|  |  वह खूब मन लगाकर और मेहनत करके पढ़ती थी। कहती, 
"यह मेरी ही ज़रूरत नहीं, देश की, समाज की ज़रूरत है।" यह उसका अपना मत था। इसलिए 
वह पूरी तरह समर्पित थी। माँ कहती कुछ और भी सीखो, केवल पढ़ाई से काम नहीं चलता। 
शैलजा कहती, "सीखूँगी माँ, सब कुछ सीखूँगी। मैंने कब कहा कि पढ़ाई से सारे काम हो 
जाते हैं लेकिन माँ पढ़ाई को सबसे प्रमुख रखूँगी।"   माँ मुस्कराकर अपने काम में लग जाती और धीमे से, 
स्वयं से कहती, "यह पढ़ तो रही है, कुछ लड़कियाँ तो न पढ़ती हैं न और काम करती हैं। 
दो के ब्याह हो गए इसका भी हो जाएगा।"शैलजा पढ़ती गई और घर-गृहस्थी के काम भी सीखती रही।
 उसने माँ को कितनी ही बार कहते सुना था, "यह तो सबसे होशियार है पढ़ने में भी और घर 
के कामों में भी। जिस घर में जाएगी, उसे स्वर्ग बना देगी।" शैलजा सुनती-सोचती, 
"मेरे विषय में अब भी सोचा जाता है, तो विवाह के संदर्भ में ही यह क्यों नहीं सोचा 
जाता कि जहाँ भी काम अर्थात नौकरी करूँगी, वहीं मैं शीर्ष पर पहुँचूँगी। सदैव प्रथम 
रहती आई हूँ तब भी नहीं सोचा जाता।"
  जैसा उसकी अन्य बहनों के साथ हुआ था, वही शैलजा 
के साथ हुआ- बस कुछ बेहतर था कि अपनी धुन के कारण एम. ए. के बाद एम. एड. भी कर सकी 
थी।  |