फूस की छाजन। एक कोने में एक बकरा बँधा था, दूसरे
कोने में एक गाय, सामने मुर्गियाँ और उनके छोटे-छोटे चूजे चिक-चिक करते टहल रहे थे।
बच्चे सिर पर टोपी लगाए मदरसे में पढ़ने जा रहे थे। टिपिकल मुसलमानी घर।
''शेख मोशाय कहाँ हैं, देखिए आपसे मिलने आई हैं।'' सिपाही ने आवाज़ दी। उस घर से एक
औरत निकली, फिर देखते-देखते दूसरे घरों से अन्य औरतें। कुछ मर्द भी। सभी आँखें
फाड़-फाड़ कर मुझे देखने लगे।
''सलाहुद्दीन तो ढाका गए हैं, उनकी बहू है।'' एक औरत ने बताया।
''उन्हें ही बता दीजिए।'' सिपाही सुहेल ने कहा।
''नया आदमी देख रही हूँ।'' आँखों पर हाथ की ओट बना कर एक बूढ़ी ने मेरे चेहरे में
झाँका। मैं झेंप गई।
''हिंदू प्रेस रिपोर्टर हैं। बर्द्धमान से आई हैं।''
''यहाँ?''
''यहाँ अपने बहनोई किसी नीहार सिंह को ढूँढ़ने आई हैं। कहती हैं, इनके पूर्वज इसी
गाँव से गए थे।''
बूढ़ी थोड़ी गंभीर हुई, ''थाने का परमिशन है?''
''हाँ, तभी तो मैं साथ-साथ आया हूँ।''
''बूड़ी, ओ अंजुमन बूड़ी, देखो तो भारत से कौन आया है तुमसे मिलने।''
''अंजुमन बूड़ी!'' शब्दों को मैंने चुभलाया। याद आया बर्द्धमान आई थीं तब भी अणिमा
दी का भी पुकारने का नाम ''बूड़ी'' ही था। तो क्या अणिमा सचमुच ही ''अंजुमन'' बन गई
और नीहार सलाहुद्दीन?
अंदर से तेज़-तेज़ चल कर कोई स्त्री आई और चौखट के
फ्रेम में जड़ गई जैसे हुलास के वेग पर असमंजस की लगाम लग गई हो। हाँ, वही गंदुमी
गोल चेहरा, चेहरे में जड़ी वही बड़ी-बड़ी बिल्लौरी आँखें!
मैं अपने को और रोक न सकी। मैंने दौड़ कर अणिमा दी को बाहों में भर कर भींच लिया।
''दीदी! दीदी! मेरी दीदी। कितने दिन बाद देख रही हूँ अपनी अणिमा दी को। पहचाना
मुझे, मैं तुम्हारी शिखा हूँ - गुड्डी।''
''छोड़ो मुझे। मैं किसी शिखा, किसी गुड्डी को नहीं जानती।''
मुझे गहरा धक्का लगा। तो क्या मैं किसी मुर्दे को पकड़े हुए थी? हाथों के बंद ढीले
पड़े। काफ़ी औरतें जमा हो गई थीं। मेरी स्थिति हास्यास्पद होती जा रही थी। मैं
सफ़ाई पर उतर आई ''याद है दीदी, जब आप बर्द्धमान आई थीं, मैं इत्ती-सी थी।'' मैंने
हाथ से पाँच साल के बच्चे का कद बताया, ''मैं पाँच साल की थी, आप सात साल की। मुझे
गोद में लेकर घूमा करती थीं। उठा नहीं पाती थीं पूरी तरह। एक बार लेकर गिर पड़ी
थीं, इसके चलते आपको मार भी खानी पड़ी थी। यह रहा वह दाग भौंहों पर।''
अणिमा दी फटी-फटी आँखों से मुझे घूरे जा रही थी।
''आपने मुझे कई बार बुलाया था, मरने से पहले मिल लो याद है? खेल-खेल में आपने मेरी
शादी में मुझे झुमका देने की बात कही थी।''
अणिमा दी काठ की पुतली-सी निर्विकार खड़ी थीं। मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या
करूँ? तमाशा तो बन ही गई थी मैं। शर्म और अपमान की एक ठंडी लहर शिराओं में रेंग रही
थी। इतनी बाधाएँ पार कर, इतनी दूर चल कर तो आज उन्हें पाना नसीब हुआ, और आज भी वे न
बोली तो कब बोलेंगी?
सिपाही ने ऊबते हुए पूछा, ''और कितनी देर लगेगी?''
''छोड़ो! उसे जब कुछ याद ही नहीं आ रहा है तो आगे क्या पूछोगी।'' पहले वाली प्रौढ़ा
ने कहा, ''जो बीत गई सो बीत गई। हाँ! ननिहाल आई हो तो दो कौर भात और मछली तो पेट
में डालना ही होगा।''
''लेकिन मासी मैं तो. . .।''
''कोई लेकिन-वेकिन नहीं। हाँ, अगर मुसलमान के हाथ से खाने से तुम्हारा धरम भ्रष्ट
हो जाय तो और बात है!''
