सूरज की किरणें आकाश में अपने पंख पसार चुकी
थीं। एक किरण खिड़की पर पड़े टाट के परदे को छकाती हुई कमरे के भीतर आ गई और सामने
की दीवार पर छोटे से सूरज की भाँति चमकने लगी। पीले की बदरंग दीवार अपने उखड़ते हुए
प्लास्टर को सँभालती हुई उस किरण का स्वागत कर रही थी।
बिस्तर पर पड़े-पड़े अनिमेष ने अपनी आँखें खोल कर एक बार उस किरण की ओर देखा और फिर
आँखें मूँद कर उस अधूरे सपने की कड़ियों को पूरा करने की उधेड़बुन में जुट गया जिसे
वह पिछले काफ़ी समय से देख रहा था, पर सपना था कि अपनी पिछली कड़ियों से जुड़ ही
नहीं पा रहा था।
कई बार पुतलियों पर ज़ोर डालने के बावज़ूद जब सपना पूरा नहीं हुआ तो उसने अपनी
आँखों को दुबारा खोला और दीवार पर पड़ती हुई किरण को देखने लगा। खिड़की से दीवार तक
वह किरण वातावरण में उपस्थित छोटे-छोटे रेशों-रजकणों को प्रकाशित करती हुई दीवार पर
स्थिर हो रही थी। कमरे का वह वातावरण जो नितांत गतिविधिहीन एवं शांत-सा लग रहा था,
एक किरण मात्र के प्रवेश से गतिमान हो उठा था।
वास्तविकता तो यह थी कि किरण ने उस वेग को दृष्टि प्रदान कर दी थी जो अब तक
दीप्यमान नहीं था।
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