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दीवार पर पड़ते प्रकाश के बिंब को देखते हुए वह अपने बचपन के उस पड़ाव पर पहुँच गया जब उसका परिवार इलाहाबाद के कटरा मोहल्ले की चूड़ी वाली गली में बने अपने पुश्तैनी मकान में रहता था। वहाँ सब उसे अन्नी पुकारते थे। वह और उसके ताऊजी का बेटा रमन आईने से दीवार पर सूरज की किरणों को चमकाते और फिर उस बिंब को पकड़ने के लिए दौड़ते, पर वह बिंब कभी हाथ में नहीं आता और यदि कभी उनकी नन्हीं-नन्हीं उँगलियाँ रोशनी के उस टुकड़े तक पहुँचती भी तो वह रोशनी उनके हाथों पर बिखर कर रह जाती। फिर भी सूरज के उस बिंब को छूने में जो सुख मिलता वह अतुलनीय था। अनिमेष बिस्तर से उठा और एक बार फिर सूरज की उस किरण को अपने हाथों में कैद करने का प्रयास करने लगा।

समय कितनी तेज़ी से बीतता है। रमन का ब्याह हो गया था और उसने वहीं इलाहाबाद में एक मेडिकल स्टोर खोल लिया था। कल का अन्नी आज का अनिमेष भगत बन चुका था। अनिमेष भगत एक बेरोज़गार, जिसने नौकरी के लिए अपने अलग मापदंड बना रखे थे, एक पुत्र जो अब घर से पैसे मँगाने में शर्म का अनुभव करने लगा था, एक गुमनाम लेखक जिसकी रचनाओं को नगर का कोई भी बड़ा पत्र छापने को तैयार नहीं होता था। वास्तव में अनिमेष अपने भीतर छिपे लेखक को अपने सबसे निकट पाता, धीरे-धीरे घर से पैसे माँगने में शर्म आनी ख़त्म सी होती जा रही थी, वैसे भी अब घरवाले पैसे देने में हिचकिचाने लगे थे। वह चार बार माँगता तो कभी एक बार पैसे आते तो कभी वो भी ना आते। बेरोज़गारी तो अपनी आदत ही डाल चुकी थी। वैसे भी वह लेखक ही था जिसकी बदौलत वह अपनी थोड़ी-सी ज़रूरतों को पूरा करने भर के पैसे जुटा पाता। इलाहाबाद से दिल्ली आए उसे लगभग तीन वर्ष बीत चुके थे। नौकरी की तलाश उसे यहाँ खींच लाई थी, उसने सुना था कि दिल्ली में आने वाले वर्षों में दो लाख से भी अधिक लोगों को रोज़गार उपलब्ध होगा। नौकरियाँ थीं अभियंताओं के लिए, बावर्चियों के लिए, मज़दूरों के लिए, तकनीशियनों के लिए, अंग्रेज़ी को अंग्रेज़ों की तरह बोलने वालों के लिए, पर हिंदी के स्नातक के लिए कोई जगह किसी के पास नहीं थी। इधर उधर प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं में कुछ लिख लिखा कर वह अपना जीवन यापन कर रहा था।
समय के साथ पत्रकारिता ने अपना स्वरूप बदला है। समाचार पत्र पढ़ने के स्थान पर अब लोग न्यूज़ चैनल्स पर जीवंत समाचार देखना अधिक पसंद करते हैं। आज के समय में लेखक की जो स्थिति है वो भी किसी से छिपी नहीं है। पत्रकारिता के क्षेत्र में जो बदलाव आया है उसकी तीव्र गति में अनेक लेखक और कवि ऐसे हैं जो अचानक पीछे छूट गए हैं। अनिमेष लिखता तो अच्छा था परंतु नवयुग जिस गति और जिस लयात्मकता की माँग उससे करता वह उसके पास न थी। संपादक चाहते थे कि वह कुछ चटपटा लिखे, कुछ ऐसा जिसको पढ़कर उत्तेजना पैदा की जा सके पर वह जो लिखता था उसको यह कहकर नहीं छापा जाता था कि ऐसा तो पहले भी बहुत बार लिखा जा चुका है।

इस सबके बावजूद नगर में छपने वाले एक साप्ताहिक समाचार पत्र ''उजागर'' में अनिमेष की रचना अवश्य छपती थी। प्रत्येक रविवार को प्रकाशित होने वाले इस पत्र में लेख, कहानी, कविता या जो कुछ भी उसने लिखा होता वह छप जाता और दो सौ रुपए अनिमेष के हाथ पर रख दिए जाते। इस पत्र के संपादक थे श्रीमान राकेश पराशर। अनिमेष आज तक संपादक जी के इस स्नेह को समझ नहीं पाया था, न तो वह उनकी जाति का था, न उनके क्षेत्र से था और न ही संपादक महोदय को कोई लाभ पहुँचाने की स्थिति में ही था, फिर भी उसकी रचनाएँ निर्बाध रूप से छपती आ रही थीं।