''नहीं मौसी ऐसी कोई बात नहीं। मैं बस ज़रा नहाना चाहती थी। सारी देह चिपचिपा रही
है।''
''ये लो, बगल में ही तो नदी है। सभी लड़कियाँ जा रही हैं। दो डुबकी मार आओ न!
अंजुमन बूड़ी लिवा जाओ इसे भी लेकिन ज्वार का कोई भरोसा नहीं, होशियार रहना।''
उस दल में कोई दस-एक युवतियाँ और बच्चियाँ थीं, बूढ़ी एक भी नहीं, सो वे खुल कर
बोल-बतिया रही थीं।
''अच्छा दीदी, आपके बर्द्धमान से कलकत्ता कितनी दूर है?'' एक ने पूछा।
''ट्रेन से डेढ़ घंटा लगता है।''
''बहोत बड़ा शहर है न, ज़मीन के अंदर रेल चलती है?''
''हाँ।''
''आप कभी बैठी हैं?''
''हाँ। कई बार।''
''बड़ा मज़ा आता होगा। है न?''
''हाँ।''
''अयोध्या कहाँ है?'' एक ठिगनी-सी गंभीर दिख रही लड़की का सवाल।
''हमारे यहाँ से पद्रह घंटे लगते हैं।''
शुक्र था उसके आगे उसने कुछ नहीं पूछा। डर और नफ़रत के बिंदू की ओर इशारा-भर किया,
उसे छुआ नहीं?
''आप तो हवाईजहाज़ पर भी चढ़ती होंगी?'' तीसरा सवाल।
''हाँ।''
''मुसलमानों को भी चढ़ने देते हैं?''
''क्यों नहीं?''
''अच्छा वहाँ रवि ठाकुर का शांति निकेतन है जहाँ लड़के-लड़कियाँ प्रेम कर सकते
हैं?''
''क्यों गंगा-पद्दा (पद्मा) के तट पर रहनेवालों को प्रेम करने से किसी ने रोका है
क्या?''
सारी लड़कियाँ हँस पड़ीं। मैंने कनखियों से अणिमा
दी को देखा जो खुद में खोई कटी-कटी-सी चल रही थीं, उनके चेहरे पर एक मुस्कान तक न
पसीजी। दीदी आप कैसी प्रेस रिपोर्टर हैं, एक कैमरा लाई होतीं तो हम सबका फ़ोटो हो
जाता। ''वाकई भूल हो गई।'' मैंने बहाना बनाया, मैं उन्हें कैसे बताती कि कैमरा, टेप
और मोबाइल तीनों रखवा लिए गए थे थाने में।
गाँव से निकल आए थे हम। मैं बार-बार पीछे मुड़ कर देख रही थी।
''क्या देख रही हैं दीदी?
''माँ ने कभी बताया था कि हमारे घर के पीछे एक तालाब हुआ करता था। सामने कोई मचान
हुआ करता था जिए पर ज्वार के समय पूरा परिवार बैठा रहता और रात को नावों की लालटेन
की लाल रोशनी लहरों पर मचलती हुई आती। गाँव में आम, जामुन और नारियल के ढेरों पेड़
थे, नीचे कच्चू के पत्ते ज़मीन को ढके रहते।''
''तब से कितनी ही बार बाढ़ें, कितनी ही बार झड़ (तूफ़ान) आए, न जाने कितनी बार
सोनारदीघी उजड़ा और बसा।''
ठीक ही कहती है युवती, इतिहास और भूगोल के मलबे में सब कुछ दब-दबा गया जब मेरा अपना
ही मुझे पहचानने से इंकार कर रहा है। लेकिन पुरानी यादों का क्या करूँ मैं?
टीले के नीचे हरे-भरे खेत थे, फिर नदी। मैं बूँद-बूँद पी रही थी सारा कुछ!
''आपके पास बदलने के लिए तो कुछ नहीं है?'' एक युवती को जैसे अभी-अभी याद आया।
''आप लोग?''
''हमारा क्या है, गमछा पहन लिया या ऐसे ही।''
''गमछा भी कहाँ है?''
''किसी का खींच लूँगी।''
लड़कियाँ खिलखिला पड़ीं। अणिमा दी के चेहरे पर
क्षणांश-भर के लिए कोई मुस्कराहट उभरी, फिर ज़ब्त हो गई।
रेत में दबे सीप और झिनुक के टुकड़े चमक रहे थे- नीली-सी कौंध! इन्हीं में कुछ-एक
मेरे पुरखों की अस्थियाँ भी शामिल हों। शायद अतीत के उस पार से जल रहा है उनका
फॉसफोरस!
