वह
उन्हें इकठ्ठा कर एक संकरे मुँह और गहरे पेंदे वाले एक मर्तबान
में भरेगी और बाहर 'पोर्टिको' में बारजे पर रख देगी। फिर
पड़ोसियों से कहती फिरेगी, "अगर झूठन पक्षी नहीं खाते हैं तो
सुधाकर वापस आ जाएगा, देख लेना।"
होशियारी से उसने स्वयं के लिए यह
भ्रमजाल रचा है शायद अभी भी जीवित रहने की पिपासा शेष है। कहने को तो वह बुद्धू
दिखती है पर कभी कभार चतुराई से प्रखर बहाने ढूँढ़ ही लेती है स्वयं को ज़िंदा रखने
के लिए। वह एक अबोध स्वयंसिद्धा है। ऐसा ही उसने पापा के देहांत पर भी किया था।
उनकी निर्जीव देह पर सिर पटक कर हाहाकर मचाने के बाद भी लगातार कहती रही थी वह वापस
आएँगे देख लेना व़ह वापस आएँगे।
कह नहीं सकता वह ऐसे दुर्जन
मनुष्य के लिए क्यों विलाप करती थी। पापा का क्षण प्रतिक्षण रहने वाला बिसूरता
चेहरा, 'जिन' के अंतहीन पेगों की कड़वाहट के कारण लटपटाती जिह्वा, वही कड़वाहट जो
धीमे-धीमे रिसती हुई उनके मुख के हर अर्द्धविराम पर जड़ काली लकीरों का दुर्गम जाल
बन बिछ चुकी थी। वे खूबसूरत बिल्कुल न थे। उनका लंबा कद छोड़ कर शेष सभी अंग
कुरूपता की हदों पर थे। खुरदुरी बंकिम नासिका के नीचे रखे मोटे रक्तहीन थूथन के
टुकड़े किसी बासी गोश्त के समान हमेशा बाहर की ओर झूलते। वे किसी भयावह यंत्र से
दिखाई देते, अस्फुट गालियों से लबरेज, निरंतर दोलन करते हुए।
घर के बाहरी अहाते से सटे कमरे
में लकड़ी का तीन फुट ऊँचा तख़्त था जिस पर वह देशी 'जिन' गटकते थे। दफ़्तर से वापस
आने के बाद किसी स्वचालित रोबोट की तरह उनका शरीर 'रेफ्रिजेरेटर' से चिपक जाता।
शराब की बड़ी बोतल सूखी अँगुलियों के बीच लटका कर वह माँ को पुकारते। माँ प्रकट
होती सिकुड़ी, दबी, ज़मीन में धँसी हुई-सी। किसी बेहद अश्लील और भद्दी गाली से उसे
ज़लील कर वह गुर्रा पड़ते, "चल, भागकर रोटी पका कंबख्त औरत, मैं गिन रहा हूँ एक,
दो, तीन।" माँ सच में तेज़ कदमों से भीतर की ओर भागती और कमज़ोर बेबस बिल्ली की
भाँति घर के किसी विरक्त कोने में छिप कर आँसुओं से भीगे चेहरे को पोंछने लगती। वह
चुपचाप रोती थी। ऐसा करते वक्त उसकी हिड़की नहीं बँधती थी किसी प्रकार का रूदन स्वर
भी नहीं। हाँ, उसकी गर्दन जुकाम सुड़कने के कारण विचित्र रूप से काँपती थी।
तख्त़ पर पहुँचते ही पापा की देह
का ऊपरी हिस्सा बायीं कोहनी पर झुकता और धीमे-धीमे हवा में लटकता हुआ एक अजीबोग़रीब
मुद्रा में समा जाता। लगता जैसे वह इंसान अनंतकाल से तपित अघोरी हो। कमरे में रखी
इकलौती बेंत की कुर्सी पर बैठा मैं बेमन से उनके लिए 'पेग' बनाने की कोशिश करता।
पापा कहते, "तू मुझे मरे हुए चूहे की तरह दीखता है जब पैदा हुआ था तब सुग्गी
