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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से
संजीव की कहानी- ' ज्वार'


माँ बताती थीं कि हम फरीदपुर के सोनारदीघी गाँव से आए हैं, जो अब पाकिस्तान है। सन 71 में बांग्लादेश बन जाने के बाद भी वे इसे पाकिस्तान ही कहती रहीं। उस पार से आए कई बंगाली ''ओ पार बांगला, ए पार बांगला'' (उस पार का बंगाल, इस पार का बंगाल) कह कर दोनों को जोड़े रहते, माँ ही ऐसा न कर सकीं। जाने कौन-सी ग्रंथि थी! ऐसा भी नहीं कि ''उस पार'' के लिए उन्होंने अपने खिड़की-दरवाजे पूरी तरह से बंद कर लिए थे। ''इस पार'' आ जाने के बाद भी काफ़ी दिनों तक उनकी जड़ें तड़पती रहीं वहाँ के खाद-पानी के लिए - वे लहलहाते धान के खेत, नारियल के लंबे-ऊँचे पेड़ आम-जामुन के स्वाद चौड़ी-चौड़ी हिलकोरें लेती नदियाँ, नदियों के पालने में झूलती नावें, रात में नावों से उड़-उड़ कर आते भटियाली गीत -
मॅन माझी तोर बइठाले रे
आमी आर बाइते पारलॉम ना
बाइते-बाइते जीवॅन गेलो
कूलेर देखा पाइलाम ना।
(हे मन के माझी, अपनी डांड़ सँभालो, मुझसे अब और नहीं खेया जाता। खेते-खेते जीवन बीता, लेकिन कहीं किनारा नहीं दिखा)
छुलक-छुलक पानी की आवाज़ मानो ताल देती और गीत की टेर दिगंत तक फैलती जाती!

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