शैलजा में इतनी बुद्धि थी कि समझ सके कि प्रभात के
विचार इस विषय में इतने दृढ़ हैं कि तर्क उसी तरह लौट आएँगे जैसे दीवार से टकराकर
गेंद। उसने सोच लिया, कोई बात नहीं, थोड़ा आर्थिक कष्ट सही, संतान तो उत्कृष्ट
बनेगी। वह भी जी जान से घर-गृहस्थी, संतान में लगी रही। और एक समय आया कि तीनों
बच्चे जीवन में सही ढंग से स्थापित हो गए, लेकिन तब तक बहुत विलंब हो चुका था।
शैलजा का स्वास्थ्य भी ऐसा न था कि कोई नया काम कर सके, अब सच में अर्थाभाव न था।
पढ़ाने का नहीं, पर पढ़ने का खूब समय था। वह पत्र-पत्रिकाएँ पढ़कर ज्ञान बढ़ाती
रहती। एक समय आया जब उसे विश्वास हो गया कि उसके ज्ञान की परिधि इतनी बढ़ गई है कि
वह किसी भी विषय पर चर्चा कर सके। प्रभात अब वरिष्ठ अधिकारी थे। उनके पास समय न था
कि पत्नी के साथ बैठकर वार्तालाप करें, साथ में इसका तथ्य यह भी था कि वह उसे मात्र
गृहणी से अलग कुछ समझ नहीं पाते थे। जब समय ही न हो तो संयुक्त मिलना-जुलना कैसे
हो, अत: हारकर शैलजा ने महिला-मंडलियों में आना-जाना आरंभ कर दिया। बच्चों की
नौकरियाँ भी ऐसी थीं कि वह सब एक साथ कम और एक-एक करके ज़्यादा आते थे।
इस बार अकेला अजय आया हुआ था। प्रभात नाश्ता करके
अपने अध्ययन कक्ष में जा चुके थे। अजय नाश्ता करने बैठा। शैलजा ने आज, स्वयं उसकी
पसंद का नाश्ता बनाया था। नाश्ता करते हुए अजय से घर, परिवार तथा अन्य सामान्य
चर्चा होती रही। शैलजा आग्रह करके खिलाती रही।
अजय ने प्रशंसा की, "मम्मी, तुम्हारे जैसी कचौड़ियाँ कोई नहीं बना पाता है और यह
मूँग का हलवा। मन होता है खाते ही जाओ।"
"तो लो न बेटे, तुम्हारे पापा और मैं तो अब यह सब खा ही नहीं पाते हैं।"
इसी तरह की घरेलू चर्चाओं के मध्य नाश्ता संपन्न
होने लगा, तब शैलजा को आभास हुआ कि अजय कुछ जल्दी कर रहा है। "जल्दी क्या है अजय।
आराम से नाश्ता करो जाना तो कल है। अच्छा बताओ यह जो नया वित्त बजट।
वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था, कि अजय उठ खड़ा हुआ।
"मम्मी, ज़रा पापा से बात कर लूँ, फिर वह ऑफ़िस चले जाएँगे। उनसे कुछ सलाह लेनी
है।"
"बताओ तो क्या समस्या है शायद मैं भी कुछ बता सकूँ?"
अजय के चेहरे पर ढेर सारा प्यार बिख़र गया। बचपन जैसी मधुर मुस्कान और वैसी तृप्ति
जैसी बचपन में उसके हाथ के बने लड्डू खाने पर होती थी, के साथ वह बोला, "अरे मम्मी
छोड़ो वह विषय तुम्हारे समझने का नहीं है। तुम्हारे सिर में दर्द पैदा नहीं करना
चाहता क्यों कि 'लंच' में तुम्हारे हाथों का बना पुलाव खाना चाहता हूँ।"
अजय की ओर देखकर वह मुस्कराई अवश्य थी पर उसके
अंतरतम में एक भूचाल-सा था। मेरे पढ़े-लिखे होने की उपयोगिता क्या यहाँ तक थी और अब
भी है कि बच्चों का सुचारु ढंग से पालन पोषण करूँ, उन्हें स्वादिष्ट भोजन से तृप्त
करूँ और उन पर प्यार बरसाऊँ। पहले भी वही और अब भी वही। बस एक पढ़ी-लिखी स्त्री।
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