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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से
सूरज प्रकाश की कहानी- 'फ़र्क'


कुंदन आज बहुत खुश है।
आज का दिन उसे मनमाफ़िक तरीके से मनाने के लिए मिला है। खूब घुमाएगा बच्चों को। पार्क, सिनेमा, चिड़ियाघर। किसी अच्छे होटल में खाना खिलाएगा। आज उसे मारुति वैन चलाते हुए अजब-सा रोमाँच हो रहा है।

रोज यही वैन चलाता है वह, पर रोज़ के चलाने और आज के चलाने में फ़र्क महसूस हो रहा है उसे। रोज़ वह ड्राइवर होता है। हर वक्त सतर्क, सहमा हुआ-सा। बैक व्यू मिरर पर एक आँख रखे। पता नहीं सेठजी कब क्या कह दें, पूछ लें। लेकिन आज के दिन तो वह मालिक बना बैठा है। सेठ जी ने खुद उसे दिन भर के लिए गाड़ी दी है।
"जाओ कुंदन। एक बार तुम कह रहे थे न, कभी बच्चों को घुमाने के लिए गाड़ी चाहिए। ले जाओ। बच्चों को घुमा-फिरा लाओ।" दो सौ रूपये भी दिए हैं उसे।

सेठ कितने अच्छे हैं। आज बेशक एक दिन के लिए सही, उस ज़िंदगी को जी कर देखेगा, जो उसका सपना थी। उसके भीतर का सहमा-सा, हर वक्त बुझा-बुझा रहने वाला मामूली वर्दीकैप धारी ड्राइवर न जाने कहाँ फुर्र से उड़ गया है। आज वह सफारी सूट पहने बैठा है। उसका मन गुनगुनाने को हो रहा है। स्टीरियो चला दिया है उसने। कोई बहुत पुराना गाना। उसके स्कूल के दिनों बहुत बजने वाला। वह मुस्कुराया। डैश बोर्ड पर लगी घड़ी में वक्त देखा। दस बजने को हैं। अब तक सब तैयार हो चुके होंगे, उसने सोचा।

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