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                      पहली रात जब मैं उस कमरे में 
                      सोया था, तो रात-भर हीटर को पैसे खिलाता रहा- हर आधे घंटे 
                      बाद उसकी जठराग्नि शांत करनी पड़ती थी। दूसरे दिन, मेरे पास 
                      नाश्ते के पैसे भी नहीं बचे थे। उसके बाद मैंने हीटर को अलग 
                      छोड़ दिया। मैं रात-भर ठंड से काँपता रहता, लेकिन यह तसल्ली 
                      रहती कि वह भी भूखा पड़ा है। वह मेज़ पर ठंडा पड़ा रहता - 
                      मैं बिस्तर पर - और इस तरह हम दोनों के बीच शीत-युद्ध जारी 
                      रहता।  सुबह होते 
                      ही मैं जल्दी-से-जल्दी लायब्रेरी चला आता। पता नहीं कितने 
                      लोग मेरी तरह वहाँ आते थे - लायब्रेरी खुलने से पहले ही 
                      दरवाज़े पर लाइन बनाकर खड़े हो जाते थे। उनमें से ज़्यादातर 
                      बूढ़े लोग होते थे, जिन्हें पेंशन बहुत कम मिलती थी, किंतु 
                      सर्दी सबसे ज़्यादा लगती थी। मेज़ों पर एक-दो किताबें खोलकर 
                      वे बैठ जाते। कुछ ही देर बाद मैं देखता, मेरे दायें-बायें सब 
                      लोग सो रहे हैं। कोई उन्हें टोकता नहीं था। एक-आध घंटे बाद 
                      लायब्रेरी का कोई कर्मचारी वहाँ चक्कर लगाने आ जाता, खुली 
                      किताबों को बंद कर देता और उन लोगों को धीरे-से हिला देता, 
                      जिनके खुर्राटे दूसरों की नींद या पढ़ाई में खलल डालने लगे 
                      हों। ऐसी ही एक 
                      ऊँघती दोपहर में मैंने उस लड़की को देखा था - लायब्रेरी की 
                      लंबी खिड़की से। उसने अपना बस्ता एक बेंच पर रख दिया था और 
                      खुद पेड़ों के पीछे छिप गई थी। वह कोई धूप का दिन न था, 
                      इसलिए मुझे कुछ हैरानी हुई थी कि इतनी ठंड में वह लड़की बाहर 
                      खेल रही है। वह बिलकुल अकेली थी। बाकी बेंचे खाली पड़ी थीं। 
                      और उस दिन पहली बार मुझे यह जानने की तीव्र उत्सुकता हुई थी 
                      कि वे कौन-से खेल हैं, जिन्हें कुछ बच्चे अकेले में खेलते 
                      हैं। दोपहर होते 
                      ही वह पार्क में आती, बेंच पर अपना बस्ता रख देती और फिर 
                      पेड़ों के पीछे भाग जाती। मैं कभी-कभी किताब से सिर उठाकर 
                      उसकी ओर देख लेता। पाच बजने पर सरकारी अस्पताल का गजर सुनाई 
                      देता। घंटे बजते ही, वह लड़की जहाँ भी होती, दौड़ते हुए अपनी 
                      बेंच पर आ बैठती। वह बस्ते को गोद में रखकर चुपचाप बैठी 
                      रहती, जब तक दूसरी तरफ़ से एक महिला न दिखाई दे जाती। मैं 
                      कभी उस महिला का चेहरा ठीक से न देख सका। वह हमेशा नर्स की 
                      सफ़ेद पोशाक में आती थीं। और इससे पहले कि बेंच तक पहुँच 
