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सुधा मेरी चिंता भाँपकर बीच में ही कह उठी, "नहीं-नहीं आप जाइए। कल रात दवा लेना भूल गई थी, इसलिए सुबह-सुबह ज़रा-सा चक्कर आ गया था। आप जाइए, मुझे कुछ नहीं होगा, "यह कहते हुए सुधा के होठों पर फीकी मुस्कराहट तैर गई।
मैं कुछ देर दुविधा की स्थिति में खड़ा रहकर काम पर चल दिया।

फैक्टरी का वातावरण बदला-बदला-सा लगा। लगातार कड़े अनुशासन से उपजी मनहूसियत नदारद थी। कर्मीगण समूहों में बँटकर बहस कर रहे थे। मैं अपने सेक्शन में पहुँचकर सीट पर बैठा ही था कि सहयोगियों ने घेर लिया। सबसे आगे रॉय बाबू थे, जो हमारे बीच विशेष संवाददाता की हैसियत रखते थे। उन्होंने मुझे लगभग दबोचकर मेरा पंजा तोड़ने का विफल प्रयास करते हुए कहा, "अमर बाबू, मुबारक हो! एक धाँसू ख़बर है, लेकिन पहले मुँह मीठा कराना होगा।"

मैंने रॉय बाबू के चेहरे पर खिली रहस्यमय धूप को भेदने की चेष्टा करते हुए अनुमान लगाया क्या ख़ुशख़बरी हो सकती है? प्रमोशन तो किफ़ायतशारी के नाम पर तीन वर्षों से बंद हैं। आर्थिक खींचातानी के इस दौर में किसी तरह के एरियर की उम्मीद करना रेगिस्तान में झरने की तलाश में भटकने जैसा लगता है। फिर? मैंने थककर हथियार डाल दिए "मिठाई भी खा लेना बाबू मोशाय। पहले बताओ तो, क्या चक्कर है? बोनस-वोनस तो नही।"

"मान गए गुरुदेव! ख़त का मजमूँ भाँपने में तुमको देर नहीं लगती। बोनस इस बार अगस्त में ही मिल रहा है।" रॉय बाबू ने बतौर प्रशंसा के मेरी पीठ पर एक ज़ोरदार धौल जमाते हुए कहा, "जानते हो, कंपनी ने इस साल कितना नफ़ा कमाया है? पूरे चार करोड़, साठ लाख रुपए! इस बार कम-से-कम पंद्रह परसेंट पक्का समझो। सुना है, यूनियन बीस से कम पर राजी नहीं है। देखें, हेडक्वार्टर्स की मीटिंग में क्या तय होता है," कहते हुए रॉय बाबू कमरे से बाहर हो गए। शायद उनकी नासिका ने वातावरण में तैरती कोई नई गंध लपक ली थी।

