लेकिन आप इन सब बातों में मत पड़िए। चलते रहिए,
चढ़ते रहिए बस। दम फूलने लगा ना? घबराइए मत। अक्सर चलते-चलते हाँफने लगना जीवित
होने का स्वयंसिद्ध प्रमाण है। अन्यथा लोग तो ऐसे भी हैं, जो चुपचाप बिना किसी
आवाज़ के चले जा रहे हैं। नि:शब्द। साले मुर्दे कहीं के। किंतु आपको बधाई। क्यों कि
आप हाँफ रहे हैं। क्यों कि आप जिंद़ा हैं।
चढ़ते-चढ़ते, लीजिए हम उस फ्लोर पर आ गए हैं।
जिसके किसी फ्लैट की किसी खिड़की से रोशनी की कुछ बदहवास लकीरें बेवजह बाहर
ताँक-झाँक कर रही थी। दम ले लीजिए ज़रा। फिर देखते हैं, कि वो कौन-सा फ्लैट है?
फ्लैट नंबर 119,
दरवाज़े पर धातु की महँगी-सी नाम-पटि्टका टँगी है, चमचमाती हुई। पटि्टका पर लिखा
है-अनुरिक्ता दासगुप्ता। आपको नहीं लगता कि खाली 'अनुरिक्ता' होता तो ज़्यादा अच्छा
होता? बेकार में 'दासगुप्ता' को साथ में लटकाना ज़रूरी है क्या? कई बार घरवालों की
पहचान अपनी पहचान के साथ ढोना मजबूरी हो जाती है हमारी। क्या करें- अनुरिक्ता, जो
कि तीसेक बरस की एक नौकरीपेशा लड़की है और इस महानगर में अकेली रहती है। आम
लड़कियों ही की तरह जो सुंदर है, स्मार्ट है, आधुनिक है, और आकर्षक है भी। पर आम
लड़कियों से भिन्न-जो बोल्ड भी है। अपने जीवन को वो अपनी मर्ज़ी से, अपनी शर्तों
पर, बगै़र किसी की परवाह किए जीती है और भरपूर जीती है।
चलो, दरवाज़ा खटखटाते हैं। ठक-ठक-ठक च़िर्ररररर
अरे! ये क्या? ये तो ढेलते ही खुल गया। चलो, अच्छा हुआ। बेकार वो परेशान होती,
दरवाज़ा खोलने के लिए उठकर आती। क्या पता किस हाल में हो? लड़कियों के साथ ये भी तो
चक्कर है। बाहर जाती हैं तो अतिरिक्त बन-सँवर कर और घर में रहती हैं तो बेहद
लापरवाह।
मद्धिम रोशनी से भरे गलियारे के बाद एक जगमगाता
हॉल है, आइए इधर बैठते हैं। छोटी-छोटी मोढियों जैसी कुशन लगी चार सुरुचिपूर्ण
कुर्सियाँ रखी हैं, बीच में एक ग्लास टॉप वाली सेंटर टेबल है। जिस पर कुछ अंग्रेज़ी
के अख़बार और एक फैशन एंड लाइफ़ स्टाइल वाली मैग्ज़ीन खुली पड़ी है। जिसके चिकने
पन्नों पर चिकनी-चिकनी तस्वीरें छपी हैं। एक ऐश-ट्रे भी पड़ी है, जिसमें पड़े
सिगरेट के कुछ अधजले टौंटे अपने जीवन की निरर्थकता का रोना आलाप रहे हैं। सामने एक
टीवी भी रखा है, रंगीन है शायद। वैसे भी आजकल ब्लैक एंड व्हाइट चीज़ें पसंद किसे
आती हैं। सबको सब कुछ 'रंगीन' चाहिए आजकल। दायें हाथ की तरफ़ वाली दीवार पर एक
बड़ी-सी पेंटिंग टँगी हुई है, जिसकी अनावृत देह ऐसी मादक हैं कि बरबस ही देखने वाले
के शरीर में कुछ होने लगता है। पता नहीं किसी ख़ास उद्देश्य से लगाई गई है या यों
ही। लड़कियाँ भी कभी अपने कमरे में ऐसी पेंटिंग्स लगाती हैं? हर आने वाला कुछ देर
रुककर इसको ज़रूर देखता है। आप भी रुक गए ना? छोड़िए भी. . .
