ख़बर सुनकर मुझे लगा, मानो प्राण कंपा देनेवाली गर्जना के
बीच बादलों को चीरती हुई बिजली मेरे छोटे से घरौंदे पर फट
पड़ी हो। तेज चमक से चौंधियाई हुई आंखों के सामने एक-एक चीज़
झुलसकर निःशेष होती गई प्रोफ़ेसर सरकार के नुसख़े एक्स-रे
पप्पू की साइकिल सुधा का उपहार सब।
सुरक्षा दल के पहरे के बीच रसीदी टिकट पर थूक लगाते हुए
मैंने महसूस किया जैसे मैं मेहनत की कमाई खानेवाला मज़दूर
नहीं ख़ैरात के लिए टूट पड़ने वाला भिखारी हूँ।
शाम को घर पहुँचकर देखा- निशा, वीनू और पप्पू निश्चित
कार्यक्रम के अनुसार मेरी प्रतीक्षा में बैठे थे। मैंने
उन्हें देखकर मुसकुराने का यत्न किया, पर इस अभ्यास में
जबड़े की माँसपेशियाँ दर्द करने लगीं। निशा रूट तैयार कर रही
थी - पहले लाल-इमली रिटेल शॉप, फिर मालरोड पर बेबी-कॉर्नर और
खादी-प्रदर्शनी, 'नीरा' में मसाला दोसा ए़ंड बैक टू पैवेलियन-
"क्यों भइया, ठीक रहेगा न," कहकर निशा ने स्वीकृति के लिए
मेरी ओर ताका। मैंने मन में उठते ज्वार को संभालने का यत्न
किया। सुधा रसोईघर में थी। "देखें, तुम्हारी भाभी क्या कर
रही हैं," कहकर चुपचाप कमरे के बाहर निकल आया।
हम सब पैदल बाज़ार की ओर चल पड़े। जो भी ख़रीदा गया, उसे
मैंने तटस्थ भाव से सहन किया। सुधा ने मेरे लिए शर्ट-पीस
पसंद करके मुझे दिखाया। मैंने इनकार में सिर हिलाते हुए कहा,
"अभी रहने दो इसे। हमारी कोऑपरेटिव में 'सेल' शुरू होनेवाली
है। ख़ामख़्वाह पैसा लुटाने से क्या फ़ायदा?" कपड़ों को
छोड़कर ऊन के काउंटर की ओर बढ़ते समय सुधा के चेहरे पर कई
रंग आए-गए।
ख़रीदारों के सैलाब से बच्चों को खींचते हुए मैं और सुधा
बाज़ार से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे। सुधा अचानक एक
दूकान के सामने ठिठककर खड़ी हो गई। समीप आकर धीरे से बोली,
"आपके पास कुछ रुपए हों तो दीजिए। एक ज़रूरी चीज़ लेनी है।"
मैंने इस ख़ास मौके के लिए कुछ रुपए रख छोड़े थे। सुधा को
तीस देने के बाद मेरे पास जितने रुपए बच रहे थे, उससे मिठाई,
पटाखे-फुलझड़ियाँ और पूजा का सामान ख़रीदा जा सकता था। हो
सकता है, सुधा के पास भी कुछ गुप्त धन हो। इतने मज़बूत आधार
पर रोशनी के त्योहार की इमारत खड़ी की जा सकती है, मैंने
कुशल गृहस्थ की तरह सोचा।
सुधा और बच्चे बाज़ार से निकल आए थे। सबकी आंखें चमक रही
थीं। निशा और वीना के हाथों में ऊन का पैकेट और पप्पू की गोद
में सवार संदीप के हाथों में गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियाँ थीं।
सुधा एक हाथ में लाल रंग का छोटा-सा डिब्बा और दूसरे में
गुड़िया की अंगुली थामे तेज़-तेज़ चल रही थी। निशा और वीना
से बातें करती हुई वह रह-रहकर मुस्करा उठती थी। उसकी मुस्कान
में बेफिक्री और तृप्ति खनक रही थी। उसके चेहरे पर इतनी
कांति मुझे एक अरसे के बाद देखने को मिली थी। उसकी आंखों के
दीये जल उठे थे। विश्वास नहीं हो रहा था कि मेरी बगल में
चलती हुई सुधा वही है जिसका थका-बीमार चेहरा देख-देखकर मैं
अपने बौनेपन के एहसास को जाने कब से झेलता चला आ रहा था और
अभी दो दिन पहले आत्मभर्त्सना की कीलों से छिदता रहा था।
घर लौटते-लौटते शाम गहरा चुकी थी। अंधेरा घिरने लगा था।
संदीप और गुड़िया दूध पीकर ऊँघने लगे थे। सुधा उन्हें सुलाने
के लिए बिस्तर ठीक कर रही थी। निशा और वीना ऊन की लच्छियाँ
निकालकर रंग मिलाने लगीं। मैं सीढ़ियाँ चढ़कर चुपचाप ऊपर चला
आया और छत की मुँडेर पर बैठकर विकल्पों की अंधी गलियों में
रास्ता तलाश करने लगा। सुधा का परिवर्तित रूप मेरे लिए अभी