                      पाती - वह लड़की अपना धीरज खोकर भागने लगती और उन्हें बीच 
                      में ही रोक लेती। वे दोनों गेट की तरफ़ मुड़ जाते और मैं 
                      उन्हें उस समय तक देखता रहता, जब तक वे आँखों से ओझल न हो 
                      जाते। मैं यह सब 
                      देखता था, हिचकॉक के हीरो की तरह, खिड़की से बाहर, जहाँ यह 
                      पैंटोमिम रोज़ दुहराया जाता था। यह सिलसिला शायद सर्दियों तक 
                      चलता रहता, यदि एक दिन अचानक मौसम ने करवट न ली होती। एक रात 
                      सोते हुए मुझे सहसा अपनी रजाई और उस पर रखे हुए कोट बोझ जान 
                      पड़े। मेरी देह पसीने से लथपथ थी, जैसे बहुत दिनों बाद 
                      बुख़ार से उठ रहा हूँ। खिड़की खोलकर बाहर झाँका, तो न धुंध, 
                      न कोहरा, लंदन का आकाश नीली मखमली डिबिया-सा खुला था, जिसमें 
                      किसी ने ढेर-से तारे भर दिए थे। मुझे लगा, जैसे यह गर्मियों 
                      की रात है और मैं विदेश में न होकर अपने घर की छत पर लेटा 
                      हूँ। अगले दिन 
                      खुलकर धूप निकली थी, मैं अधिक देर तक लायब्रेरी में नहीं बैठ 
                      सका। दोपहर होते ही मैं बाहर निकल पड़ा और घूमता हुआ उस 
                      रेस्तरां में चला आया, जहाँ मैं रोज़ खाना खाने जाया करता 
                      था। वह एक सस्ता यहूदी रेस्तरां था। वहाँ सिर्फ डेढ़ शिलिंग 
                      में कोशर गोश्त, दो रोटियाँ और बीयर का एक छोटा गिलास मिल 
                      जाता था। रेस्तरां की यहूदी मालकिन, जो युद्ध से पहले 
                      लिथूनिया से आई थीं, एक ऊँचे स्टूल पर बैठी रहतीं। काउंटर पर 
                      एक कैश-बाक्स रखा रहता और उसके नीचे एक सफ़ेद सियामी बिल्ली 
                      ग्राहकों को घूरती रहती। मुझे शायद वह थोड़ा-बहुत पहचानने 
                      लगी थी, क्योंकि जितनी देर मैं खाता रहता, उतनी देर वह अपनी 
                      हरी आँखों से मेरी तरफ़ टुकुर-टुकुर ताकती रहती। गरीबी और 
                      ठंड और अकेलेपन के दिनों में बिल्ली का सहारा भी बहुत होता 
                      है, यह मैं उन दिनों सोचा करता था। मैं यह भी सोचता था कि 
                      किसी दिन मैं भी ऐसा ही हिंदुस्तानी रेस्तरां खोलूँगा और 
                      एक-साथ तीन बिल्लियाँ पालूँगा। रेस्तरां 
                      से बाहर आया, तो दोबारा लायब्रेरी जाने की इच्छा मर गई। लंबी 
                      मु त बाद उस दिन घर से चिठि्ठयाँ और अख़बार आए थे। मैं 
                      उन्हें पार्क की खुली धूप में पढ़ना चाहता था। मुझे हल्का-सा 
                      आश्चर्य हुआ, जब मेरी नज़र पार्क के फूलों पर गई। वे बहुत 
                      छोटे फूल थे, जो घास के बीच अपना सिर उठाकर खड़े थे। इन्हीं 
                      फूलों के बारे में शायद जीसस ने कहा था, लिलीज़ ऑफ द फील्ड़, 
