बाबूलाल को बीड़ी और शराब पीने की लत थी। शराब
पीने के बाद तो कभी-कभी वो बड़ी ऊलजलूल हरकतें करता, कभी किसी के दरवाज़े पर जाकर
ज़ोर-ज़ोर से कोई पुराने ज़माने का फ़िल्मी गीत गाता और कभी आसमान की ओर देखकर चाँद
तारों को गालियाँ बकता रहता। कई बार वह घर के बाहर खड़े यूकेलिप्टस के पेड़ से
चिपक-चिपक कर रोता रहता, ऐसे ही एक दिन उसने अनिमेष को बतलाया कि उसके पिता ने यह
वृक्ष उसी दिन लगाया था जिस दिन उसका जन्म हुआ था, इस रिश्ते से वह पेड़ बाबूलाल को
अपने जुड़वाँ भाई की तरह लगता था। इसके अलावा भी वह अनेक बेतुकी हरकतें किया करता
था। एक दिन शराब के नशे में धुत होकर उसने अपने पड़ोसी के लड़के को बिना बात के ही
बहुत पीटा। उस दिन के बाद से आस पास के लोगों ने बाबूलाल का एक प्रकार से बहिष्कार
ही करना प्रारंभ कर दिया। उसकी ऐसी ही हरकतों से तंग आकर उसका पुत्र टीटू अपने
परिवार के संग एक दूसरे मोहल्ले में रहने लगा था, परंतु बाबूलाल सबसे यही कहते थे
कि उसने अपने बेटे और बहू से तंग आकर घर से निकाल दिया है।
जैसे ही अनिमेष घर में घुसा बाबूलाल ने उसका दरवाज़ा खटखटाया।
"आज एक तारीख़ है किराया कहाँ है।"
"जी, अभी तो मेरे पास दो सौ रुपए ही हैं।"
"लाओ, अभी इतने ले रहा हूँ पर याद रहे कि बाकी के तीन सौ रुपए भी जल्दी मिल जाने
चाहिए, नहीं तो मुझे समाज सेवा करने का कोई शौक नहीं है।"
"बाकी के पैसे आपको दो दिन में लाकर दे दूँगा।" इतना कहकर अनिमेष अपने कमरे में आ
गया।
तीन दिन बीत चुके थे, अनिमेष रात को देर से सोया था अत: अभी तक उठा नहीं था।
बाबूलाल उसके कमरे के बाहर खड़ा अंदर जलती हुई बत्ती को देख रहा था। ना जाने जलते
हुए एक बल्ब को देखकर कितने वॉट का करंट उसके शरीर में दौड़ जाता था। लेकिन उसने
सोचा कि किराया लेने के बाद ही कुछ बोलेगा। कहीं ये लड़का बिदक गया तो? उसने आवाज़
दी,
''उठो भैया, ज़रा बाहर आओ।''
अनिमेष आँखे मलता हुआ बाहर आ गया।
''तीन दिन हो गए हैं, बाकी के तीन सौ रुपए?''
''अभी नहीं हैं मेरे पास, जब होंगे तब दे जाऊँगा। सुबह-सुबह जगा दिया आपने, अब तो
आज का पूरा दिन ख़राब होगा।''
''देखो भाई, मैंने कोई खैऱाती अस्पताल नहीं खोल रखा है, मुझको अभी पैसे चाहिए।''
''अभी नहीं हैं मेरे पास, कहाँ से दूँ?''
