेटा, आँखें खोल।" छनिया ने झकझोरा बबलू को। वह ज़ोर से चीखी। कांता भी घबड़ा गया। उसने बबलू के सीने पर कान लगाया। कलाइयाँ टोई। वह बबलू को लेकर फौरन डाक्टर के पास गया।

डाक्टर ने बबलू को देखा, फिर बड़बड़ाया, "जब मरीज़ की हालत सीरियस हो जाती है, तब लेकर चलते हैं आप लोग?" डाक्टर ने बबलू को भरती कर लिया। पीलिया के कारण उसका लीवर डैमेज हो गया है।

दो दिनों बाद बाल निकेतन की प्रधानाध्यापिका अपने दो टीचरों के साथ कांता के घर आईं। थोड़ी देर तक मौन रहने के बाद बोली, "बहुत होनहार था राहुल। वेरी जीनियस। अंग्रेज़ी के पूरे अक्षर याद हो गए थे उसे। बीस तक नंबर भी बोल जाता था। हम लोगों को बहुत दुख हुआ यह सुनकर कि राहुल अब इस दुनिया में नहीं रहा।

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16 नवंबर 2006

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