बैंक का कर्ज़ चुकता होने के क़रीब पहुँच चुका था। कांता बैंक का कर्ज़ भरता कि
पैसे जोड़ता। बस, गृहस्थी की गाड़ी किसी तरह खींचती जा रही थी। इसी में उसे
हीत-नात, नेवता-हकारी, रिनिया-महाजन, तीज-त्योहार, लुग्गा-कपड़ा, आवा-गवा यह सब भी
तो देखना था। पिछले तीज पर धनिया अड़ गई थी कि पाँच सौ से कम की साड़ी नहीं चलेगी।
कांता ने सोचा कि साल में एक बार तो तीज पड़ती है, कौन तकरार करे मेहर से। मिठ्ठन
साब के यहाँ से तीन सौ रुपये उधार करके साढ़े पाँच सौ की साड़ी ला दी। ब्याज जोड़
कर यह बकाया अब दूना हो गया है। बैंक का कर्ज़ चुका कर कांता अब इसी पर लपटेगा।
जिस दिन कांता रात में रिक्शा खींचने लगा था, उस दिन से उसे कुछ बचत होने लगी थी।
दस-बीस रुपये काट-कपट कर डाकखाने में जमा करने लगा था। छनिया भी मुहल्ले के एक सेठ
के यहाँ कपड़ा धोने का काम करने लगी थी। उसे महीने में ढाई सौ रुपये और दोपहर का
खाना मिलता था। छनिया इस पगार में से दो सौ रुपये कांता को देती थी जिसे वह डाकखाने
में डाल देता था। इस बचत से कांता और छनिया दोनों ही उत्साहित थे। अब बबलू
अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ने लगेगा। पढ़-लिखकर साहेब बनेगा और उसकी तकदीर बदल देगा।
बुढ़ापा चैन से कटेगा। मान-मर्यादा बढ़ जाएगी। उनकी तरफ़ आँख उठाने से पहले सौ बार
सोचना पड़ेगा लोगों को। यह भाव मन में आते ही कांता और छनिया का करेजा नौ बित्ते का
हो जाता था।
"कितना जुट गया होगा जी?"
"अभी तो हज़ार भी नहीं हुए।"
"तब कैसे जाएगा बबलू अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ने?"
"तब तक जुटा लेंगे न।"
"सुनो, अब सब्ज़ी और दाल में से कोई एक ही बनाएँगे। सब्ज़ी बनेगी तो दाल नहीं, दाल
बनेगी तो सब्ज़ी नहीं।"
"कभी-कभी दोनों ही नहीं बनाएँगे।"
"तब कैसे खाएँगे?"
"नमक-प्याज़ से।"
"मेरा तो चल जाएगा, पर तुम्हारा कैसे चलेगा? रात-दिन खींचते हो रिक्शा, बिना बोरन
के पेट कैसे भरेगा?"
