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कहानियाँ 

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से बच्चन सिंह की कहानी- बबलू


"सुनो जी, अपने बबलू को तो तीसरा साल लग गया है न?"
"हाँ तीसरा तो शुरू ही हो गया।"
"पड़ोस की महाराजिन हैं न, उन्होंने तीसरा साल पार करते ही अपने पोते का नाम अंग्रेज़ी स्कूल में लिखवा दिया।"
"अपने बबलुआ भी तीन का हो जाएगा तो अंग्रेज़ी स्कूल में दाखिल करा देंगे।"
"तो अभी से पैसा जोड़ना शुरू करेंगे तब न?"
"हाँ, वह तो करना ही पड़ेगा।"
"लेकिन कैसे करेंगे, अभी जो कमाई होती है उसमें पूरा ही नहीं पड़ता।"
"काहे को फ़िकर करती है, रात को भी निकालेंगे गाड़ी।"
"हाँ, तब तो जोड़ लेंगे कुछ, पर तुम्हारी देह?"
"मेरी फ़िकर छोड़, बेटे की फ़िकर कर। उसे अफ़सर बनाना है तो हाड़ गलाना ही होगा।"
"हाँ, अपनी देह की फ़िकर करेंगे तो बेटा कैसे बनेगा बड़ा आदमी।"
"तू भी कुछ और घर पकड़ ले, सुबह-शाम के धंधे से काम नहीं चलेगा।"
"हाँ, दोपहर में खाली रहती हूँ, कपड़ा धोने का काम कर सकती हूँ। महाराजिन ने एक बार कहा था तो मना कर दिया था। अब उनसे कहूँगी।"
कांता के पास अपना रिक्शा था। बड़ौदा बैंक से कर्ज़ लेकर उसने ख़रीदा था रिक्शा। दिन में रिक्शा खींचता, रात में आराम करता।

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