                      ऐसे फूल, जो आनेवाले दिनों के बारे में नहीं सोचते।वे गुज़री हुई गरमियों की याद दिलाते थे।
 मैं घास के बीच उन फूलों पर चलने लगा।
 बहुत अच्छा लगा। आनेवाले दिनों की दुश्चिंताएँ झरने लगीं। 
                      मैं हल्का-सा हो गया। मैंने अपने जूते उतार दिए और घास पर 
                      नंगे पाँव चलने लगा। मैं बेंच के पास पहुँचा ही था कि मुझे 
                      अपने पीछे एक चीख सुनाई दी। कोई तेज़ी से भागता हुआ मेरी 
                      तरफ़ आ रहा था। पीछे मुड़कर देखा, तो वही लड़की दिखाई दी। वह 
                      पेड़ों से निकलकर बाहर आई और मेरा रास्ता रोककर खड़ी हो गई।
 "यू आर 
                      कॉट," उसने हँसते हुए कहा, "अब आप जा नहीं सकते।"मैं समझा नहीं। जहाँ खड़ा था, वहीं खड़ा रहा।
 "आप पकड़े गए..." उसने दोबारा कहा, "आप मेरी ज़मीन पर खड़े 
                      हैं।"
 मैंने चारों तरफ़ देखा, घास पर फूल थे, किनारे पर खाली 
                      बेंचें थीं, बीच में तीन एवरग्रीन पेड़ और एक मोटे तनेवाला 
                      ओक खड़ा था। उसकी ज़मीन कहीं दिखाई न दीं।
 "मुझे मालूम नहीं था," मैंने कहा और मुड़कर वापस जाने लगा।
 "नहीं, नहीं, आप जा नहीं सकते," बच्ची एकदम मेरे सामने आकर 
                      खड़ी हो गई। उसकी आँखें चमक रही थीं, "वे आपको जाने नहीं 
                      देंगे।"
 "कौन नहीं जाने देगा?" मैंने पूछा।
 उसने पेड़ों की तरफ़ इशारा किया, जो अब सचमुच सिपाही-से 
                      दिखाई दे रहे थे, लंबे हट्टे-कट्टे पहरेदार। मैं बिना जाने 
                      उनके अदृश्य फंदे में चला आया था।
 कुछ देर तक 
                      हम चुपचाप आमने-सामने खड़े रहे। उसकी आँखें बराबर मुझ पर 
                      टिकी थीं - उत्तेजित और सतर्क। जब उसने देखा, मेरा भागने का 
                      कोई इरादा नहीं है, तो वह कुछ ढीली पड़ी।"आप छूटना चाहते हैं?" उसने कहा।
 "कैसे?" मैंने उसकी ओर देखा।
 "आपको इन्हें खाना देना होगा। ये बहुत दिन से भूखे हैं।" 
                      उसने पेड़ों की ओर संकेत किया। वे हवा में सिर हिला रहे थे।
 "खाना मेरे पास नहीं है।" मैंने कहा।
 "आप चाहें, तो ला सकते हैं।" उसने आशा बँधाई, "ये सिर्फ 
                      फूल-पत्ते खाते हैं।"
 मेरे लिए 
                      वह मुश्किल नहीं था। वे अक्तूबर के दिन थे और पार्क में 
                      फूलों के अलावा ढेरों पत्ते बिखरे रहा करते थे। मैं नीचे 
                      झुका ही था कि उसने लपककर मेरा हाथ रोक लिया।"नहीं, नहीं - यहाँ से नहीं। यह मेरी ज़मीन है। आपको वहाँ 
                      जाना होगा।" उसने पार्क के फेंस की ओर देखा। वहाँ मुरझाए 
                      फूलों और पत्तों का ढेर लगा था। मैं वहाँ जाने लगा कि उसकी 
                      आवाज़ सुनाई दी।
 "ठहरिए - मैं आपके साथ आती हूँ, लेकिन अगर आप बचकर भागेंगे 
                      तो यही मर जाएँगे।" वह रुकी, मेरी तरफ़ देखा, "आप मरना चाहते 
                      हैं?"