"पहले बेटे की देखें कि अपनी देखें।"
"हाँ, हमें जो होना था, हो लिए। अब तो बेटे की ही फ़िकर करनी है।"
कांता की आँखों में न जाने कहाँ की चमक आ गई थी। सुबह आठ बजे रुखी-सूखी खाकर रिक्शे
के साथ निकल जाता, शाम ढले आता। फिर रात में आठ बजे या इससे भी पहले निकल जाता तो
पौ फटने के बाद आता और निढाल होकर पड़ जाता। दिन में रिक्शा चलाने के लिए समय से
तैयार हो जाता। रात-दिन की खटकी, मुश्किल से तीन-चार घंटे की नींद और रुखा-सूखा
भोजन भी कांता की जिस्मानी ताक़त को कम नहीं कर पाया था। ग़ज़ब की स्फूर्ति थी उसकी
देह में, लेकिन चेहरे की उभरती जा रही हडि्डयाँ तो उसकी शक्तिक्षीणता की असल कहानी
कह ही रही थीं, किंतु इस ओर से बिलकुल बेपरवाह था कांता। उसके भीतर की ऊर्जा उफान
पर थी, उत्साह कुलाँचे मार रहा था और भविष्य की आशाएँ हिलोरें मार रही थीं। एक दिन
कांता ऐन चौराहे रिक्शा खड़ा कर सवारियों से पैसा ले रहा था, तभी एक पुलिस वाले ने
उसकी पीठ पर डंडा चला दिया 'यह रिक्शा खड़ा करने की जगह है, फूट जल्दी।' कांता
गुस्से से तमतमा उठा था। पुलिस वाले की तरफ़ घूर कर देखा, फिर रिक्शा आगे बढ़ाते
हुए बड़बड़ाया, बड़ा होने दो मेरे बेटे को साहेब ससुरों, तुम लोगों की वर्दी-पेटी न
उतरवा ली तो मेरा नाम कांता नहीं। चुन-चुन एक-एक से बदला लूँगा। पता नहीं क्या
समझते हैं अपने आपको साले। जब देखो, डंडा चला देते हैं। रिक्शा चलाता हूँ, कोई चोरी
तो नहीं करता। फ़रेब तो नहीं करता। डकैती तो नहीं डालता। मोटर वाले चाहे जहाँ खड़ा
हो लें, पर हम रिक्शा वाले रुकते ही खा जाते हैं पुलिस का डंडा। बनने दो बेटे को
साहेब।"
"सुनो जी, बबलू अकेला ही रहेगा क्या? बबलू को चौथा साल लगने में बस तीन महीने रह गए
हैं। अभी एक-डेढ़ हज़ार की कमी रह गई है। मैं सोचती हूँ, अब ठंड ज़्यादा पड़ने लगी
है। तुम एक महीना रात में गाड़ी चलाना बंद कर दो। बबलू चौथे में स्कूल नहीं जाएगा
तो पाँचवे में जाएगा।"
"हमारा बबलू तो चौथे में ही जाएगा स्कूल। ऐसा करता हूँ कि..."
"भोर में आकर तुम मुर्दा हो जाते हो। मैं भी थका जान कर कुछ नहीं बोलती सोचती हूँ
कि..."
"इसीलिए तो कहता हूँ कि अब रात में बारह बजे ही आ जाया करूँगा।"
"मैं सोचती हूँ, तुम्हें ठंड लग गई तो...।"
"ठंड तो बारह बजे रात के बाद ही लगती है। उस समय तो तुम्हारे पास रहूँगा।"
"हाँ, एक ही कथरी में।"
कांता जब शहर से होकर गुज़रता तो उसकी निगाहें अंग्रेज़ी स्कूलों पर ठहर जातीं।
सेंट जाँस, सेंट मेरी, सेंट जोसेफ, पब्लिक किंडर गार्टेन, माँटेसरी इंग्लिश मीडियम
स्कूल, ना जाने कौन-कौन से स्कूल। लाल, नीले, आसमानी, न जाने कितने रंगों में खिले
फूल। इन्हीं फूलों में एक फूल उसका भी होगा बबलू। वह अपने बबलू का नाम उसी स्कूल
में लिखाएगा, जिसमें लाल रंग के फूल खिले होंगे। लाल गुलाब के फूल। उसका बबलू
पढ़ेगा - ए फार एपल गिनेगा - वन टू थ्री। और बनेगा एक दिन फर्राटेदार अंग्रेज़ी
बोलने वाला साहेब। कल्पना की ऐसी ही दुनिया में खोए, अपनी धुन में मस्त कांता का
रिक्शा एक दिन एक साइकिल से जा टकराया। साइकिल वाले ने आव देखा न ताव, तीन-चार हाथ
जड़ दिया कांता को। जिस्म पर घूँसे पड़ते ही कांता अपनी वास्तविक दुनिया में भहरा
गया। आँखें निकाल कर कुछ पल घूर साइकिल वाले को फिर रिक्शे की पायडिल दबा दी। अपने
आप से बतियाने लगा - बनने दो अपने बबलू को साहेब, तुम जैसे चमरगिद्धों को देख
लूँगा। नयी साइकिल कसा ली तो लाट साहब हो गए। हमारा बबलू जब कार में बैठ कर सड़क पर
निकलेगा तो तुम जैसे पिद्दी इधर-उधर दुबक जाएँगे। खुद रास्ता छोड़ देंगे उसका। तुम
साइकिल वालों की क्या औकात, स्कूटर वाले, मोटर साइकिल वाले भी पटरी पकड़ लेंगे। तब
मैं रिक्शा ही चलाता रहूँगा? नहीं। बिलकुल नहीं। बबलू की कार में बैठकर निकला
करूँगा सड़क पर। रिक्शा साले को बेच दूँगा कबाड़ में, बेच दूँगा, हाँ बेच दूँगा।"
"इधर बीच डाकखाने गए थे?"
