कल रात जब उसे सेठजी ने गा़ड़ी ले जाने के लिए कहा
था, तभी उसने कुंती से कह दिया था, दस बजे तक तैयार रखना बच्चों को। सुबह गाड़ी
लेने जाते समय फिर से ताक़ीद कर गया था। एकदम अपटूडेट। सेठ के बच्चों के माफ़िक।
अभी पाँच मिनट में वह घर के दरवाज़े पर होगा।
गाड़ी के गली में पहुँचते ही, वहाँ हर वक्त खेलने
वाले बच्चों ने गाड़ी को घेर लिया और ज़ोर-ज़ोर से हो-हो करने लगे। दो-एक खिड़कियों
में से उत्सुक चेहरे भी टँग गए। आज वह पहली बार गाड़ी घर पर लाया है। शोर सुनकर
गप्पू, संजय और पिंकी बाहर निकल आए। वे अभी भी तैयार हो रहे हैं। गप्पू ने स्कूल
यूनिफार्म पहनी हुई है और मुचड़ी हुई टाई उसके हाथ में है। संजय ने अपना इकलौता
सफ़ारी सूट डाटा हुआ है और पैरों में हैं हवाई चप्पलें। तीनों उसे देखते ही
चिल्लाए,
"मम्मी, मम्मी, पापा आ गए, पापा आ गए। अहा, कितनी अच्छी है, पापा की मारुति।" गप्पू
टाई हाथ में लिए साधा वैन तक जा पहुँचा और बच्चों को धकियाने लगा,
"हटो, हटो, हमारी कार है यह। पापा आ गए, पापा देखो, संजय मुझे पहले कंघी नहीं करने
दे रहा है।" लगा, जैसे वे पहले से ही लड़ रहे थे। पिंकी बहुत ही शोख रंग की फ्राक
पहने हुए है। उसे कुंती पर गुस्सा आया।
"इस औरत को कभी अक्कल नहीं आएगी। बच्चों को ढंग से तैयार भी नहीं कर सकती।"
बच्चों को एक किनारे ठेल कर वह घर के भीतर वाले
हिस्से में आया, जहाँ रसोई में एक दीवार की आड़ में बने गुसलखाने में कुंती की खटपट
सुनाई दे रही है। वह वहीं से चिल्लाया,
"यह क्या तमाशा है, न खुद तैयार हुई हो, न बच्चों को तैयार किया है। अब मैं क्या
सारा दिन दरवाज़े पर ही टँगा रहूँगा?" वह वहीं से बोली,
"क्या करती मैं। पानी ही नहीं आया। अभी तक बैठी थी, पानी के इंतज़ार में। नहीं आया
तो राजो की माँ से माँग कर लाई हूँ दो बाल्टी।" यह कहते-कहते कुंती केवल ब्रेसरी और
पेटीकोट पहने, हाथ में गीला तौलिया लिए सामने आ गई। हालाँकि उसका गुसलखाने से बाहर
आने का यह रोज़ का तरीका है, लेकिन कुंदन ने कभी इस तरफ़ ध्यान ही न दिया था। आज
उसे इस हालत में देख कर कुंदन के सौंदर्य बोध को बेतरह ठेस लगी। वह फिर फट पड़ा,
"यह क्या बेहूदगी है, ज़रा भी शऊर नहीं है तुम्हें?" कुंती ने उसकी बात का कोई जवाब
नहीं दिया और पास ही खड़ी गीले बात तौलिये से फटकारने लगी। कुंदन ने फिर चोर नज़रों
से बीवी की तरफ़ देखा, जो बालों को सुखाने के बाद दोनों हाथ आगे किए हुए ब्लाऊज़
पहन रही थी। उसने मुँह बिचकाया और बाहर वाले कमरे में आ गया।
कमरें में आकर उसे समझ में नहीं आया, क्या करे।
थोड़ी देर अजनबियों की तरह जेब में हाथ डाले खड़ा रहा। जैसे वह किसी और के घर में