एक तो रात भर बल्ब जला था और दूसरा अनिमेष पैसे भी नहीं दे रहा था, अब तक बाबूलाल
का पारा चढ़ चुका था। वह गुस्साते हुए बोला,
''तुमको शर्म नहीं आती है, मेरे पैसे मारकर बैठे हो, मेरे इतनी बार समझाने पर भी
लाईट जलाकर सोते हो, तुम्हारे जैसे किराएदार से निभा पाना मेरे लिए और अधिक संभव
नहीं है। निकल जाओ मेरे घर से, मैं शरीफ़ आदमी हूँ इसलिए तुमको कल सुबह तक का समय
देता हूँ कि अपने लिए कोई जगह देख लो और भगवान के लिए मेरा पीछा छोड़ो। इतने नखरे
तो मैंने अपने बेटे के नहीं देखे और एक बात याद रखना, मेरे पैसे दिए बिना तुम अपना
सामान यहाँ से नहीं ले जा सकते हो।''
अनिमेष इस अचानक हुए आक्रमण के लिए तैयार नहीं था। परंतु वह भी रोज़-रोज़ की इस
चिक-चिक से तंग आ चुका था अत: उसने बाबूलाल से कह दिया कि वह घर छोड़ देगा।
घर से निकलकर अनिमेष सीधे ''उजागर'' के दफ़्तर पहुंचा। आज अनिमेष बहुत दुखी था, एक
तो सुबह-सुबह बाबूलाल से झगड़ा हुआ और दूसरी ओर उसके पाठक का पत्र जो लेख छपने के
दो दिन के अंदर अख़बार के दफ़्तर पहुँच जाता था, अभी तक नहीं पहुँचा था। अपने आप को
सांत्वना देते हुए मन ही मन उसने सोचा कि,
"जो होता है अच्छे के लिए ही होता है, राकेश जी ने मुझे चार सौ रुपए एडवांस दे दिए
हैं तथा पास ही एक जगह रहने की बात भी कर ली है, मैं अभी जाकर ये पैसे बाबूलाल के
मुँह पर मारता हूँ। सुबह तक वहाँ रुकने का कोई मतलब नहीं है, जहाँ स्नेह नहीं है
वहाँ रहना भी नहीं है।"
ऐसे भावों को मन में लिए अनिमेष दफ़्तर से उठा और
सीधे बाबूलाल के कमरे की ओर चल पड़ा। बाबूलाल उस समय अपनी बीड़ी जलाने के लिए माचिस
ढूँढ रहा था, उसने चुपचाप पैसे लिए तथा फिर माचिस ढूँढ़ने के कर्म में लीन हो गया।
अनिमेष अपने कमरे में आया और एक-एक करके सामान रखने लगा।
"कह तो ऐसे रहा था कि सामान रख लूँगा जैसे मेरी कोई इज़्ज़त नहीं है। पर सामान है
ही क्या, मेरे पास ये चार डायरियाँ हैं, एक पेन है, एक दरी है, एक तकिया और ये बल्ब
और कुछ कपड़े। शायद तीन सौ रुपए से ज़्यादा का ही हो। अब मुझे क्या करना, पैसे तो
दे ही दिए हैंं, अब चलता हूं।"
कोने में पड़ी कुर्सी मेज को देखकर वह ठिठका, इसपर बैठ कर उसने कितने ही लेख लिखे
थे। खिड़की खुली हुई थी, लगा बाहर यूकेलिप्टस मानो कुछ कहना चाहता था। अनिमेष कुछ
देर खिड़की के बाहर देखता रहा, उसे लगा मानो आज वह वृक्ष ही उससे रुकने के लिए कह
रहा हो। उसने अपनी कलम उठाई और बैठकर कुछ सोचने लगा।
''मैंने पैसे तो दे ही दिए हैं, अब यदि कल सुबह तक
रुक जाऊँ तो कोई ग़लत बात नहीं है। वैसे भी इस कुर्सी से, इस मेज़ से इस तखत से और
बाहर लगे इस यूकेलिप्टस से मुझको अपनापन भी मिला है और प्रेरणा भी, भले ही इनके
मालिक ने मुझे दुत्कारा हो। अब जो अपने बेटे का न हुआ वह किसी और का क्या होगा।
मनुष्य को न जाने किस चीज़ की भूख है और न जाने यह कैसे शांत होगी। बाबूलाल कितना
पैसा दबाए बैठा है पर और-और की रट तो जैसे छूटती ही नहीं या फिर शायद मकान मालिक
बनने के बाद मानव का स्वभाव ऐसा ही हो जाता है, पता नहीं, अगर वो अपने आपको तीस मार
खाँ समझता है तो मैं भी कुछ कम नहीं हूँ, आज नहीं जाऊँगा, कल सुबह ही खाली
करूंगा।''