चिड़िया की तरह सफ़ेद था, हँसता रोता था पर अब तेरी खाल गंदले रंग की हो गई है। इस
प्रकार के अजीबोग़रीब कष्ट मुझसे सहे नहीं जाते, सोचता हूँ टिकट कटा कर अंदमान चला
जाऊँ।"
कुछ क्षण के अल्प विराम के बाद वे
पुन: कटाक्ष करते, "शराब परोसना बेहद मुश्किल काम है बिल्कुल विभिन्न रंगों को
मिलाकर एक ख़ास रंग तैयार करने जैसा। परोसने वाला व्यक्ति अगर तुझ जैसा अनाड़ी हो
तब ख़ासी परेशानी हो सकती है।" ऐसा कह वह मुझपर बाज़ की तरह टूट पड़ते और ग्लास हाथ
से झपट लेते।
स्वयं को माँ और पापा के क्षणिक
सुख का दु:खद परिणाम मात्र समझ मैंने घर के सामने से गुज़रती एक कम उम्र की लड़की
से प्रेम करना शुरू कर दिया था। कालेज की सभी लड़कियाँ मेरी दु:स्थिति से परिचित
थीं उनसे मुहब्बत करने का साहस मुझ में न था। वह खूबसूरत थी क्यों कि उसके नक्श माँ
के जैसे नहीं थे। वह नाजुक थी क्यों कि माँ की तरह मेहनत करना उसके वश में नहीं था।
दोपहरी में स्कूल से लौटते वक्त वह बेहद थकी रहती और पापा के तख़्त पर सुस्ताते हुए
मुझसे बातें करती। ऐसी बातें जिनमें उसकी किताबें, सहेलियों के सिवाय कुछ न होता
था। मैं उसका चेहरा ताकता था काश माँ उसके जैसी होती। पापा किसी पड़ौसी के घर से एक
शैतान कुतिया उठा कर ले आए थे। वह उन्हें बेहद प्यारी थी क्यों कि रोटियाँ दोनों
संग खाते थे। वे उससे हमारी बुराई कहते तो वह उछल कर तख्त़ के मुहाने पर बैठ जाती
और अपने लंबे सफ़ेद कान खड़े कर लेती। रात भर कमरे की बाहरी दिवार से बँधी
'गों-गों' कर कूदती रिरियाती जैसे कहती हो कि उसे जल्द से जल्द छोड़ दिया जाए। एक
दिन उसकी गर्दन में मज़बूत लोहे की पट्टी डाल दी गई पर अगले दिन ही वहाँ गहरे जख़्म
पैदा हो गए जिनसे लाल-लाल खून लगातार रिसता था।
लड़की से मैं कुछ कहने की हिम्मत
न रखता था सो कीमती चीज़ें ख़रीद कर उसके मुलायम हाथों पर रख देता। वह शरारती
अंदाज़ में कहती, "सभी कुछ बहुत प्यारा है, शायद महंगा भी।" लड़कियाँ महंगे उपहार
देने वाले प्रेमियों को पसंद करती हैं यह मैं जानता था सो मुझे यकीन रहता कि वह
मेरे प्रेम में पागल हो चुकी है। पापा के आने से पहले वह कुतिया को पुचकारती, उसकी
ज़ख़्मों से भरी ज़र्द गर्दन को सहलाती, नर्म बालों के भीतर अंगुलियाँ चटखाती और
कहती, "च,च,च, पूअर गर्ल कितनी तकलीफ़ होती है बेचारी को। इटज़ रियली क्रूअल
त़ुम्हारे पापा इसे छोड़ क्यों नहीं देते।" उसके जज़्बातों में हमशरीकियत ज़ाहिर
करने के तौर से किसी न किसी बहाने मैं हौले से उसके हाथों या गालों को छू देता। इन
बातों से उसे कोई आपत्ति न थी।
क्यों कि मैं प्रेम में पागल
रसिया था इसलिए नौकरी ढूँढ़ऩे का साहस न होता था। घर से बाहर कदम रख़ता तो सिर और