 मैंने जल्दी से सिर हिलाया। वह इतना गर्म और उजला दिन था कि 
                      मरने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी।
 हम फेंस तक गए। मैंने रूमाल निकाला और फूल-पत्तियों को 
                      बटोरने लगा। मुक्ति पाने के लिए आदमी क्या कुछ नहीं करता।
 वापस लौटते 
                      हुए वह चुप रही। मैं कनखियों से उसकी ओर देख लेता था। वह 
                      काफ़ी बीमार-सी बच्ची जान पड़ती थी। उन बच्चों की तरह गंभीर, 
                      जो हमेशा अकेले में अपने साथ खेलते हैं। जब वह चुप रहती थी, 
                      तो होंठ बिचक जाते थे - नीचे का होंठ थोड़ा-सा बाहर निकल 
                      आता, जिसके ऊपर दबी हुई नाक बेसहारा-सी दिखाई देती थी। बाल 
                      बहुत छोटे थे - और बहुत काले- गोल छल्लों में धुली हुई रूई 
                      की तरह बँटे हुए, जिन्हें छूने को अनायास हाथ आगे बढ़ जाता 
                      था। लेकिन वह अपनी दूरी में हर तरह की छुअन से परे जान पड़ती 
                      थी।"अब आप इन्हें खाना दे सकते हैं।" उसने कहा। वह पेड़ों के 
                      पास आकर रुक गई थी।
 "क्या वे मुझे छोड़ देंगे?" मैं कोई गारंटी, कोई आश्वासन 
                      पाना चाहता था।
 इस बार वह मुस्कराई - और मैंने पहली बार उसके दाँत देखे - 
                      एकदम सफ़ेद और चमकीले - जैसे अक्सर नीग्रो लड़कियों के होते 
                      हैं।
 मैंने वे पत्तियाँ रूमाल से बाहर निकालीं, चार हिस्सों में 
                      बाँटी और बराबर-बराबर से पेड़ों के नीचे डाल दीं।
 मैं स्वतंत्र हो गया था - कुछ खाली-सा भी।
 मैंने जेब से चिठि्ठयाँ और अख़बार निकाले और उस बेंच पर बैठ 
                      गया, जहाँ उसका बैग रखा था। वह काले चमड़े का बैग था, भीतर 
                      किताबें ठूँसी थीं, ऊपर की जेब से आधा कुतरा हुआ सेब बाहर 
                      झाँक रहा था।
 वह ओझल हो 
                      गई। मैंने चारों तरफ़ ध्यान से देखा, तो उसकी फ्राक का एक 
                      कोना झाड़ियों से बाहर दिखाई दिया। वह एक खरगोश की तरह 
                      दुबककर बैठी थी - मेरे ही जैसे, किसी भूले-भटके यात्री पर 
                      झपटने के लिए। किंतु बहुत देर तक पार्क से कोई आदमी नहीं 
                      गुज़रा। हवा चलती तो पेड़ों के नीचे जमा की हुई पत्तियाँ 
                      घूमने लगतीं - एक भँवर की तरह और वह अपने शिकार को भूलकर 
                      उनके पीछे भागने लगती। कुछ देर 
                      बाद वह बेंच के पास आई, एक क्षण मुझे देखा, फिर बस्ते की जेब 
                      से सेब निकाला। मैं अख़बार पढ़ता रहा और उसके दाँतों के बीच 
                      सेब की कुतरन सुनता रहा।अचानक उसकी नज़र मेरी चिठि्ठयों पर पड़ी, जो बेंच पर रखी 
                      थीं। उसके हिलते हुए जबड़े रुक गए।
 "यह आपकी है?"
 "हाँ।" मैंने उसकी ओर देखा।
 "और यह?"
 उसने 
                      लिफ़ाफ़े पर लगे टिकट की ओर उँगली उठाई। टिकट पर हाथी की 
                      तस्वीर थी, जिसकी सूँड ऊपर हवा में उठी थी। वह अपने दाँतों 
                      के बीच हँसता-सा दिखाई दे रहा था।"तुम कभी जू गई हो?" मैंने पूछा।
 "एक बार पापा के साथ गई थी। उन्होंने मुझे एक पेनी दी थी और 
                      हाथी ने अपनी सूँड से उस पेनी को मेरे हाथ से उठाया था।"
 "तुम डरी नहीं?"
 "नहीं, क्यों?" उसने सेब कुतरते हुए मेरी ओर देखा।
 "पापा तुम्हारे साथ यहाँ नहीं आते?"