ऐसा सुनते हैं कि राकेश जी भी बहुत दिनों तक अपनी रचनाओं को छपवाने हेतु इधर उधर भेजते रहे थे और अंतत: थक हार कर उन्होंने प्रिंटिंग प्रेस का काम शुरू किया। काम अच्छा चल पड़ा तो अंदर छिपे लेखक ने एक बार फिर अंगड़ाइयाँ लेना प्रारंभ कर दिया तथा उन्होंने अपने स्वयं के अख़बार ''उजागर'' की नींव रखी। आस-पास के परिचित दुकानदारों से कुछ विज्ञापन मिल जाते और बाकी पैसे वे अपनी जेब से लगाते थे। नए लोगों को लिखने के लिए प्रेरित करने में उन्हें आनंद आता था। सुनते तो ऐसा भी हैं कि आजकल के कुछ प्रतिष्ठित लेखक उनके आँगन से होकर ही अपने लक्ष्य तक पहुँचे हैं परंतु उन लेखकों के नाम किसी को पता नहीं थे। अनिमेष को ऐसा नहीं लगता था कि वह भी दूसरे प्रसिद्ध लेखकों की तरह यहीं से अपने आपको लेखन की दुनिया में सिद्ध कर सकेगा।

अनिमेष को कई बार यह सोचकर दुख होता था कि उसकी रचनाओं को बहुत कम लोग ही पढ़ते थे। कलम से क्रांति का जो स्वप्न वह एक अरसे से देखता आ रहा था वह उसको टूटता-सा लगता। ''उजागर'' की कुल दो हज़ार प्रतियाँ छपती थीं जिसमें से अधिकतर आस पास के दुकानदारों में मुफ़्त बाँट दी जातीं और बाकी प्रेस से ही कबाड़ी वाले के पास पहुँच जातीं। स्कूलों के बाहर खड़े फेरीवाले आमतौर पर ''उजागर'' पर ही चने कुरमुरे आदि बेचते थे। कुल सौ-दो सौ प्रतियाँ ही असली पाठकों तक पहुँचतीं जिसमें से अधिकतर मुख्य ख़बरों के आगे कम ही बढ़ते थे। ऐसे में चौथे पृष्ठ पर छपने वाले लेख को कितने लोग पढ़ते होंगे यह कहना कठिन नहीं था।

अनिमेष अन्य नामी-गिरामी पत्रों में भी यदा-कदा अपनी रचनाएँ भेजता रहता था। परंतु उन पत्रों ने तो जैसे उसकी रचनाओं को न छापने की कसम खा रखी थी। ''दैनिक प्रकरण'' से कल ही उसका लेख वापस आया था, वह लेख जो उसने हिंदू मुस्लिम एकता पर लिखा था, इसी एकता की कड़ियों में उलझकर एक लिफ़ाफ़े के रूप में उसके सिरहाने पड़ा था। अलसाए हुए अनिमेष ने एक दृष्टि उस लिफ़ाफ़े की ओर डाली, उठकर टूथपेस्ट को अपने ब्रश में लगाया तथा कमरे से बाहर निकल आया। बरामदे में लगे आईने पर जब उसकी नज़र पड़ी तो अपनी आँखों के नीचे उभरती हुई कालिख को देखकर वह एक बार ठिठका और फिर मन ही मन अपने आपसे कुछ कहता हुआ आगे बढ़ा।

