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अपनी बराबरी में विवाह करने के सिद्धांत को मानते हुए कैलाशनाथ ने पुत्री के लिए नौकरीपेशा वर का चयन किया था। विवाह के कुछ महीनों बाद शैलजा ने पति से कहा था, "अब मेरी शिक्षा का उपयोग हो सकता है। हम दोनों कमाएँगे तो कोई अर्थाभाव नहीं होगा।"
प्रभात ने कहा, "तुम्हारी शिक्षा इसलिए नहीं है।"
"तो किसलिए हैं?"
"वह अच्छे परिवार के लिए है।"

माँ से शैलजा कहा करती थी कि वह समाज के लिए, देश के लिए पढ़ रही है। प्रभात ने उसमें परिवार भी जोड़ दिया। प्रभात केंद्रीय सेवा में था अत: पहली नियुक्ति कलकत्ते में हो गई। इस समय वाद-विवाद को उचित न समझते हुए, विवाह में मिले सामान को लेकर शैलजा गृहस्थी चलाने में जुट गई। सीमित आय में गृहस्थी चलाना भी एक कला है, यह सोचते हुए जोड़-तोड़ बैठाने में व्यस्त हुई वह विवाहित जीवन के आनंद उठाने में मग्न रही। और देखते-देखते तीन बच्चों की माँ बन गई। उनका पालन, पोषण, पढ़ाई-लिखाई और साथ में गृहस्थी सँभालना कोई सरल काम न था। पाँच वह और नौकर। इतने लोगों की भोजन व्यवस्था, अतिथियों के स्वागत-सत्कार की व्यवस्था तथा अन्य गृहकार्यों के बाद शैलजा के पास बस इतना ही समय बचता था कि सहेजकर रखी पुस्तकों को सहलाकर नि:श्वास भर-भरकर अपनी आशा को पुनर्जीवन देते हुए स्वगत भाषण कर सके, क्या हुआ जो अभी अख़बार पढ़ने के अतिरिक्त पढ़ने-लिखने की दुनिया से कोई संपर्क नहीं है। एक समय आएगा जब इन कर्तव्यों से निवृत्त हो जाऊँगी।

बीच में एक बार अवसर आया था। बड़ा लड़का बारह वर्ष का था, फिर क्रम से छोटे थे। अवसर पड़ने पर सब अपना काम कर लेते थे। शैलजा की शैक्षिक योग्यता से परिचित हितैषी ने प्रस्ताव भेजा - हमारे कॉलेज में दर्शनशास्त्र की कोई व्याख्याता नहीं है, मिल भी नहीं रही, कृपया आ जाएँ। आपकी आयु तथा आपके पति की पद मर्यादा देखते हुए हम उपाध्यक्ष का पद भी देंगे।
शैलजा ने कहा, "मैं नौकरी कर लूँ तो मेरी शैक्षिक योग्यता काम आएगी और अर्थाभाव का काँटा भी निकल जाएगा।" प्रभात ने कठोर दृष्टि से उसकी ओर देखते हुए कहा, "मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे नौकरों के सहारे रहकर बड़े हों और रही अर्थाभाव की बात, तो अर्थाभाव का काँटा मुझे तो कहीं दिखता नहीं। तुम्हारी शिक्षा नौकरी के लिए नहीं है, वह इसलिए है कि बच्चों का सही पालन-पोषण हो और अर्थार्जन के लिए उसका तब उपयोग हो, जब वास्तविक अर्थार्जन करनेवाला न रहे।"

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