तक रहस्यमय बना हुआ था।
मेरी दृष्टि अनायास ही क्षितिज पर टिक गई। धरती की स्थूल
रूपाकृतियाँ आकाश की कालिमा को अपना अस्तित्व सौंपने लगी
थीं। अंधेरा गाढ़ा होने के साथ-साथ चारों तरफ़ से त्योहारों
की आहटें सुनाई देने लगी थीं। दीवाली का उल्लास हफ़्तों पहले
पटाखों के धमाकों और फुलझड़ियों की सफ़ेद चमक में प्रकट होने
लगा था। आकाश में इंद्रधनुषी प्रकाश की जगमगाहट क्षणांश के
लिए टँग जाती, फिर अंधकार द्वारा गटक ली जाती। मेरे सिर पर
तने आकाश पर सप्तर्षि-मंडल का प्रश्नवाचक दिप-दिप करके जल
रहा था।
तभी सुधा की आहट सुनाई दी। वह सीढ़ियों से बाहर निकलकर
खामोशी से मेरी बगल में आकर खड़ी हो गई। अंधेरे-उजाले की
आँखमिचौली पल भर के लिए थम-सी गई। सुधा ने बड़ी आत्मीयता से
मेरी ओर देखकर कहा, "अरे, यहां अंधेरे में बैठे-बैठे क्या कर
रहे हैं? शाम को भी उखड़े-उखड़े नज़र आ रहे थे। यह आपको
अचानक क्या हो जाता है?" फिर, जैसे उसे मेरे जवाब की ज़रूरत
न हो, हाथ बढ़ाकर लाल रंग का डिब्बा मेरे आगे करती हुई बोली,
"ज़रा इसे खोलकर तो देखिए। बाज़ार में एक चीज़ पसंद आ गई
थी।" सुधा के स्निग्ध स्वर का जादुईपन मेरे लिए सर्वथा
अपरिचित था।
क्षण भर के लिए मेरी समझ में कुछ नहीं आता। मन को विचारों के
भंवर से छुड़ाते हुए मैंने सुधा के हाथ से वह डिब्बा ले
लिया। उसे जल्दी से खोलकर देखा तो देखता ही रह गया। डिब्बे
की मखमली पृष्ठभूमि में सुधा का चिरपोषित स्वप्न अपनी
स्वर्णिम आभा लुटा रहा था। मैं बारी-बारी से कभी डिब्बे की
ओर और कभी सुधा को देखता हुआ उसकी आंखों की भाषा पढ़ने की
कोशिश करने लगा। मेरी जिज्ञासा घनी होती गई "यह मंगलसूत्र
तुमने कब बनवाया? इतना कीमती गहना ख़रीदने के लिए तुम्हारे
पास पैसे कहां से आए?" पूछते समय मुझे अपना ही स्वर अजनबी
लगा।
सुधा ने जवाब नहीं दिया। मेरा प्रश्न शून्य में टँगा रह गया।
मेरी जिज्ञासु आंखें सुधा की ओर घूम गईं। उसने मंगलसूत्र गले
में पहन लिया था और कुछ गुनगुनाते हुए पैंडुलम को बार-बार
हाथ में लेकर देख रही थी। मेरी उपस्थिति का खयाल आते ही वह
पल भर ठिठकी, फिर फिक-से हँसकर बोली, "मेरे पास रुपए कहां से
आए, यही पूछ रहे थे न? आज शाम को आप ही से तो लिए थे, इतनी
जल्दी भूल गए? मैंने तो सोचा भी नहीं था कि तीस रुपए में
इतना सुंदर उपहार ख़रीदा जा सकता है," कहते हुए उसकी आंखों
में मुस्कान का सागर तैर गया। उसने पैंडुलम झुलाते हुए मेरी
आंखों में झाँका, "आप ऐसा ही मंगलसूत्र दिलाने को कह रहे थे,
है न?"
जवाब देने की कोशिश में मैं पसीने-पसीने हो उठा। एकबारगी लगा
कि छत एकदम से बैठ गई है और मैं धँसता जा रहा हूँ। असमर्थता
की अनुभूति पहले से अधिक पीड़ा देने लगी। जी में आया, सुधा
से पूछूँ इन सात वर्षों में ही मेरी सामर्थ्य पर से विश्वास
उठ गया जो नकली ज़ेवर ख़रीदना शुरू कर दिया है? विकल्पों के
सहारे जीने की सज़ा भुगतने की मेरी विवशता किस क्षण तुम्हारी
बन गई? पर सुधा का निर्विकार मुख और निर्द्वंद्व स्मृति
देखकर बोल मेरे गले में ही अटक गए। सारी आवाज़ें
भीतर-ही-भीतर जम गईं। मेरे अस्तित्व में उफान आ रहा था।
भावुकता रिसने को थी। मन में गहरा सूनापन घिर आया।
इसी समय सुधा ने मेरे कंधे पर अपना हाथ रख दिया। कितना कोमल
ओर विश्वस्त था वह स्पर्श! लगा, जैसे किसी ने मेरे अस्तित्व
को अथाह स्नेह से दुलार दिया है। एक विचित्र-सी पुलक से मन
भर उठा। मेरे अंदर जो कुछ तना हुआ था, अचानक ढीला पड़ने लगा। |