"नहीं, तुम्हारी पगार मिलेगी, तब जाऊँगा।" फागुन में बबलू तीन साल का हो जाएगा।"
"फागुन में ही हुआ था क्या?"
"तुम्हें याद नहीं? फागुन की एकादसी को भोर में जनम हुआ था उसका।"
"हाँ, याद आ गया, खेमई बो ने नार काटा था। छ: दिन सौरी में रही थीं।"
"बहुत अच्छी थीं, उनकी पतोहू खर मिजाज़ की है।"
"वह नार कहाँ काटती है?"
"उसके घर वालों ने मना कर रखा है उसे।"
"अगले बच्चे के समय अस्पताल में चलेंगे।"
"हाँ, अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की घरवालियाँ अस्पताल में ही बच्चे
पैदा करती हैं।"
"चइत-बइसाख तक बबलू का नाम लिखा जाएगा न अंग्रेज़ी स्कूल में?"
"हाँ, असाढ़ तक तो लिखा ही जाएगा।"
"तब तक उसके लिए पैसा जुट जाएगा?"
"हाँ, जुट जाएगा।"
जुलाई का महीना था। झमाझम बरसात हो रही थी। कांता अपना रिक्शा एक छतनार पेड़ के
नीचे खड़ा कर उसकी छतरी में बबलू के साथ बैठा था। छनिया ने बबलू को मल-मल कर नहलाया
था - सिक्का साबुन से। सिर में सरसों का तेल चुपड़ दिया था जो बबलू के गालों तक सरक
आया था। बबलू के जिस्म पर सारा लिबास नया था। पैंट, शर्ट, मोज़े, जूते - सबके सब नए।
दर्ज़ी ने कपड़े जान बूझ कर झोझर सिल दिए थे ताकि बबलू कम से कम पाँच साल की उम्र तक
उन्हें पहन सके। छनिया ने बबलू के माथे पर बायीं तरफ़ काजल का टीका लगा दिया था -
कहीं नज़र न लगे बेटे को। आज बेटा स्कूल जा रहा है। खुशी से भर उठी थी छनिया।
दाखिला हो जाएगा तो कथा सुनेगी। कांता ने घर से चलते पुकारा था -"आज खूब
अच्छा-अच्छा खाना बना कर रखना रे छनिया, नाम लिखा कर आएँगे तो छक कर खाएँगे।" कांता
क्या मुँह लेकर जाएगा घर? सेंट जाँस के प्रिसिंपल ने फारम देने से मना कर दिया,
बोला कि बबलू उसके स्कूल में पढ़ने योग्य नहीं है। उसने कैट का माने पूछ दिया। कप
की स्पेलिंग पूछ दी। क्या जवाब देता बबलू? चुप रह गया। तीन साल का बबलू क्या जवाब
देता? कोई पेट से सीख कर तो आया नहीं था जो सब प्रश्नों के उत्तर धड़ाधड़ दे देता।
नाम नहीं लिखना था तो साफ़ मना कर देते, बहाना क्यों बनाया? पहले नाम लिखते,
पढ़ाते-लिखाते, तब देखते हमारे बबलू का कमाल। जो पूछते, वह बताता। घर पर तो टपर-टपर
बोलता है बबलू। अब अनचिन्हार के आगे चुप नहीं रहेगा तो क्या करेगा? घर और बाहर में
अंतर तो है ही। बबलू का नाम पूछ दिया, मेरा नाम पूछ दिया, अभी उसका नाम ही कहाँ रखा
गया है जो बताता? मेरा नाम पूछने का क्या मतलब? तीन साल का छोटा माँ-बाप का नाम
कैसे जानेगा? उसे माँ-बाप के नाम से क्या लेना देना? क्यों रटाता मैं उसे अपना और