अब इधर देखिए हाई-फाई ऑडियो सिस्टम रखा हुआ है। ऑन
करें? चलो, करते हैं। किसी ग़ज़ल की सीडी लगी है इसमें। ग़ज़ल सुनना भी फैशन-सा हो
गया है आजकल। जिसको देखो वो जगजीत सिंह और मेंहदी हसन का नाम लेकर ऐसी लंबी-लंबी
हाँकता है -मानो सीधा उनसे मिल कर ही आ रहा हो। हल्का संगीत तैरने लगा है माहौल
में, खुशबू की तरह। क्या घर में कोई नहीं है? शायद ना हो। शायद कहीं बाहर गया होगा।
माफ़ करें, गई होगी।
तो चलो- मौके का फ़ायदा उठाएँ। घर का एक राऊंड ले
लेते हैं फटाफट। हॉल के अलावा एक छोटा-सा किचन है जिसमें एक छोटा रेफ्रिजरेटर, एक
गैस चूल्हा और थोड़ा बहुत खाने पीने का सामान पड़ा है।
हॉल में ही खुलता हुआ एक कमरा और भी है। यह कमरा
बैडरूम है। बिस्तर पर एक जोड़ा अंत:वस्त्र बेतरतीब-से पड़े हुए हैं। शायद पहने हुए
थे, उतार के जल्दी में फेंके हुए जान पड़ते हैं। कढ़ाईदार अंत:वस्त्र काफ़ी महँगे,
देख रहे हैं आप? कभी इस तरह के अंत:वस्त्र पहने देखा है आपने किसी लड़की को? फैशन
टीवी नहीं देखते? कैसे बौडम हैं आप भी? आप सोच रहे होंगे कि अंदर के वस्त्रों पर
इतना पैसा खर्च करने का भला क्या औचित्य? शायद हो। 'पैकेजिंग' का ज़माना है साहब।
जो बाहर फिट वो अंदर हिट।
बिस्तर के सिरहाने आसमानी रंग की एक मखमली नाइटी
भी इसी तरह पड़ी है। जैसे कपड़े बदलते समय ज़मीन पर गिर गई हो घिर्री बनाकर और
लापरवाही से उठाकर पटक दी गई हो बिस्तर पर। निर्वस्त्र बदन पर मखमली नाइटी बड़ी
मादक लगती है। जानते हैं आप? नहीं ना? बिस्तर पर गुलाबी रंग की चादर बिछी है।
सलवटें अभी भी जिस पर रात के सफ़र का ज़िक्र करने में व्यस्त हैं। दो हल्के आसमानी
कलर के तकिए भी हैं, जो काफ़ी दूर-दूर पड़े हैं। दूर-दूर क्यों? इसकी भी एक कहानी
है। अनुमान लगाएँ कि क्या हो सकता है? कुछ भी हो सकता है साहब। क्या सोचने लगे आप?
यही ना कि एक अकेली लड़की के कमरे में दो तकिए क्यों? अरे भई! आप तो समझते नहीं
हैं। आजकल एक्स्ट्रा तकिए का फैशन है। बग़ैर उसके नींद कहाँ आती है किसी को?
हल्के पीले रंग के पर्दे से ढँकी यहाँ एक खिड़की
भी है। जिससे आसमान साफ़ दिखाई देता है और धरती धुँधली। यही वह खिड़की है जिससे
छनकर आ रही रोशनी आपको सड़क पर से देखने पर जुगनू जैसी जान पड़ी रही थी। अरे! ये
क्या? किसी की तस्वीरों के टुकड़े पड़े हैं ज़मीन पर। किसकी तस्वीरें हैं? शायद
किसी लड़के की। या शायद किसी लड़की की। नहीं, एक लड़का और एक लड़की की हैं। फाड़ी
किसने? शायद लड़के ने, या शायद लड़की ने। देखो, उधर लैंपशेड के पास रखी एश-ट्रे पर
एक बुझी हुई आधी सिगरेट भी रखी है। लगता है कोई मर्द था यहाँ। हाँ, लेकिन क्या
लड़कियाँ सिगरेट नहीं पी सकती? क्यों नहीं पी सकती? पर आपको नहीं लगता एक अकेली
जवान लड़की के बेडरूम में एक मर्द की कल्पना करना ज़्यादा आनंदित करने वाला होगा।
तो क्यों न मान लें कि कोई मर्द ही था यहाँ? फ़ोटो के टुकड़ों में भी तो एक मर्द का
चेहरा नज़र आ रहा है। है ना?
आओ अब कल्पना करें, यहाँ क्या हुआ होगा? कोशिश
करने में क्या जाता है? नहीं? मान लो यहाँ रहने वाली लड़की यानि अनुरिक्ता का किसी
लड़के से लफड़ा चल रहा है। मान लो उसका नाम विवेक है। विवेक अक्सर इस लड़की के यहाँ
आता-जाता है, खाता-पीता है, रहता-सोता है। कहने का मतलब है कि उनके बीच में इंटिमेट
संबंध हैं। पिछले कुछ महीनों से ऐसा ही चल रहा है। कई बार दोनों वीकेंड पर साथ-साथ
घूमने भी गए हैं। साथ-साथ इतना वक्त गुज़ारते हैं, तो साथ में फ़ोटो होना भी लाज़मी
है।
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