 "एक बार आए थे। तीन बार पकड़े गए।"
 वह धीमे-से 
                      हँसी - जैसे मैं वहाँ न हूँ, जैसे कोई अकेले में हँसता है, 
                      जहाँ एक स्मृति पचास तहें खोलती है।अस्पताल की घड़ी का गजर सुनाई दिया, तो हम दोनों चौंक गए। 
                      लड़की ने बेंच से बस्ता उठाया और उन पेड़ों के पास-पास गई, 
                      जो चुप खड़े थे। बच्ची हर पेड़ के पास जाती थी, छूती थी, कुछ 
                      कहती थी, जिसे सिर्फ पेड़ सुन पाते थे। आख़िर में वह मेरे 
                      पास आई और मुझसे हाथ मिलाया, जैसे मैं भी उन पेड़ों में से 
                      एक हूँ।
 उसकी 
                      निगाहें पीछे मुड़ गईं। मैंने देखा, कौन है? वह महिला दिखाई 
                      दीं। वह नर्सोंवाली सफ़ेद पोशाक हरी घास पर चमक रही थी। 
                      बच्ची उन्हें देखते ही भागने लगी। मैंने ध्यान से देखा - यह 
                      वही महिला थीं, जिन्हें मैं लायब्रेरी की खिड़की से देखता 
                      था। छोटा कद, कंधे पर थैला और बच्ची जैसे ही काले-घुँघराले 
                      बाल। वे मुझसे काफ़ी दूर थे, लेकिन उनकी आवाज़ सुनाई दे जाती 
                      थी - अलग-अलग शब्द नहीं, सिर्फ दो स्वरों की एक आहट। वे घास 
                      पर बैठ गए थे। बच्ची मुझे भूल गई थी। मैंने जूते 
                      पहने। अख़बार और चिठि्ठयाँ जेब में रख दीं। अभी समय काफ़ी 
                      है, मैंने सोचा। एक-दो घंटे लायब्रेरी में बिता सकता हूँ। 
                      पार्क के जादू से अलग, अपने अकेले कोने में।मैं बीच पार्क में चला आया। पेड़ों की फुनगियों पर आग सुलगने 
                      लगी थी। समूचा पार्क सोने में गल रहा था। बीच में पत्तों का 
                      दरिया था, हवा में हिलता हुआ।
 कौन-कौन 
                      है? कोई मुझे बुला रहा था और मैं चलता गया, रुका नहीं। 
                      कभी-कभी आदमी खुद अपने को बुलाने लगता है, बाहर से भीतर - और 
                      भीतर कुछ भी नहीं होता। लेकिन यह बुलावा और दिनों की तरह 
                      नहीं था। यह स्र्का नहीं, इसलिए अंत में मुझे ही रुकना पड़ा। 
                      इस बार कोई शक नहीं हुआ। सचमुच कोई चीख रहा था, "स्टॉप, 
                      स्टॉप!" मैंने पीछे मुड़कर देखा, लड़की खड़ी होकर दोनों हाथ 
                      हवा में हिला रही थीं,सच! मैं फिर पकड़ा गया था - दोबारा से। बेवकूफ़ों की तरह मैं 
                      उसकी ज़मीन पर चला आया था, चार पेड़ों से घिरा हुआ। इस बार 
                      माँ और बेटी दोनों हँस रहे थे।
 वे झूठी 
                      गर्मियों के दिन थे। ये दिन ज़्यादा देर नहीं टिकेंगे, इसे 
                      सब जानते थे। लायब्रेरी उजाड़ रहने लगी। मेरे पड़ोसी, बूढ़े 
                      पेंशनयाफ्ता लोग, अब बाहर धूप में बैठने लगे। आकाश इतना नीला 
                      दिखाई देता कि लंदन की धुंध भी उसे मैला न कर पाती। उसके 
                      नीचे पार्क एक हरे टापू-सा लेटा रहता। ग्रेता(यह 
                      उसका नाम था) हमेशा वहीं दिखाई देती थी। कभी दिखाई न देती, 
                      तो भी बेंच पर उसका बस्ता देखकर पता चल जाता कि वह यहीं कहीं 