छनिया का नाम? उल्लुए हैं अंग्रेज़ी स्कूल वाले सब। पता नहीं क्या समझते हैं अपने
आपको। टुकुरखोर कहीं के।
बरसात मद्धिम पड़ गई थी। कांता ने छतरी से हाथ बाहर निकाल कर जायज़ा लिया कि घर
पहुँचते-पहुँचते भीगा जा सकता है या नहीं। दरअसल उसकी इच्छा घर जाने की नहीं हो रही
थी। उसका बस चलता तो पूरा दिन यहीं गुज़ार देता, लेकिन छनिया खाना बनाकर इंतज़ार कर
रही हो - त्यौहार जैसा खाना। फिर बबलू भी तो घर चलने की ज़िद करने लगा था। भीतर से
मायूस और हतोत्साहित कांता ने अपने रिक्शे को रफ़्तार पकड़ा दी। जब वह घर पहुँचा तो
हल्की बूँदाबाँदी में सराबोर हो चुका था।
छनिया बेसब्री से कांता और बबलू का इंतज़ार कर रही थी। रिक्शा जैसे ही घर के बाहर
आकर रुका, छनिया के भीतर घंटों से दबी जिज्ञासा उछल पड़ी और वह लगभग दौड़ती हुई
रिक्शे के पास आई। बबलू को गोद में उठाते हुए कांता की ओर देख कर पूछा, "बबलू का
नाम लिखा गया न जी?" कांता बिना कुछ बोले घर के अंदर चला गया। पीछे-पीछे छनिया भी
थी।
"बोल काहे नहीं रहे हो, नाम लिखा गया न?" छनिया की ओर देखने का साहस नहीं बटोर पाया
कांता। नज़रें झुकाए हुए ही कहा उसने, "पहले ये भीगे कपड़े तो उतारने दो।" कांता की
बात का मर्म समझते देर नहीं लगी छनिया को। वह खाना ग़रम करने में जुट गई।
पूड़ी आलू-प्याज़ का झोल, हरी मिर्च और हरे लहसुन की चटनी - यही था आज का विशेष
भोजन। छनिया ने सब्ज़ी खौलाई, फिर डालडा भरी कड़ाही चढ़ाई। जमा हुआ डालडा पिघलने
लगा। छनिया ने कनखियों से कांता की ओर देखा। वह अपने और बबलू के कपड़े बदल चुका था।
छनिया ने खाने के लिए कांता को बुलाया। कांता आकर चूल्हे के पास बैठ गया। उसकी गोद
में बबलू भी था। छनिया पूड़ी ग़रम करके कांता की थाली में डालने लगी।
"यह खाना हलक के नीचे नहीं उतर रहा है रे छनिया।"
"तुम अपना मन इतना छोटा काहे को करते हो? वही एक स्कूल तो है नहीं, और बहुत से
स्कूल हैं, किसी न किसी स्कूल में तो पढ़ेगा ही बबलू।"
"बड़े अंग्रेज़ी स्कूलों में बड़े लोगों के लड़के पढ़ते हैं। अफ़सरों के लड़के
पढ़ते हैं। हम रिक्शेवालों के लड़के नहीं पढ़ सकते उस में। सेंट जाँस के प्रिंसिपल
आदमी पहचानते हैं। आदमी की हैसियत परखते हैं। ऊँची हैसियत वालों को आदर देते हैं,
सम्मान देते हैं, कुर्सी देते हैं, मामूली हैसियत वालों को खड़ा रखते हैं। नाम नहीं
लिखना था तो पूछ दिया- कैट माने बताओ, कप की स्पेलिंग बताओ, अपना नाम बताओ, पिता का
नाम बताओ, बबलू पेट में से सीख कर थोड़े ही आया है। पहले नाम लिखते, फिर
पढ़ाते-लिखाते, समझाते, तब इम्तहान लेते। उन्होंने तो मेरी सकल देखी, फिर मन बना
