माँ अक्सर उन ''टोंगा'' (मचानों) का ज़िक्र करती,
जिन पर पानी से बचने के लिए पूरा परिवार बैठा होता। आम जामुन के साथ-साथ कभी-कभी
''सिलेट करवे'' के कमला नींबू की याद करतीं जिनके सामने दार्जिलिंग और नागपुर के
संतरे उन्हें फीके लगते। मछलियाँ तो मछलियाँ, कच्चू डाँटा (अरबी की डंठल), मोचाई
(केले के फूल), ओल (सूरन) की ऐसी उमदा सब्ज़ी बनातीं कि हमें पूछना पड़ता, ''माँ
तुमने इतनी बढ़िया तरकारी बनाना कहाँ से सीखा?''
''वहीं से, वहाँ की औरतों के बारे में कहावत है कि जूते का तलवा भी रांध दें तो
खाने वाले उँगलियाँ चाटते रह जाते।''
''सारा कुछ अच्छा ही अच्छा था तो आप लोग चले क्यों वहाँ से ?'' हम पूछते। माँ हर
बार इस प्रश्न पर मौन साध लेतीं -
मैं कभी इसके पहले सोनारदीघी आई नहीं लेकिन माँ ने इतनी बार इन चीज़ों का ज़िक्र
किया था कि मन के किसी अंत:पुर में एक सोनारदीघी बस गया है जहाँ सुविधानुसार मैं
कभी नारियल, सुपारी के पेड़ों को एक ओर कर देती कभी दूसरी ओर। कभी नदी को बगल में
ले आती, कभी दूर कर देती। कभी सारा परिवेश ही कच्चू के बड़े-बड़े पत्तों से भर
जाता, और कभी आम-जामुन के पेड़ों से। आज सोनारदीघी आते हुए मेरे कल्पना-लोक में
बार-बार खलल पड़ रहा है। नदी भी है, पेड़-पल्लव भी हैं, मगर कुछ अलग-से। लुंगियाँ
पहने पुरुष, धोती एक भी नहीं। अलबत्ता औरतें साड़ी में ही हैं। वह स्कूल जो अभी भी
है, मगर पक्का बन गया है - माँ ने यहीं ककहरा सीखा होगा। दूसरा स्कूल भी तो हो सकता
है? ज़्यादा टोक-टाक ठीक नहीं।
सन सैंतालीस में पार्टीशन के समय सिर्फ़ माँ, नानी
और नाना ही बॉर्डर पार कर पाए थे। दंगाइयों ने मँझली मौसी का अपहरण कर लिया था, एक
मामा मार डाले गए थे, बाकी छोटी मौसी और बड़के मामा वगैरह जैसे-तैसे जान बचा कर लौट
गए थे सोनारदीघी। स्थिति सामान्य होने पर वे मिलने आए। तब तक हम बर्द्धमान में बस
गए थे। मेरा जन्म बांग्लादेश बन जाने के बाद हुआ था। पाँच साल की हुई तभी अणिमा दी
को देखा था। छोटकी मौसी अपनी इस सात साल की बेटी को लेकर अपने परिवार से मिलने आई
थीं। आज अणिमा दी को छोड़कर उस परिवार में कोई नहीं बचा। वे अपनी ससुराल से वापस
सोनारदीघी आ गई थीं। पत्रों से इतना भर ही मालूम हुआ था। ये भी दस साल पहले की
बातें। अब तो सालों से पत्रों का सिलसिला भी टूटा हुआ है।
क्या पता, कितने हिंदू बचे हैं यहाँ। सुना था, बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के बाद बहुत
से मंदिर तोड़ डाले गए थे। अभी तक इस रास्ते में एक भी मंदिर नहीं मिला। खालिदा
ज़िया के शासनकाल में मौलवाद फिर से लौट आया है। कैसे रहती होंगी अणिमा दी?
क्या खूब विडंबना है? हमें भी यहाँ पश्चिम बंगाल में ''ईस्ट बंगाल'' का माना जाता
है - ''बांगाल'' मोहन बागान और ईस्ट बंगाल की फुटबाल प्रतियोगिता में ''घोटी-बॉटी''
(कलश-कटोरे) या ''ईस्ट-वेस्ट'' का फ़र्क साफ़ दिखाई देता है। लोग हमारी जाति तक पर
शक करते हैं। बेचारी अणिमा दी अपनी ही जन्म-भूमि, अपने ही वतन में विजातियों,
विधर्मियों के बीच निर्वासन भोगने को अभिशप्त हैं। हम इत्ता-सा बर्दाश्त नहीं कर
पाते, ''बांगाल'' कहते ही तिलमिला उठते हैं। कैसे सहती होंगी दीदी इसे आठों पहर?''