शरीर दोनों सूर्य की निष्ठुर ज्वाला से फुंक जाते, पांव जूतांे की सख्त़ चमड़ी से
सुन्न पड़ जाते, नुच कर लहूलुहान हो जाते। कहा जाता है मनुष्य प्रेम में संबल
प्राप्त करता है निखट्टू मनुष्य भी उठ कर भागने लगता है किंतु मैं निर्बल हो रहा
था। मुहब्बत की ओट में दुबके रहने से जो आनंद मिलता था वह जीवन के कड़वे सत्य को
सीना तान कर जूझने से प्राप्त होने वाला न था।
कुतिया ज़्यादातर अब पापा के
तख़्त पर बैठी नज़र आती थी। उसकी आँखों की गुलाबी पुतलियाँ किसी चंट औरत के माफिक
लट्टू की तरह घूमती थीं। मैं इस वजह से लड़की को घर के भीतर वाले अपने कमरे में
बिठाता था जहाँ हम दोनों इत्मिनान से बातें कर सकते थे। उस दिन पापा ने माँ को
जूतों से पीट दिया था क्यों कि माँ ने थाल में रोटियाँ जला कर परोसी थीं। ऐसा उसने
इसलिए किया होगा क्यों कि वह विरोध प्रकट करना चाहती होगी। "स्साली बदमिज़ाज़ औरत,
तेरी मनहूस सूरत को शादी से पहले देख लेता तो इंकार कर देता, ज़हर पी लेता, किसी
मंदिर में देवदास बन पड़ा रहता पर तेरे संग विवाह हरगिज़ न करता म़ुझे सताना चाहती
थी चालाक औरत, मैं तुझे नहीं छोडूँगा।" यह कह कर वे उसे खदेड़ते हुए बाहर वाले कमरे
में ले गए। मुझे भी बेहद बुरा लगा माँ को ऐसा नहीं करना चाहिए था। जब लड़की घर पर
आती थी तब भी माँ अशिष्टता दिखाती। देर तक खड़ी हो कर उसे टुकुर-टुकुर ताकती फिर
इधर उधर छिप कर बैठ जाती। उसे लड़की से नफ़रत थी ऐसा उसके माथे पर उभरने वाली तिरछी
लकीरों से मालूम होता था। कुतिया को भी वह खा जाने वाली दृष्टि से देखा करती।
एक दिन माँ के पेट में नामालूम-सा
दर्द उठा और वह ज़मीन पर गिरकर तड़पने लगी। इतना तड़पी कि उसका हलक सूख गया। वह
लगातार चीख रही थी, "बचा लो बचा लो. . .।" उसका पेट किसी फूले हुए गुब्बारे-सा
दिखता था। पीड़ा दबाने के लिए उसकी हथेलियों ने पेट के ऊपर वाले हिस्से को बुरी तरह
जकड़ रखा था। उसे स्ट्रेचर पर डाल कर अस्पताल पहुँचाया गया और जब वह शांत हुई तब
उन्हीं हथेलियों के अंदर एक नर्म, पुलपुले, रोएंदार बच्चे का शरीर काँप रहा था।
मैंने वितृष्णा से मुँह फेर लिया। माँ बुढ़ाती उम्र में ऐसा आचरण कैसे कर सकती थी।
बच्चे के नक्श कुतिया से बेहद मिलते थे। गुलाबी रंगत वाली चालाक आँखों से वह सबको
देख रहा था। मुझे दहशत होने लगी पर पापा ने उसे सीने में भींच कर खूब चूमा, उसके
छोटे सफ़ेद गालों को चुटकी में भर कर हँसते रहे। उनकी थूथन पर पहली बार विहँस रेखा
को प्रकट होते मैंने देखा था। वे उसको हवा में उछाल कर कह रहे थे, "आजा मेरे शैतान
गले से लग जा।" मेरे पैदा होने पर भी संभवत: उन्होंने कुछ ऐसा ही कहा होगा।
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