लिए कि मेरे बेटे का नाम नहीं लिखना है। बड़े लोग आए, कुर्सी पर बैठे, नाम लिखाने
वाला फारम ले कर चले गए। हम जैसे लोग...।"
"सुनो, अपना जी हल्का न करो। आराम से खाना खाओ। केवल वही एक स्कूल तो है नहीं। अपने
मुहल्ले में ही चार-पाँच अंग्रेज़ी स्कूल हैं। कोई तो लिखेगा ही बबलू का नाम।
सुरखाब का पर तो लगा नहीं है उस स्कूल में।"
"तुम क्या जानो कि वह स्कूल कैसा है। उसमें सुरखाब के पर ही लगे हैं। ऐसे बच्चे
पढ़ते हैं उस स्कूल में कि छूलो तो भल्ल-भल्ल खून निकल आए। सब बड़े-बड़े लोगों के
बच्चे हैं। उनके बीच हमारा बबलू पढ़ता, बड़ा होता तो कुछ और बात होती। तब वह ज़रूर
साहेब बन जाता।"
"सुनो, तुम कहो तो बबलू को एक मास्टर लगा दें। एक-दो महीने पढ़ा देगा तो बबलू का
दाखिला लायक हो जाएगा।"
"मेरे यहाँ कौन मास्टर आएगा पढ़ाने? कहाँ बैठेगा? कहाँ पढ़ाएगा?"
"महाराजिन के पोते को पढ़ाने एक टीचर जी आते हैं। उनसे बात कर लेती हूँ, फिर बबलू
को वहीं छोड़ आया करूँगी। पढ़ लेगा तो जाकर ले आऊँगी।"
"कितना लेगा?"
"महाराजिन चार सौ देती हैं, मैं कुछ कम करा लूँगी।"
"ठीक है, बात कर ले।"
बबलू लगभग दो महीने टयूशन पढ़ा। उसे अपना नाम, पिता का नाम, मुहल्ले का नाम, जिले
का नाम रटाया गया। अंग्रेज़ी के अक्षर सिखाए गए। 'ए' फार एपल, 'बी' फार बाल, 'सी'
फार कैट...। दस तक अंग्रेज़ी की गिनती बोलना सीख गया। वन, टू, थ्री, फोर...। कांता
आश्वस्त था कि अब सेंट जाँस में बबलू का दाखिला हो जाएगा। आखिर तीन साल के बच्चे से
इससे ज़्यादा की उम्मीद क्या की जा सकती है? जुलाई में स्कूल खुलते ही वह बबलू को
लेकर एक बार फिर सेंट जाँस स्कूल गया। प्रिंसिपल ने उसे एक दक्षिण भारतीय अध्यापिका
के पास भेज दिया। नर्सरी कक्षाओं में प्रवेश का कार्य वही देख रही थी। नाम था मिसेज
जया चार्ली। थोड़ी देर की प्रतीक्षा के बाद बबलू के साक्षात्कार का नंबर आया। कांता
उसे लेकर मिसेज चार्ली के कक्ष में दाखिल हुआ। मिसेज चार्ली ने बबलू को पुचकार कर
पास बुलाया। प्यार से उसके गाल थपथपाए। फिर उसे दाहिने हाथ से अंकवारने लगीं तो
बबलू के सिर का तेल उनके हाथ में चुपड़ गया। अपना हाथ खींचते हुए बोली, "चाइल्ड के
हेड पर बहुत आयल रख दिया मैन।" उन्होंने कुर्सी पर रखे तौलिये से अपना हाथ साफ़
किया। मिसेज चार्ली के स्पर्श से सिकुड़ कर बबलू एकदम मिट्टी का लोंदा हो गया था,
लेकिन कांता को मिसेज चार्ली ममता की प्रतिमूर्ति लग रही थी। बेटे के सिर का तेल
उनके हाथ में लग गया तो ज़रा भी बुरा नहीं माना।
"तुम्हारा क्या नाम है बेटे?"