मैं एक मुहाज़िब ज़ैनुल को जानती हूँ, उसका बाप
बिहार से बांग्लादेश गया था, जो तब पूर्वी पाकिस्तान हुआ करता था। मुक्ति संग्राम
के बाद फिर उसे भाग कर पश्चिमी पाकिस्तान जाना पड़ा। उनकी वफ़ादारी पर भारत में भी
शक किया गया, बांग्लादेश में भी और पाकिस्तान में भी! उसने धर्म को एक मुकम्मिल और
भरोसेमंद पहचान एवं सुरक्षा कवच समझा, पर ऐसा हो नहीं पाया। इंसानी मसले सियासत और
मज़हब वाले तय करते हैं, वही तय करते हैं हमारी तक़दीरें हमसे पूछा तक नहीं जाता।
इथियोपिया, सोमालिया, तुर्की, मध्य एशिया, कैरेबियन कंट्रीज़- कहाँ नहीं! यहाँ भी
तो वही! समाजशास्त्री कहेंगे, सभ्यताओं और संस्कृतियों का यह एक सामान्य-सा
अंत:प्रवाह है। मगर आबादियों के इस विस्थापन में हुई बर्बादियों की दास्तान कौन
सुनना चाहेगा? एक तार जब टूटता है तो कितना कुछ टूट और छूट जाता है! जुड़ता क्या है
गाँठ पर पनपा जीवन का नया अध्याय! ओह! इस मनहूस ज़ैनुल की याद भी अभी ही आनी थी!
मेरे साथ का पुलिस का जवान सुहेल साइकिल पर चल रहा था और मैं रिक्शे पर थी। गाँव
में प्रवेश करते ही एक चाले (झोंपड़ी) में चाय की दुकान पर कुछ लोग अड्डा जमाए हुए
थे। मैंने पूछा, ''दा, एई ग्रामे नीहार सिंघॅ थाहेन कुथाय?'' (भाई, इस गाँव में
नीहार सिंह कहाँ रहते हैं?)
जवाब में कई सवालिया आँखें मुझ पर उठ गईं। मुझसे
क्या भूल हुई? अपने तईं तो मैंने पूरी सावधानी बरत रखी थी। जीन्स छोड़ कर साड़ी पहन
रखी थी मैंने, भाषा भी न न, भूल हुई ''एई'' की जगह ''हेई'' कहना चाहिए था। मैं कट
कर रह गई। पर अब तो जो होना था, हो चुका।
अड्डे वालों में आपस में कानापूसी हुई, फिर एक साँवला-सा प्रौढ़ बोला, ''की नाम
कोइलेन, नीहार सींघॅ?'' (क्या नाम बोलीं, ''नीहार सिंह?)
''आज्ञें हैं।"
(जी हाँ।)
''नीहार सिंघा बोइल्ला काऊ रे तो जानी ना।''
(नीहार नाम के किसी आदमी को तो जानता नहीं।)
''सिंघॅ सोब पलाई गेछे।'' (सारे सिंह भाग गए हैं।) एक सम्मिलित ठहाके का श्लेष मुझे
तेज़ाब-सा भिगो गया।
''आपनार बाड़ी कुथाय?'' (आपका घर कहाँ है?)
चुगली खाती मेरी भाषा विश्वसनीय नहीं थी, सो अब
मुझे आंचलिक भाषा का दामन छोड़ कर सीधे मानक बांग्ला पर उतरना पड़ा। मैंने बांग्ला
में बताया, ''मैं बर्द्धमान, पश्चिम बंगाल से आई हूँ। बँटवारे के समय यहीं से गए थे
हमारे पूर्वज। कभी इस गाँव में एक उज्ज्वल सिंह हुआ करते थे। मैं उन्हीं की नातिन
हूँ। नीहार सिंह मेरे मौसेरे बहनोई हुए और अणिमा दी मौसेरी बहन। इधर आई थी तो सोचा
अपना पुश्तैनी घर देख लूँ और परिवार के लोगों से मिलती चलूँ।
अब गाँव के कुछ और लोग भी जुटने लगे थे। वे आपस में बतिया कर मुझे घूर रहे थे। उनकी
नज़रों में मैं संदिग्ध थी या निषिद्ध।
उस प्रौढ़ ने एक किशोर को पुकारा, ''ताहिर! ज़रा इन्हें सलाहुद्दीन शेख के घर
पहुँचा आओ तो!