"उठो भाई एक और दिन तैयार है तुमसे दो-दो हाथ करने के लिए। अभी बाबूलाल भी किराया-किराया चिल्लाता हुआ आ रहा होगा। यहाँ आँखों के नीचे तो ऐसी कालिख जम रही है कि मानो रात भर इन्होंने कोयले की खान में काम किया हो। अम्मा अगर इस हालत में देख लें तो पहचान भी ना पाएँ। चलूँ, राकेश जी को ये लेख देता हूँ जाकर, एक वही हैं जो इसको छाप सकते हैं वरना यदि बाकी पत्रों का बस चले तो हिंदू मुस्लिम एकता को शब्दकोष से ही बाहर करवा दें।"
खैऱ, चाहे जितने लोग उस अख़बार को पढ़ते हों पर कोई एक पाठक ऐसा था जो एक पोस्टकार्ड पर अपनी प्रतिक्रिया लिखकर अवश्य भेजता था। पच्चीस पैसे का वह पोस्टकार्ड भले ही हज़ारों का ना होता हो पर अनिमेष के लिए वह दो सौ रुपए का तो हो ही जाता क्यों कि उसको पाने के बाद ही वह अपने अगले लेख को लिखने की हिम्मत जुटा पाता। अनिमेष को ऐसा लगता कि यदि कोई उसकी रचना पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहा है तो हो ना हो कहीं ना कहीं उसकी कलम अपने उद्देश्य में सफल हो रही है। कमरे में वापस आकर उसने एक बार फिर पोस्टकार्ड को देखा,
"प्रिय लेखक जी,
आज आपका लेख पढ़ा, बहुत अच्छा लगा। ऐसी मनोहारी रम्य रचना पढ़े एक अरसा बीत गया था। भ से भारत, भ से भूख और भ से भ्रष्टाचार की श्रृंखलाओं को आपने एक कुशल चितेरे की तरह अपने कैनवस पर उतारा है। लेख की भाषा और शैली भी बहुत अच्छी लगी। व्यंग्यात्मकता के पुट के कारण लेख और भी सुंदर बन पड़ा है। आशा है कि आगे भी आप ऐसे ही उत्तम लेखों से हम पाठकों की तृष्णा को शांत करते रहेंगे।
आपका
पाठक

अब तक कम से कम बीस बार वह इसको पढ़ चुका था। पर उसे ऐसा लगता मानो प्रशंसा अथवा प्रतिक्रिया के यह शब्द उसको असीम शक्ति प्रदान कर रहे हों। कभी-कभी तो उसको ऐसा लगता कि यदि यह पोस्टकार्ड उसके पास ना आए तो वह आगे कुछ भी लिख ना पाए। वैसे वह यह भी जानता था कि उसका ऐसा सोचना एक अंधविश्वास से अधिक कुछ भी नहीं था परंतु ऐसा अंधविश्वास जिससे व्यक्ति को प्रेरणा मिलती हो, विश्वास करने योग्य होता है। पोस्टकार्ड के अक्षर-अक्षर को एक बार पुन: अपने मानस में बिठाकर अनिमेष ने अपनी सायकिल उठाई और ''उजागर'' के दफ़्तर की ओर बढ़ चला। कुछ ही समय में अपने लेख को बगल में दबाए वह राकेश जी के सामने खड़ा था। उसने लेख को राकेश जी के आगे बढ़ाया, राकेश ने अनिमेष की आँखों में आँखें डालते हुए कहा,
"अरे, ये खेद सहित का पर्चा तो हटा देते। कितनी बार समझाया है तुम्हें कि तुम हमारे पेटेंट लेखक हो, मगर तुम मानते नहीं हो। बडे पत्रों में छपने के लिए बड़ा नाम, बड़ी जान पहचान का होना बहुत आवश्यक है। लिफ़ाफ़ा वापस आने पर होने वाले दुख से मैं भी परिचित हूँ पर ऐसे ही कोई प्रेमचंद थोड़े ही बन जाता है। देखूँ तो क्या लिखा है तुम्हारी आग उगलती धारदार कलम ने, हमम ह़िंदु मुस्लिम बढ़िया है, छप जाएगा, ये लो भाई हमारा आशीर्वाद।" इतना कहते हुए उन्होंने दो सौ रुपए अनिमेष को पकड़ा दिए। अनिमेष रुपए लेकर चुपचाप अपने घर की ओर चल पड़ा।

अनिमेष के जीवन में एक और बड़ा ही महत्वपूर्ण प्राणी था, उसका मकान मलिक बाबूलाल जो उसके कमरे के सामने वाले कमरे में ही रहता था। कभी वह किसी से बोलता तो ऐसे मानो कोई बहुत बड़ा एहसान कर रहा हो। उसकी बातचीत को झगड़े में बदलते ज़्यादा समय नहीं लगता था। पिछले चार महीनों में अनिमेष को कई बार बत्ती जलती छोड़ देने की वजह से फटकार पड़ चुकी थी। कमरे का किराया पाँच सौ रुपए था, कमरे के अलावा एक कुर्सी, एक मेज़ और एक तखत भी उस कमरे में पहले से पड़े थे, बिजली का अलग से कुछ नहीं लिया जाता था अत: यदि बाबूलाल बिना मतलब बत्ती जलती देख लेता तो आगबबूला हो उठता। इधर हमारे लेखक बाबू को लिखते-लिखते सोने की आदत थी, तो सामन्यत: कई बार लाईट बुझाना भूल भी जाते थे।

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