"बोलो, तुम्हारा नाम क्या है? डरो मत बताओ, हाँ, हाँ, बताओ, डरो मत। क्या है
तुम्हारा नाम?"
"बता दो बेटा, अपना नाम तो बता दो आँटी को, बता दो राहुल बोलो राहुल राहुल बोलो।"
कांता ने बबलू को काफ़ी प्रोत्साहित किया। लेकिन बबलू इस नए परिवेश और सामने बैठी
महिला के अजनबीपन के बोझ से एकदम जड़ हो गया था। वह सिर नीचे किए, नज़रें ज़मीन में
गढ़ाए मूर्तिवत खड़ा रहा। कांता ने उसे एक-दो बार और कुरेदा, लेकिन बबलू था कि एक
चुप हज़ार-चुप। वह भीतर से इतना डरा हुआ था कि एक शब्द भी उसके मुँह से नहीं फूट
रहा था। उसकी 'ढिठाई' से कांता बुरी तरह झल्ला उठा। पता नहीं कैसे और कब उसका दायाँ
हाथ उठा और बबलू के गाल पर इस तरह चिपका कि उसकी पाँचों उँगलियों के साट उभर आए।
"साला नहीं तो, धूँइस की तरह खड़ा है। घर पर तो दिन भर पिटिर-पिटिर किए रहता है,
यहाँ आकर नानी मर गई इसकी, मादर...।"
"व्हाट इज़ दिस? व्हाट इज़ दिस मैन? तुम एनिमल है क्या? तू बच्चे को टार्चर किया?
इतना क्रूएल है तू? तूने वाइल्ड पीटा? योर सन इज जस्ट लाइक ए फ्लावर मैन। फूल के
माफ़िक है यह बच्चा। तू इसे पीटता है, टार्चर करता है, मारता है।" मिसेज चार्ली
चीखीं, "यू डर्टी मैन, बेस्टर्ड क़्रूएल त़ुमको हम देखना नहीं माँगता। निकल जा यहाँ
से, यू गेट आउट। अब कभी नहीं आएगा मेरे पास तुम।" मिसेज चार्ली गुस्से से काँपने
लगी थीं। उनकी आग उगलती आँखें देखकर कांता को कंपकपी छूट गई। वह सिसकते हुए बबलू का
हाथ पकड़े कमरे के बाहर हो गया। उसके जाने के बाद तक मिसेज चर्ली बड़बड़ाती रहीं,
"टार्चर करता है बेटे को, शैतान कहीं का। फुलिश एनीमल। मेरे सामने ही टार्चर किया
बेटे को, ऐसा मैन तो देखा नहीं। मूड अपसेट कर दिया।"
मिसेज चार्ली के कमरे से बाहर निकल कर कांता जब बरामदे में आया तो उसका गुस्सा
काफूर हो गया था। उसने बबलू को गोद में उठा लिया। उसका बायाँ गाल निहारा। अपनी
उँगलियों के साट देख कर उसकी आँखें छलछला गईं। बबलू का रोना तो थम गया था लेकिन
सिसकियाँ जारी थीं। कांता ने उसे दुलराया, पुचकारा, सहलाया, चूमा। "चुप हो जा बेटे,
बबलू चुप हो जा, मेरे लाल, नाहक ही मार दिया मैंने तुझे। तुम्हीं ने मुझे गुस्सा
दिलाया न। घर में तो इतना बोलते हो, बाहर क्या हो जाता है तुम्हें? क्यों चुप लगा
जाते हो? कितना कहा कि बोलो बबलू, बोलो बबलू पर तुम सदा गए तो सदाए ही रहे। तो मुझे
