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पर अब मेरे और माँ के बीच संवाद शून्यता की स्थिति पैदा हो चुकी थी। अक्सर माँ मेरा हाथ पकड़कर पूछती, "कैसी नाराज़गी हो गई है तुझको म़ुझसे अपराध हो गया हो तो क्षमा कर दे बेटा प़र तेरे पापा की यही इच्छा थी। कहते थे कि. . .।" बात को पूरी किए बग़ैर ही वह यकायक सुबकने लगती। तब मैं मन मारकर उसकी काँपती गर्दन को अपने कँधों पर टिका देता। जब तक मैं खुद को उससे विलग कर दूर नहीं कर देता वह मुझको खालीपन लिए हुए वीरान दृष्टि से घूर रही होती। मैं उसकी बेहूदी हरकत से खिसिया कर ऊब जाता। ऐसी स्थिति में पोर्टिको पर खड़े हो कर सिगरेट फूँकना और लड़की की राह देखना मेरे दो प्रिय शगल बन गए थे।

कुतिया अब मुहल्ले में आवारा घूमते जंगली श्वानों को देखकर चिहुँक उठती थी। उन्हें देखते ही वह गोल घेरे में फिरकी बनकर नाच उठती। फिर उसके गले से वही चिर-परिचित 'गों गों' का स्वर फूटने लगता। वह जंज़ीर तोड़कर भाग जाना चाहती थी ऐसा उसकी गर्दन पर दिनों दिन गहरे होते जाते जख्म़ को देखकर लगता था। उसमें से हर वक्त गाढ़ा खून रिसता और घिनौने कीड़े उस जगह को दिन रात चबाते जिसके कारण वह दर्दनाक पीड़ा से चीख उठती थी।

उस दिन पापा की वहशी आँखों से आँसू झर रहे थे। बेंत की कुर्सी पर झूल रही उनकी काली देह ऐसी प्रतीत होती थी जैसे किसी मृत पशु के अंगों से खाल खींचकर टाँग दी गई हो।" वह भाग गई वह चली गई वापस नहीं लौटेगी अब. . .।" वे धीमे-धीमे सिसक रहे थे। मुझे उन पर दया आ गई, उनके हिचकोले खाते सूखे हुए कँधों को बाहों में घेर कर मैंने उन्हें पुचकारा था, "रोइए नहीं, जो हुआ ठीक ही हुआ ब़हते हुए आँसू मर्द को शोभा नहीं देते।" इस पर वह बिफ़र उठे, "कैसे कहता है ठीक हुआ दिमाग सनक गया है तेरा अ़ब तक क्या ठीक हुआ है मेरे साथ स़ब कुछ बुरा ही हुआ है अच्छा होने की उम्मीद भी नहीं करता म़र जाना चाहता हूँ मैं।" उनकी जीभ नशे में टेढ़ी हो कर लटपटा रही थी। वे मरने की बात कहते थे, मुझे हैरानी हुई। टेबल पर लुढ़की बोतल बिल्कुल खाली थी। उसकी पेंदी के नीचे एक मुड़ा-तुडा काग़ज़ पंखे की मार से फड़फड़ा रहा था जिसे देखा तो पहले से अधिक हैरान रह गया। आत्मा सिकुड़ कर जैसे मुठ्ठी में समा गई। किसी डॉक्टर का 'प्रिसक्रिप्शन' था। पापा को 'लिवर सिरोसिस' हुआ है यह जान फफक कर रो पड़ा। डॉक्टर ने पापा को अंदमान बुलाया था। दुबारा चेकअप करना था। यकीनन पापा ऐसे दुर्गम स्थान पर अकेले जाने में असमर्थ थे। पर लड़की से दूर रहने की कल्पना मात्र से ही मेरा हृदय फट पड़ता था। उसको देखे बग़ैर एक दिन भी जीवित रहना नामुमकिन था।