रॉय की आशावादिता का जादू मेरे मस्तिष्क पर छा गया और मैं आसपास की स्थिति से बेख़बर होकर जोड़-घटाने के खेल में खो गया। अभावों में घिरे रहने पर तरह-तरह के आकर्षण भरमाते हैं। दो बड़े-बड़े पर्वों की वैतरणी बोनस की नाव के सहारे ही पार करनी होती है, फिर भी तली में छेद रह जाने की आशंका हर पल दिमाग घेरे रहती है। एक सुधा की क्या, छोटे भाई-बहनों की आकांक्षाएँ इसी एक टिमटिमाते नक्षत्र पर टिकी रहती हैं। पिछली जुलाई में पप्पू के फर्स्ट ईयर में अच्छे नंबर देखकर मैंने ही उसे मनपसंद चीज़ लेने के लिए उत्साहित किया था। तब उसने डरते-डरते पुरानी साइकिल ला देने को कहा था। सामाजिक अर्थशास्त्र में उसकी पैठ महज़ किताबी नहीं है, यह देखकर मैंने एक साथ गर्व और राहत का अनुभव किया था। निशा और वीना द्वारा भाईदूज के उपहार के रूप में ऊन ख़रीदने के एकमत फ़ैसले की सूचना मुझे पहले ही मिल चुकी थी। शेष रह जाती थी सुधा, जिसने मुझसे मधु-रात्रि में विवाह का उपहार मांगा था और तब मेरे पास देने को सिर्फ़ प्यार था। सुधा ने उस रात्रि मंगलसूत्र बनवा देने के मेरे संकल्प का हर साल नवीनीकरण होते देखा है। शायद इसीलिए वह हर साल दशहरे-दीवाली से कुछ दिन पहले की गहमागहमी के प्रति निर्लिप्त रहकर मेरे संकल्प के फलीभूत होने की प्रतीक्षा करती है। मैंने मन-ही-मन में फ़ैसला किया, इस बार सुधा की लंबी प्रतीक्षा का अंत कर देना है।
मैंने ख़रीदी जानेवाली चीज़ों का हिसाब लगाकर पाया कि सबकी आशाएँ-आकांक्षाएँ हर साल मिलनेवाली अनुग्रह-धनराशि के चौखटे में मुश्किल से फिट हो सकेंगी। काश, रॉय की बात सच निकले। उस हालत में तनख़्वाह से कुछ निकाल कर तमाम छोटे-बड़े अभावों की दरार पाट सकूँगा पर क्या मैं ज़रूरत से ज़्यादा आशावादी तो नहीं बन रहा? सबकी ज़रूरतें पूरी कर सकना क्या इतना आसान है? ज़रूरतों को जितना समेटने की कोशिश करो, वे और फैल जाती हैं। यह आशा-निराशा का क्रम है, सांप-सीढ़ी के खेल जैसा।
ज़रूरतों का ध्यान आते ही सुधा का बीमार चेहरा मेरे सामने घूम गया। यदि परिस्थितियों को झुठलाने की विवशता न हो तो इस वक्त कोई भी ज़रूरत सुधा के इलाज से बड़ी नहीं। आज सुबह जैसा चक्कर आ जाना आए-दिन की बात हो गई है। शादी के साल भर बाद ही सुधा को यह मुसीबत झेलनी पड़ी है। उन दिनों हर शनिवार की शाम विशेषज्ञ की क्लिनिक के चक्कर लगाना नियम बन गया था। मेडिकल कॉलेज के प्रोफ़ेसर सरकार ने सुधा की जांच करने के बाद कहा था, "मिर्गी के प्राथमिक लक्षण हैं, लेकिन बाल-बच्चा होते ही सब ठीक हो जाएगा।" डॉक्टर साहब का कहना सच निकला था और संदीप के होने के बाद चक्कर-घबराहट जैसी कोई बात नहीं हुई थी, लेकिन पिछले तीन महीने से सुधा की हालत लगातार बिगड़ती गई है।

गृहस्थी की बढ़ती ज़िम्मेदारियों के चलते मुझमें नए सिरे से इलाज शुरू करने की ताकत नहीं रही। जिस दिन सुधा को चक्कर आता है, उसके पथराए चेहरे पर जुड़ी आंखों के नीचे काले गड्ढे और गाल की उभरी हुई हड्डियाँ मेरी संवेदना को झिंझोड़ जाती हैं। लापरवाही के लिए स्वयं को कोसता हुआ मैं महत्वपूर्ण निर्णय कर डालता हूँ। ठीक उसी क्षण जेबों के हल्केपन का आभास होता है। कैलेंडर की तारीख़ों पर फिसलती हुई आंखें रिसने के बिंदु पर पहुँच जाती हैं। मुझे वह कुर्सी, तख्त या ज़मीन का वह टुकड़ा जिस पर मैं ऋषियों की भांति आसन जमाए रहता हूँ, अपनी कब्र नज़र आने लगती है; पर चूँकि सबके बीच से एकाएक उठ आने का खयाल बचकाना और ग़ैर-ज़िम्मेदाराना लगता है, मैं धूल झाड़ता हुआ कब्र से बाहर निकल आता हूँ। डॉक्टर का बिल अगले महीने के बजट में शुमार हो जाता है। अगले महीने सांप-सीढ़ी के खेल की नई बिसात बिछ जाती है और मेरी कल्पना महंगी अंग्रेज़ी दवाइयों की निरर्थकता का पड़ाव तय करती हुई ताज़े फलों के ढेर, दूध-भरे गिलास और मलाई की तहों के बीच भटकने लगती है। फल-दूध का कल्प शुरू होता है, पर विकल्पों का अबोध शिशु किसी अभागे क्षण अभावों के दैत्य का ग्रास बन जाता है। त्यौहारों के प्रति सुधा की निर्लिप्तता शायद मेरे बौनेपन की ही उपज है।