सलाहुद्दीन शेख! यह क्या बात हुई। मुझे अपनी पसलियों में एक मनहूस किस्म के खौफ़ की
चुभन महसूस हुई।
कच्ची सड़क पर एक मध्ययुगीन बैलगाड़ी चली आ रही
थी। बारिश से बचने के लिए उस पर बाँस की चटाई का चंदोवा तना था। कुछ लड़के क्रिकेट
खेल रहे थे। दूर-दूर पर वही पुआल के छप्पर वाले घर, कहीं-कहीं दो मंज़िले भी और टीन
की छत भी। जहाँ-तहाँ केले के स्तंभ थे, कहीं-कहीं बंसवारियाँ भी। सड़क के दोनों ओर
नारियल के पेड़ थे, कुछ साबुत, कुछ टूटे हुए या ठूँठ। शायद बार-बार की आने वाली
झड़-झंझा (तूफ़ान) का प्रकोप था। खेतों में इस मौसम में उपजने वाली अन्न की बालियाँ
लहरा रही थीं, कहीं-कहीं झींगा (तरोई) और दूसरी सब्ज़ियाँ भी। थाने का सिपाही अपनी
साइकिल घसीटते हुए ताहिर से बात कर रहा था। भाषा कहीं-कहीं अबूझ हो जाती। इतना भर
पता चला कि वह यहाँ मजूरी करने आया है। आज काम नहीं मिला, सो बेकार है। पता नहीं,
कब तक काम मिलेगा। माँ-बाप कौन थे, कहाँ का मूल निवासी है, उसे कुछ पता नहीं।
मुझे ढाका और दूसरे शहरों के हज़ारों लावारिस
बच्चों के बारे में बताया गया था कि उनमें से अधिसंख्य वे बच्चे थे जो बांग्लादेश
युद्ध के दौरान बाहरी फौजियों के बलात्कार से जन्मे थे। उन अभागों को किसी ने नहीं
अपनाया, अपने ही ढंग से वे जैसे-तैसे पले-बढ़े, जवान हुए। फिर उनके बच्चे हुए।
लावारिसों की दूसरी खेप। भयंकर ग़रीबी, ऊपर से महँगाई की मार। दिल्ली, मुंबई, दुबई
और लंदन तक फैल गई यह अमर बेलि।
सिपाही ने मेरी ओर इशारा कर ताहिर से कुछ कहा। ताहिर झेंपते हुए मेरे साथ-साथ चलने
लगा, ''मुझको भी साथ ले चलिए न दीदी, सभी तरह के काम कर सकता हूँ।''
''लेकिन मैं भला कैसे लिवा ले जा सकती हूँ तुम्हें?''
''क्यों सलाहुद्दीन के लड़कों को ले जाने आई हैं। मैं तो उनसे भी ग़रीब हूँ।
उनके तो माँ-बाप भी हैं, ज़मीन भी है, नाव भी, मेरा तो कुछ भी नहीं।''
मैं अवाक रह गई, ''तुम्हें किसने बताया कि मैं सलाहुद्दीन के या किसी और के बच्चों
को ले जाने आई हूँ। मैं तो उन्हें जानती भी नहीं। मैं तो नीहार सिंह का पता करने जा
रही हूँ, जो मेरे मौसेरे बहनोई हैं।''
''ओह!'' ताहिर निराश हो गया, फिर बोला, ''लेकिन मैं यहाँ छह महीने से हूँ, नीहार
सिंह या किसी हिंदू परिवार का नाम नहीं सुना। ख़ैर, देखिए, पूछिए शायद पता लग ही
जाय। बस्ती तो यही है।
मैं एक-एक घर को देखती हूँ, ये घर होगा, नहीं वो,
नहीं, ताहिर तो आगे बढ़ गया, शायद आगे। माँ किसी नदी का ज़िक्र करती थीं, जिसका
पानी, ज्वार के समय मचान के नीचे तक फैल जाता। न अभी तक कोई मचान मिला, न नदी की
झलक। एक घर के पास ताहिर आकर रुक गया, सिपाही ने साइकिल खड़ी कर दी, ''यही है।''
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