अत: मैंने पापा को तख़्त पर धकेल दिया यह कहते हुए कि अब कुछ नहीं हो सकता। मुझे लगता था कि लड़की ऐसा जानकर खुश हो जाएगी, मेरा माथा चूम लेगी पर उसने मुझे बुरा भला कहा, स्वार्थी जंगली जानवर कह कर लताड़ा। अपनी नाजुक हथेलियों के मुक्के बनाकर तेज़ी से मेरी पीठ पर जमाए। वह होशियार थी यह मुझे पता न था। अगली दोपहर उसकी तबियत ख़राब थी उसे ज़बरदस्त कै हो रही थी। यह जान कर मुझे खुशी हुई। उसने स्कूल से लंबी छुटि्टयाँ ले ली थीं। फिर मुझे शक हुआ कहीं वह भी कुतिया की तरह। कुछ समय बाद मैंने उसे परचून की दुकान पर खड़े देखा एक अजनबी लडके के संग जो मुझसे भी अधिक चुस्त और सजीला था। "तुम्हारी तबियत तो बढ़िया दिखती है फिर मिलने क्यों नहीं आई।" मुझे उससे सट कर खड़े लड़के से ईर्ष्या हो रही थी। लड़की ने मेरा हाथ नोच लिया और फुसफुसाई, "अब ज़रूरत ही नहीं रही, कहीं और जगह जा कर मुँह मारो इडियट।" शैतान ने मुझको अपने जैसा समझ लिया था। वह वाकई में होशियार थी और बदचलन भी। मेरा दिल टूट गया। माँ को सदमा लगा उसने भी मेरे कँधों पर सिर रख कर रोना धोना बंद कर दिया। अब उसके ओंठों पर मुस्कुराहट खेलती थी। मुझे उससे नफ़रत हो आई, बुद्धू माँ खुदगर्ज़ और चालाक लगने लगी। मेरी हालत उस चोट खाए लाचार कीड़े के समान हो गई थी जो धरती पर उलट पड़ा तड़पता रहता है। उसकी देह में प्राण होते हैं किंतु चल नहीं सकता। दातों में विष तो होता है पर काट नहीं सकता। मैं चुपचाप कमरे में औंधा पड़ा लड़की के छोड़े गए रुमालों को सूँघता था। उनसे अभी भी उसकी पतली गर्दन से चिपके विदेशी 'डिओडरेंट' और पसीने की मिलीजुली बासी गंध आती थी। उसको जी भर कर भद्दी गालियाँ दे कर कोसता था पर आत्मा को चैन न मिलता था। बोतलों मे छूट गई बची-खुची शराब सटक लेता था पर सुकून न आता था।

पापा मेरी पीठ पर हाथ फेरते, "तेरी बदसूरत माँ, वह सुंदर होती तो जीने की प्रेरणा मिल जाती पर भगवान ने उसको बना कर भूल कर दी, अब काहे का जीना बेटा, यह जन्म तो बर्बाद ही हो गया, तू तो सब समझता है न।" मैंने ग़ौर किया पापा के हाथों की खाल उधड़ रही थी ऐसा लगा वह छूट कर मेरे शरीर से चिपक जाएगी। मैं डर गया। रात के वक्त उनका दंत विहीन चेहरा ख़ौफ़नाक लग रहा था। मुँह से निकलती 'फक फक' की ध्वनि जो सड़ गए दातों के छिद्रों को भेद कर पैदा होती थी बेहद डरावनी थी। ऐसा लगता जैसे कोई विषधर धरती पर पड़ा फुफकार रहा हो। हड्डियों के पिंजरे पर सूजा हुआ पेट, मरुभूमि पर रखे घड़े के समान दिखता था। किसी अनहोनी की आशंका थी। वे धीमे-धीमे हँस रहे थे। मैंने उनका हाथ पकड़ वापस तख़्त पर धकेल दिया। उस रात मेघ गरजे थे बिजली भी कड़की थी। एक भयानक चीत्कार जो कर्णभेदी मेघ गर्जन के नीचे दब गई थी। उनका सूखा रंगविहीन चेहरा दीवार के सहारे टिका हुआ था। एक तपित अघोरी का स्वैच्छिक अंत। माँ सिर पटक कर रोई नीली आँखों वाला बच्चा भी रोया। पर मैं चुपचाप खड़ा पापा की जूठी शराब गटकता रहा। लड़की की याद मुझे पागल बना रही थी। स्वार्थ की सीमा नहीं होती। मैंने माँ से कह दिया, "सब कुछ तुम्हारे कारण हुआ तुम न होतीं तो वे मरते नहीं।" वह ठिठकी-सी मुझको ताक़ती रह गई। उसके हृदय के ज़ख्म अधिक गहरे हो गए लगते थे क्यों कि नीली आँखों वाले बच्चे को माँ पीट रही थी। वह चीख रही थी, "मैं नहीं रखूँगी इसको ले जाकर फेंक दो कहीं गला दबा दो नामुराद का औ़र तुम भी निकलो यहाँ से।" मैं हँसते हुए तेज़ी से बाहर निकल गया इस अभिमान में कि वह मुझको वापस बुलाने के लिए आवाज़ देगी। किंतु वह चुप रही।

पर दुर्भाग्यवश इन चार दिनों में मेरा भेष बिगड़ चुका है। लोग मज़ाक बनाते हैं। बूढ़ा होता मरियल जानवर-सा दिखने लगा हूँ। ज़ख्मी हो गए टखनों में रह-रह कर दर्द उठता है। लड़की की याद पीछा नहीं छोड़ती। मैं वापस घर जा रहा हूँ शायद यही विधाता को मंजू़र है। ऐसा आभास होता है पापा की खाल उग आई है मेरी देह पर। तख़्त पर बैठ मैं हौले से मुस्कुरा दिया हूँ।

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२४ अप्रैल २००५

 
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