गुस्सा नहीं आएगा? तुम्हीं ने न गुस्सा दिलाया मुझे। मैंने तुम्हें मारा न होता तो
शायद मेम साहब तुम्हारा नाम लिख लेतीं। तुम सेंट जाँस में पढ़ने लगते, लेकिन मैं
क्या करूँ, क्या करूँ मैं, ज़रा-ज़रा-सी बात पर गुसिया जाता हूँ। अपनी आदत से लाचार
मैं क्या करूँ। नाहक ही तुम्हें मार दिया, और वह भी इतनी तेज़ कि...।" बड़बड़ाते
हुए कांता रिक्शे के पास पहुँच गया। पास के जनरल स्टोर से दो टाफियाँ ख़रीदीं। बबलू
को पकड़ा कर उसे रिक्शे पर बैठाया और चल दिया घर की ओर।
कांता जब घर पहुँचा तो दरवाज़ा बंद देखकर भन्ना उठा। घर से सटे छोटे से चबूतरे पर
बैठ कर छनिया की प्रतीक्षा करने लगा। भूख के मारे बुरा हाल था उसका। छनिया के आने
में जितनी देर हो रही थी, कांता का पारा उतना ही चढ़ता जा रहा था। उसकी नज़रें जहाँ
तक पहुँच सकती थीं, पहुँचकर थिर हो गई थीं। लगभग एक घंटे बाद छनिया आती हुई दिखी।
उसके पाँवों में चपलता नहीं थी। मदमस्त हथिनी की तरह कदम रख रही थी वह। उसकी मंथर
गति से साफ़ लग रहा था कि उसे घर पहुँचने की जल्दी नहीं थी। बबलू और कांता की चिंता
से बिलकुल मुक्त थी वह। बस यही कांता के शरीर का ताप बढ़ाए जा रहा था।
छनिया समीप आई। उसने मुसकुराते हुए बबलू को गोद में उठाया और चूमा। फिर दरवाज़े पर
लगा ताला खोल कर कमरे में दाखिल हुई। बबलू को खाट पर बैठा कर दाल गरमाने के लिए
चूल्हा सुलगाया। फिर कांता को आवाज़ लगाई, "अंदर आओगे या बाहर ही बैठे रहोगे।"
कांता उठा, भारी कदमों से कमरे में घुसा और निर्विकार भाव से बबलू के पास बैठ गया।
"यदि उस स्कूल में बबलू का नाम नहीं लिखाया तो इसमें इतना दुखी होने की कौन-सी बात
है। बबलू वहाँ नहीं पढ़ेगा तो तरेगा नहीं क्या? बहुत जनों के बेटे-बेटियों आम
स्कूलों में पढ़ते हैं। आख़िर वे भी तो आदमी ही हैं न। पैसे वाले हैं, बाकी उनके
बच्चे नहीं पढ़ते सेंट जाँस में। मुहल्ले के अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ते हैं। बबलू
भी मुहल्ले के अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ेगा। दुखी होने की कोई ज़रूरत नहीं है
तुम्हें।" लकड़ी में आग पकड़ गई थी। छनिया ने दाल की बटलोई चूल्हे पर चढ़ा दी।
लेकिन छनिया की बातें कांता के घावों पर मरहम नहीं लगा रही थीं, उस पर नमक छिड़क
रही थीं। उसके जी में आया कि सारा गुबार निकाल दे, "मैं बबलू का नाम न लिखे जाने से