मजबूरी में खड़ा हो। तभी गप्पू उससे लिपटता हुआ बोला, "पापा, मैं तैयार हो गया।
गाड़ी में बैठ जाऊँ?" कुंदन ने उसकी तरफ़ देख लिया। कहा कुछ नहीं। संजय और पिंकी
अभी भी बहस कर रहे हैं। कुंदन को लगा, उसका मूड़ उखड़ रहा है। वह आते समय यही मान
कर चल रहा था कि बच्चे बिल्कुल तैयार होंगे। साफ-सुथरे, करीने से कपड़े पहने और
यहाँ।
वह दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ। सिगरेट सुलगाई और
चाबियों का छल्ला घुमाते हुए गली का एक चक्कर लगाने की नीयत से चल पड़ा। गली के
बच्चे अभी भी वैन के आस-पास डटे हुए हैं।
जब कुंती बच्चों को लेकर वैन में सवार होने के लिए
आई, तो कुंदन को चारों कार्टून नज़र आए। गप्पू ने यूनिफार्म उतार दी है और
नेकर-बुश्शर्ट पहन लिए हैं। नेकर-बुश्शर्ट के रंगों का कोई मेल नहीं है। एक हरी, एक
लाल। पिंकी ने खूब कस कर बालों की चुटिया बनाई है। चेहरा एकदम खिंचा-खिंचा-सा लग
रहा है उसका। संजय सफारी में किसी कंपनी एक्सिक्यूटिव की तरह तना-तनाया खड़ा है,
लेकिन हवाई चप्पल उसकी सारी हेकड़ी निकाल रहे हैं। उसने एक नज़र कुंती पर डाली।
शायद उसने अपनी सबसे भड़कीली साड़ी पहनी है। तेल चुपड़े बाल, माँग में ढेर सारा
सिंदूर और कहीं से भी मैच न करती लिपस्टिक। वह कुंती से फिर कोई कड़वी बात कहना
चाहता है, लेकिन कुछ कहे बिना ही उसने अपने चेहरे के भावों से मन की बात कह ही दी।
बच्चे वैन के दरवाज़े खुलने का बेसब्री से इंतज़ार
कर रहे हैं। तीनों बच्चे पीछे हुड खोलकर वहाँ बैठने के चक्कर में हैं और पिछले
दरवाजे पर खड़े एक-दूसरे को धकिया रहे हैं। गली के बच्चे अब भी थोबड़े लटकाए, मुँह
में गंदी उँगलियाँ ठूँसे इन्हें बड़ी ईर्ष्यालु निगाहों से देख रहे हैं। कुंदन
झल्लाया बच्चों पर, हटो परे, सब पिछली सीट पर बैठेंगे। हुड नहीं खुलेगा। बच्चों के
चेहरे उतर गए।
कुंदन उन्हें इस तरह पीछे हुड खोल कर बिठा तो देता, लेकिन बेमेल और गंदे कपड़े
देखते हुए उसकी हिम्मत नहीं हुई कि खुले हुड से सबको पता चले कि ये गाड़ी के मालिक
के नहीं ड्राइवर के बच्चे हैं। तीनों बच्चे लपक कर चढ़ गए। कुंती ने सलीके से साड़ी
का पल्लू सँभाला और बड़ी ठसक के साथ बगल वाली सीट पर आ विराजी।
वैन के चलते ही बच्चे धमाचौकड़ी करने लगे। कुंदन
ने अचानक ही ब्रेक लगाई। सभी चौंके, पता नहीं क्या हुआ। कुंदन ने कुंती की तरफ़ झुक
कर दरवाज़ा ठीक से बंद किया और गाड़ी गियर में डाली। कुंदन का मूड अभी भी ठिकाने
नहीं है। उसे लगातार इस बात की कोफ्त हो रही है कि उसने नाहक ही सेठ जी का अहसान
लिया। ये बच्चे इस लायक नहीं हैं कि गाड़ियों में घूम सकें। अब खुद सेठ की तरह