इसी धूपछांही मन:स्थिति में दिन कट गया। घर लौटते समय बोनस की बात अपने तक रखने का फ़ैसला कर चुका था, पर सुधा की अतिचेतन और संवेदनशील दृष्टि के सम्मुख यह निरर्थक व्यायाम सिद्ध हुआ। मेरी ओर रहस्यमय ढंग से देखते हुए वह रसोईघर में गई और स्टोव पर चाय का पानी चढ़ाकर जल्दी ही वापस लौट आई। मेरे चेहरे को पढ़ते हुए उसने सवालों की झड़ी लगा दी "क्या बात है, आज बड़े खुश नज़र आ रहे हैं? लगता है, कहीं से माया हाथ लगनेवाली है अरे अब तो बोनस भी बँटनेवाला होगा। क्यों, यही बात है न?"

मैंने सुधा को संभावित समझौते की झलक दे दी। सुनते ही उसकी प्रसन्नता सीमा लांघ गई। वह बलाएँ लेती हुई फिरकनी-सी घूम गई। रसोईघर में जाती हुई वह बड़ी तरंगित दिखाई दे रही थी। जल्दी से नाश्ता रख कर वह बजट बनाने बैठ गई 'इनके' लिए गर्म पैंट का पीस, संदीप के लिए ऊनी सूट, गुड़िया के कपड़े, निशा-वीनू के लिए ऊन और अपने लिए? इस साल क्या लेना चाहिए खैर, देखा जाएगा। वह बैठी-बैठी यों ही हिसाब लगाती रही। नवीन घटनाक्रम की अनिवार्य परिणति के रूप में अविश्वास और संशय की दीवार, जो इन वर्षों के दौरान हम दोनों के बीच निरंतर उठती रही थी, एकबारगी ही ढह गई। मैं सुधा को अपलक देख रहा था। सुबह की निस्तेज आंखें दीप-शिखा की भांति जल उठी थीं। भावी सुख के रोमांच ने उसके नख-शिख को रूपांतरित कर डाला था। उसे प्रफुल्लित देख मेरा अवसादग्रस्त मन स्फूर्ति से भर उठा। लगातार तनाव से खिंची नसें स्वाभाविक स्थिति में लौट आईं। दिवास्वप्न की मोहकता मेरी चेतना पर भी हावी होने लगी।

अगले कुछ दिन असमंजस के थे। बोनस संबंधी स्थिति स्पष्ट न हो सकने के कारण अटकलों-अफ़वाहों का बाज़ार गर्म था। मीटिंग के अंतिम दिन, शनिवार की संध्या को सब लोग यूनियन के टेलेक्स की प्रतीक्षा कर रहे थे। रॉय का बहुत देर से पता न था। मैंने पीछे मुड़कर यूसुफ से पूछा ही था कि वह आता दिखाई दिया। उसकी स्वाभाविक चपलता न जाने कहां खो गई थी। सब लोग उसे घेर कर खड़े हो गए। उसने बुझे स्वर में कहा, "सब चौपट हो गया। मैनेजमेंट इस साल भी चार परसेंट से आगे बढ़ने को तैयार नहीं है। यूनियन ने मीटिंग का बायकाट कर दिया है। मामला जल्दी सुलझनेवाला नहीं है। सोमवार को एडवांस मिलने जा रहा है।"

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