अनिमेष काफ़ी देर तक कुर्सी पर बैठा रहा परंतु कुछ
लिख नहीं पाया। बैठे-बैठे ही कब उसकी आँख लग गई उसे पता ही न चला। रात के लगभग दो
बजे किसी ने दरवाज़े को ज़ोर से खटखटाया, अनिमेष ने उठकर जब किवाड़ खोला तो देखा कि
बाबूलाल सामने खड़ा है, उसका चेहरा पसीने से लथपथ था।
"दर्द से छाती फटी जा रही है। ज़रा डाक्टर को बुला लाओ।"
इतना कहकर बाबूलाल वहीं दरवाज़े पर बैठ गया।
ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था, पहले भी कई बार कभी
खांसी तो कभी ज़ुकाम, कुछ न कुछ होता ही रहता था। बूढ़ी देह थी, ऊपर से बीड़ी पीने
का शौक तो रोग कितने दिन दूर रहते। जब भी बाबूलाल को कोई समस्या होती तो वह
दौड़ा-दौड़ा अनिमेष के पास ही आता। आज अनिमेष का पारा भी सातवें आसमान पर था लेकिन
बाबूलाल को कराहते देख अनिमेष उसे सहारा देकर उसके कमरे तक ले गया, बिस्तर पर लिटा
कर पानी पिलाया और बाहर आ गया।
"मुझे तो लगा कि बत्ती जलती हुई देखकर एक बार फिर अपने स्नेह की वर्षा मुझ पर करने
आया है। मुझसे मकान खाली करने को कह रहा था। मैं नहीं जाऊँगा किसी डाक्टर को बुलाने
और वैसे भी इस समय रात के तीन बजे कौन से डाक्टर साहब राज़ी हो जाएँगे यहाँ आने के
लिए और मान लो मैं शाम को ही चला गया होता तो।''
मन ही मन ऐसा सोचते हुए अनिमेष ने बाबूलाल के कमरे में झाँक कर देखा, बाबूलाल गहरी
नींद में सो चुका था। अनिमेष ने अंदर जाकर उसे चादर ओढ़ाई और अपने कमरे की ओर चल
पड़ा।
"कल सुबह जाने से पहले डॉ साहब को ले ही आऊँगा, लगता है कि दर्द ज़्यादा हो रहा था
नहीं तो इतनी रात गए मेरे कमरे में ना आता।"
सुबह-सुबह अनिमेष डॉ पवार को अपने साथ लेकर आ गया।
दरवाज़ा खोलकर जब वह अंदर पहुँचा तो उसने देखा कि बाबूलाल का शरीर अकड़ रहा है। डॉ
साहब ने बताया कि बाबूलाल की मौत तो चार पाँच घंटे पहले ही हो चुकी है। अनिमेष ने
घड़ी में देखा तो सुबह के साढ़े सात बज रहे थे। बाहर लगे यूकेलिप्टस के पत्ते झर
रहे थे। कुछ ही देर में टीटू अपने परिवार के साथ पहुँच गया। उसके आते ही रोना धोना
चालू हो गया। अनिमेष स्तब्ध-सा सबकुछ देख रहा था। बाबूलाल के शरीर को बिस्तर से
उठाकर ज़मीन पर रख दिया गया। बिस्तर पर पड़ी चादर और गद्दे को भी हटाया गया। चादर
के नीचे एक पोस्टकार्ड पड़ा था जिसपर लिखा था कि,
"प्रिय लेखक जी,
आज आपका लेख पढ़ा, बहुत अच्छा लगा। हमारे नेताओं ने भी अंग्रेज़ों की फूट डालो और
राज करो वाली पालिसी ही अपना रखी है। आपके लेख में एक आम आदमी के मज़हब की जो बातें
बताई गई हैं वे प्रशंसनीय हैं। इधर स्वास्थ्य में कुछ गड़बड़ी की वजह से आज मैं
पत्र डाल नहीं पा रहा हूँ। एक दो दिन में अवश्य पोस्ट कर दूँगा।
आपके अगले लेख के इंतज़ार में,
आपका,
पाठक''
टीटू ने पत्र को एक ओर रखा तथा अर्थी तैयार करने
लगा। अचानक अनिमेष दहाड़ें मार-मार कर रोने लगा, आस पास के सब लोगों ने उसे
सांत्वना देने के अनेक प्रयास किए पर अनिमेष की आँखों से बहती हुई अश्रुधारा रुक ही
नहीं रही थी। लोग कह रहे थे कि देखो मकान मालिक और किराएदार में पिता पुत्र-सा
स्नेह था, तभी सूरज की एक किरण परदे के पीछे से आई और दीवार पर स्थिर हो गई।
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