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"सूरदास के इस पद के साथ ही आज
का आराधना-कार्यक्रम..." एनाउंसर की घोषणा सुनकर मेरे मन का
पंछी अध्यात्म का आकाश छोड़ सांसारिक झमेलों के जहाज़ पर आ
बैठा और मैं रेडिओ बंद करके फैक्टरी पहुँचने के लिए तैयार होने
लगा।
मुझे सुधा पर झुंझलाहट हो आई। किसी-किसी दिन तो वह छह बजे से
पहले ही नाश्ता रख जाती है, पर आज जबकि बस छूट जाने का ख़तरा
सिर पर मंडरा रहा है, चाय तक के दर्शन नहीं हुए। मौसम-विभाग से
भी कोई उत्साहजनक संकेत नहीं मिला है। मौसम विभाग यानी मेरा
ढाई वर्षीय कुलदीपक, जो और दिनों अपनी मां से आगे-आगे ताली
बजाता हुआ मेरे पास दौड़ आता है, लेकिन आज वह भी सुबह से
पिनपिना रहा है। गनीमत है कि गुड़िया की नींद अभी तक नहीं
खुली, वरना जुगलबंदी की संभावना टाली नहीं जा सकती थी।
मैं बिना कुछ बोले कमरे के बाहर
निकल आया। गैलरी तक पहुँचा ही था कि सुधा हाथ में चाय का
प्याला थामे मेरे पीछे दौड़ आई। मैं उसे लक्ष्य कर कोई कड़ी
बात कहना चाहता था, लेकिन उसकी हालत देख मैंने अपने-आपको रोक
लिया। उसके रक्त-निचुड़े चेहरे पर गड्ढों में धंसी निस्तेज
आंखों ने मुझे भीतर तक हिला दिया। मेरे मन में अभी तक जो कुछ
उफन रहा था, अचानक शांत पड़ गया।
"क्या बात है सुधा, जी अच्छा नहीं है क्या?" मैंने चाय का
प्याला उसके हाथ से लेते हुए पूछा, "कहो तो छुट्टी की अऱ्जी
भिजवा दूँ?"
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