''जल्दी करो दीदी। ज्वार आने से पहले लौट चलना है।'' उस ठिगनी-सी युवती ने कहा और
नदी में उतर गई। अणिमा दी घाट पर एड़ियाँ रगड़ रही थीं जैसे उन्हें कोई जल्दबाज़ी न
हो।
सागर की तरह फैली हुई थी नदी। जहाँ-तहाँ हिलकोरें ले रही थीं नावें, इक्के-दुक्के
स्टीमर भी। मटियाला पानी छुल्ल-छुल्ल ताल दे रहा था पर इस ताल पर साथ देने वाला कोई
भटियाली गीत न था। कोई कातर सा स्वर रह-रहकर उभर रहा था। यह कोरा वहम था मेरा या
हक़ीक़त? कहीं मेरे अंदर की पीर उछल कर बाहर तो नहीं आ गई थी?
न! नहीं! तट पर किसी घड़ियाल ने बकरी को पकड़ लिया था। वही मेमिया रही थी कातर स्वर
में। लड़कियाँ छप-छप करती हुई उधर भागीं। मेरे और अणिमा दी को छोड़ कर वहाँ अभी कोई
न था। खुद के ख़यालों में डूबी अणिमा दी धीरे से पानी में उतरीं, जैसे एक सागर
दूसरे सागर में उतर रहा हो। यही मौका था मेरे लिए। डुबकी लगा कर उठी ही थीं कि
मैंने उन्हें बाहों में जकड़ लिया, ''किसे छल रही हो दीदी, मुझे या खुद को?''
वह देह एक बार काँपी, फिर स्थिर हो गई, ''छोड़ दो मुझे, नदी में ऐसा मज़ाक नहीं
करते।''
''नहीं छोड़ूँगी, पहले सच-सच बतलाओ। तुम्हें मेरे सिर की कसम, झूठ बोली तो इसी नदी
में डूब मरूँ मैं।''
दीदी की आँख छलक आई, ''याद है। सब कुछ याद है गुड्डी। तुम्हें क्या मालूम कि हम पर
क्या-क्या गुज़री! घड़ियाल के जबड़े में फँसी बकरी की मिमियाहट हर कोई सुन सकता है,
हमारी कोई नहीं।'' दीदी एक पल को रुकीं, खुद को सहेजा, फिर बोली, ''जान बचाती या
धर्म? हमने जान चुनी। कितना लड़ते, किस-किस से लड़ते हम? अब तुम अलग हो, हम अलग।
तुम हिंदू हो, हम मुसलमान। ''तुम हिंदुस्तान, हम पाकिस्तान।''
आश्चर्य! अणिमा से अंजुमन बनी मेरी मौसेरी बहन भी ''बांगलादेश'' को बांगलादेश न कह
कर ''पाकिस्तान'' बता रही थीं, ठीक माँ की तरह।
''दीदी'' - मेरे अंदर बहुत-से सवाल घुमड़ रहे थे लेकिन उन्होंने होठों पर उँगली रख
दी, ''ना, कुछ मत पूछो, कुछ मत- खुदा के लिए अब इस बात का ज़िक्र भी मत करना। लौट
जाना और कभी मत आना। बड़ी मुश्किल से सँभाला है खुद को गुड्डी।''
''ठीक है दीदी, जैसा तुम कहती हो, वैसा ही करूँगी। चली जाऊँगी, कभी परेशान नहीं
करूँगी तुम्हें। आँसुओं की तरह पी जाऊँगी सब कुछ लेकिन एक बार, सिर्फ़ एक बार बाहों
में भींच लो कलेजे से लगाकर मुझे, चूम लो कस कर मन-प्राण आत्मा से मुझे। डरो नहीं
पानी की इस दीवार में पर्दे की ओट है, ईश्वर के सिवा कोई नहीं देख रहा हमें।''
''ज़िद न कर मेरी बहना, मेरी प्यारी गुड्डी, इस तरह तो हम दोनों ही डूब जाएँगे।''
''डूब जाएँ तो डूब जाएँ। मेरे लिए यही पल पहला है, यही आख़री भी।''
परस्पर आलिंगन में बँधी हम दोनों बहनें पानी के
पालने पर झूलने लगीं। अद्भुत उल्लास पर्व था मेरे लिए वह। लगा, सारा ही परिवेश आम,
जामुन, बाँस, केले और नारियल के पेड़ों से सघन हो गया। ऊपर पेड़ थे, नीचे कच्चू के
पत्तों का टटका हरियालापन। देवता प्रसन्न थे, पृथ्वी महीयसी हो उठी थी। दूर से कोई
मद्धिम-सी टेर कानों में बज रही थी, कोई भटियाली गीत-दुख और सुख से परे किसी अनजाने
लोक से तिर कर आता हुआ। कच्चू के चौड़े चकले, पत्तों पर हीरे की कनी-सी दो बूँदें
नाच रही थीं। नाचते-नाचते वे एक हो गईं।'
जाल डाल कर हमें बचाया गया था। सारा सोनारदीघी हमें देखने को उमड़ पड़ा था।
''तुम दोनों को ज्वार आने का आभास तक नहीं हुआ?'' एक सवाल।
''चीखते-चिल्लाते हमारा गला फट गया, तुम्हें एक भी चेतावनी सुनाई न दी?''
दूसरा सवाल।
सवाल-दर-सवाल।
दोनों बहनें अपराधी की तरह सिर झुकाए बैठी थीं। जवाब हमारे पास एक न था।
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