गाड़ी चलाने, बीवी-बचों को सेठ के बच्चों की तरह ऐश करवाने का उसका कत्तई मन नहीं
है।
कभी ज़िंदगी में उनका भी सपना था, बड़ा आदमी बनने
का। खूब सारी अच्छी-अच्छी चीज़ें ख़रीदने, अमीर आदमियों की तरह एकदम बढ़िया कपड़े
पहने होटलों में जाने का। एकदम लापरवाही का अंदाज लिए ज़िंदगी जीने का। शुरू-शुरू
में उसकी बहुत इच्छा हुआ करती थी कि उसकी बीवी बहुत ही खूबसूरत हो और बच्चे एकदम
फर्स्ट क्लास। तमीज़दार। फर्राटे से अंग्रेज़ी बोलने वाले। बचपन उसका बहुत अभावों
में बीता था। सुख-सुविधाएँ तो दूर, ज़रूरी चीज़ों तक से वंचित। और सपना भी उसका
कहाँ पूरा हो पाया था। आधी-अधूरी छोड़ी हुई पढ़ाई। दसियों तरह के धंधे। साधारण-सी
औरत से शादी और कहीं से भी विशिष्ट न बन सकने या लग सकने वाले बच्चे। चाह कर भी वह
उनको मनमाफ़िक ज़िंदगी नहीं दे पाया था। कुछ अरसे से इस सेठ की मारुति वैन चलाने का
काम मिल गया है। ''उस तरफ़ की दुनिया'' की हसरतें फिर ज़ोर मारने लगी थीं और उसने
सेठजी से कह दिया था, एक दिन के लिए गाड़ी देने के लिए।
उसके ख़यालों की श्रृंखला टूट गई। पिछली सीट से
उसके कंधे पर उचक आया गप्पू उससे कार स्टीरियो चलाने के लिए कह रहा है। वह फिर लौट
आया अपने ख़राब मूड में। नहीं चलाया उसने स्टीरियो। गप्पू ने फिर कहा, तो कुंती भी
बोली, ''चला दीजिए न''। कुंदन ने भरपूर नज़र से कुंती की तरफ़ देखा और एक झटके से
स्टीरियो ऑन कर दिया। बच्चे गाने की धुन के साथ-साथ उछलने लगे।
कुंदन ने फिर डपटा, "शांति से नहीं बैठ सकते क्या?" दरअसल इस समय वह कत्तई इस मूड
में नहीं है कि ज़रा-सा भी शोर हो। वह उन्हीं पुराने दिनों के ख़्वाबों में खोया
रहना चाहता है। लेकिन सब कुछ उसके खिलाफ़ चल रहा है। कुंती सब देख रही है। वह साफ़
महसूस कर रही है कि आज का कुंदन रोज़ वाला कुंदन नहीं है। बार-बार उसे और बच्चों को
ऐसे डपट रहा है जैसे उन्हें कभी इस रूप में देखा ही न हो। उसे क्या पता नहीं,
बच्चों के पास कैसे और कौन-से कपड़े हैं। य सोच-सोच कर अपना खून जला रहा है कि उसके
बच्चे सेठ के बच्चों जैसे क्यों नहीं हैं। कुंती अनमनी-सी सड़क की तरफ़ देखने लगी।
वैन जू के गेट पर रुकी। बच्चे अभी सहमे हुए हैं। वे कुंदन से आँखें चुरा रहे हैं।
उसने दरवाज़े खोले तो डरते-डरते उतरे। कुंदन को लगा, उससे कुछ ज़्यादती हो गई है।
गाड़ी पार्क करके उसने टिकट लिए और बच्चों को धौल-धप्पा करके दौड़ा दिया। बच्चे फिर
किलकारियाँ भरते पिंजरों की तरफ़ भागे।
कुंदन और कुंती धीरे-धीरे चलने लगे। कुंदन ने गॉगल्स पहन लिए और चाबियों का छल्ला
घुमाने लगा। दोनों में से कोई कुछ नहीं बोल रहा है। आज छुट्टी का दिन नहीं है। फिर