दुखी नहीं हूँ छनिया, तुमसे दुखी हूँ। जब कुटेम को आता हूँ तो तू नहीं मिलती।
दरवाज़े में ताला लटकता रहता है।" 'कहाँ जाती है तू? किस मरद के साथ गुलछर्रे
उड़ाती है? पराए मरद के साथ सोने का चस्का कब से लगा है तुझे? मैं क्या नामर्द हो
गया हूँ? तू पैसे के लिए सोती है दूसरों के साथ? शरीर का सौदा करती है या किसी से
सट गई है? मुझे सच-सच बता दे आज। अब नहीं चलेगा यह सब। जो जी में आए कर मेरा साथ
छोड़ दे। छोड़ दे मेरा साथ। जा, किसी के साथ बैठ जा, या कोठे पर।' लेकिन उबाल ले
रही अपनी भावनाओं पर काबू किए रहा। जब तक कोई सबूत न मिले, छनिया पर इस तरह लांछन
लगाना ठीक नहीं। मन ही मन कहा उसने।
"नीचे आओगे या खाट पर ही ले आऊँ?" छनिया ने थाली में खाना परोसने के बाद पूछा।
कांता खाट से उतर कर ज़मीन पर बैठ गया।
"हटो, बोरा बिछा दूँ।" कांता एक तरफ़ सरक गया। छनिया ने बोरा बिछाया, फिर कांता ने
उसी पर पलथी मार ली। छनिया ने खाने की थाली कांता के आगे सरका दी, दाल, रोटियाँ,
प्याज़ के कुछ टुकड़े।
"मैं आज बाल विद्या निकेतन गई थी। अभी वहीं से आई हूँ। बहुत अच्छा स्कूल है। थोड़े
से बच्चे हैं। महाराजिन कहती है कि जिस स्कूल में थोड़े बच्चे हों, उसी में अपने
बच्चे को डालना चाहिए। टीचर एक-एक बच्चे पर ध्यान देते हैं। इस स्कूल में अंग्रेज़ी
भी पढ़ाते हैं, हिंदी भी। अंग्रेज़ी में न चले बच्चा तो हिंदी में डाल दो। यह
फ़ायदा तो है ही। बबलू का नाम इसी स्कूल में लिखा दो। बिना कुछ पूछे लिख लेंगी मेम
साहब। वह तो आज ही दे रही थीं फारम, पर मैं पैसा ही नहीं लेकर गई थी। कह दिया कल ले
लेंगे फारम। स्कूल तो बहाना होता है, जो भाग लेके आया होगा, वही न बनेगा बबलू। मेरी
बहिन का लड़का मुनिसपालिटी के स्कूल में पढ़ के निकला, अब बहुत आगे हो गया है।
सरकारी नौकरी पा गया है। इधर-उधर मत दौड़ो, इसी में आँख मूँद कर नाम लिखा दो। पड़ोस
में है, जाने-आने का झंझट भी नहीं।"
छनिया की बातें कांता के दग्ध जिस्म पर झरने की बर्फ़ जैसे जल की तरह बरस रही थीं।
वह धीरे-धीरे सहज होता गया। उसने अपने आपको धिक्कारा नाहक ही शक कर रहा था छनिया के
चरित्र पर। छि:-छि:। इन बुरे विचारों के लिए ईश्वर उसे कभी माफ़ नहीं करेगा। छनिया
तो सती सावित्री है। मृत्यु के मुँह से खींच सकती है उसे। आखिर बबलू की पढ़ाई की
समस्या से बाहर निकाला ही न उसने। कांता की इच्छा हुई कि वह छनिया को बाहों में भर
ले।
|