भी चिड़ियाघर में चहल-पहल है। बच्चे थक जाते हैं तो रुक कर इन दोनों का इंतज़ार
करने लगते हैं। उन्होंने जब बताया कि प्यास लगी है तो कुंदन ने सबको कोल्ड ड्रिंक्स
पिलवाए।
ज़ू दिखाने के बाद कुंदन उन्हें हैंगिंग गार्डेन
ले गया। वहाँ तेजी से रपटते हुए पिंकी गिरी और अपने घुटने, कोहनियाँ छिलवाई। फ्रॉक
ख़राब हुई सो अलग। बजाय बच्चे को सँभालने, पुचकारने के, कुंदन फिर बड़बड़ाने लगा,
"ढंग से चल भी नहीं सकते। जब देखो गंदे बच्चों की तरह कूदते-फाँदते रहेंगे।"
कुंती ने तुरंत पिंकी को सँभाला और कुंदन पर बरस पड़ी,
"अब ये तो नहीं कि बच्ची गिर गई है, उसे सँभालें, पुचकारें, बस तब से लट्ठ लेकर
पीछे पड़े हैं," उसने पिंकी को दुलारते हुए अपनी गोद में उठाया और उसकी चोटें
सहलाने लगी।
कुंदन पिंकी के नज़दीक ही था, जब वह गिरी, लेकिन
अपना सफ़ारी ख़राब होने के चक्कर में उसे नहीं उठाया उसने।
हैंगिंग गार्डन से चौपाटी आते समय सब एकदम चुप हैं। तीनों बच्चों को भूख लगी है।
सामने स्टाल भी है, लेकिन हिम्मत नहीं हुई कुछ माँगें। बस ललचाई निगाहों से वे
खाने-पीने का सामान देखते रहे। कुंदन आगे-आगे चलता रहा। बिना इस बात की परवाह किए
कि उन्हें कुछ दिलवा दे।
मछली घर देखते-देखते तीनों बच्चे भूख और थकान से
निढाल हो रहे थे। सुबह जो कुछ खाकर चले थे, तब से एक-एक कोल्ड ड्रिंक पिया है,
सबने। यहाँ भी कुंदन का ध्यान इस ओर कत्तई नहीं है कि बच्चों को कुछ दिलवा दे।
कुंती समझ नहीं पा रही थी, कुंदन ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है। कल तक तो भला-चंगा
था। कल रात कितना उत्साहित था, बच्चों को घुमाने के लिए। और आज सुबह से उसके और
बच्चों के पीछे पड़ा है। "कपड़े गंदे क्यों हैं?" "ढंग से तैयार क्यों नहीं हुए?"
"शऊर नहीं है, कुछ खाने का, जैसे कुछ देखा नहीं है, नदीदे कहीं के।" अरे तुमने
ज़िंदगी में कुछ दिखाया होता तो देखा होता। कभी इस तन को पहने हुए जोड़े के अलावा
दूसरा ढंग को जोड़ा नसीब नहीं हुआ, और कहता है, "ढंग के कपड़े क्यों नहीं पहने। मैं
ही जानती हूँ, जैसे-तैसे लाज रखे हुए हूँ। घर की गाड़ी खींच रही हूँ। माना, आज एक
दिन के लिए सेठ ने तुम्हें गाड़ी दे दी है, हमें घुमाने-फिराने के लिए पर इसका ये
मतलब तो नहीं कि तुम लाट साहब हो गए, गाड़ी चलाते-चलाते और हम फटीचर ही रह गए।
कुंती कुढ़े जा रही है, अब ड्राइवर के बच्चे सेठ के बच्चे तो नहीं बन सकते न, कि एक
बार में मान जाएँ। आख़िर बच्चे ही तो हैं। पहली बार घूमने निकले हैं। थोड़ा
बिगड़-बिफर गए तो क्या? बेकार ही आए, अगर पहले पता होता कि कुंदन यह हाल करेगा तो.
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