                      है, किसी कोने में दुबकी हैं। मैं बचता हुआ आता, पेड़ों से, 
                      झाड़ियों से, घास के फूलों से। हर रोज़ वह कहीं-न-कहीं, एक 
                      अदृश्य भयानक फंदा छोड़ जाती और जब पूरी सतर्कता के बावजूद 
                      मेरा पाँव उसमें फँस जाता, तो वह बदहवास चीखती हुई मेरे 
                      सामने आ खड़ी होती। मैं पकड़ लिया जाता। छोड़ दिया जाता। फिर 
                      पकड़ लिया जाता। यह खेल 
                      नहीं था। यह एक पूरी दुनिया थी। उस दुनिया से मेरा कोई 
                      वास्ता नहीं था - हालाँकि मैं कभी-कभी उसमें बुला लिया जाता 
                      था। ड्रामे में एक एक्स्ट्रा की तरह। मुझे हमेशा तैयार रहना 
                      पड़ता था, क्योंकि वह मुझे किसी भी समय बुला सकती थी। एक 
                      दोपहर हम दोनों बेंच पर बैठे थे, अचानक वह उठ खड़ी हुई।"हलो मिसेज टामस।" उसने मुस्कराते हुए कहा, "आज आप बहुत दिन 
                      बाद दिखाई दीं - यह मेरे इंडियन दोस्त हैं, इनसे मिलिए।"
 मैं अवाक उसे देखता रहा। वहाँ कोई न था।
 "आप बैठे हैं? इनसे हाथ मिलाइए।" उसने मुझे कुछ झिड़कते हुए 
                      कहा।
 मैं खड़ा 
                      हो गया, खाली हवा से हाथ मिलाया। ग्रेता खिसककर मेरे पास बैठ 
                      गई, ताकि कोने में मिसेज टामस बैठ सके।"आप बाज़ार जा रही थीं?" उसने खाली जगह को देखते हुए कहा, 
                      "मैं आपका थैला देखकर समझ गईं। नहीं, माफ़ कीजिए, मैं आपके 
                      साथ नहीं आ सकती। मुझे बहुत काम करना है। इन्हें देखिए(उसने 
                      पेड़ों की तरफ़ इशारा किया), ये सुबह से भूखे हैं, मैंने अभी 
                      तक इनके लिए खाना भी नहीं बनाया - आप चाय पिएँगी या कॉफी? ओह 
                      - आप घर से पीकर आई हैं। क्या कहा - मैं आपके घर क्यों नहीं 
                      आती? आजकल वक्त कहाँ मिलता है। सुबह अस्पताल जाना पड़ता है, 
                      दोपहर को बच्चों के साथ - आप तो जानती है। मैं इतवार को 
                      आऊँगी। आप जा रही है-"
 उसने खड़े 
                      होकर दोबारा हाथ मिलाया। मिसेज टामस शायद जल्दी में थीं। 
                      विदा लेते समय उन्होंने मुझे देखा नहीं। बदले में बेंच पर ही 
                      बैठा रहा।कुछ देर तक हम चुपचाप बैठे रहे। फिर सहसा वह चौक पड़ीं।
 "आप कुछ सुन रहे हैं?" उसने मेरी कुहनी को झिंझोड़ा।
 "कुछ भी नहीं।" मैंने कहा।
 "फ़ोन की घंटी - कितनी देर से बज रही है। ज़रा देखिए, कौन 
                      है?"
 मैं उठकर बेंच के पीछे गया, नीचे घास से एक टूटी टहनी उठाई 
                      और ज़ोर से कहा, "हलो!"
 "कौन है?" उसने कुछ अधीरता से पूछा।
 "मिसेज टामस।" मैंने कहा।
 "ओह - फिर मिसेज टामस।" उसने एक थकी-सी जम्हाई ली, धीमे 
                      कदमों से पास आई, मेरे हाथ से टहनी खींचकर कहा, "हलो, मिसेज 
                      टामस - आप बाज़ार से लौट आई? क्या-क्या लाईं? मीट-बॉल्स, 
                      फिश-फिंगर्स, आलू के चिप्स?" उसकी आँखें आश्चर्य से फैलती जा 
                      रही थी। वह शायद चुन-चुनकर उन सब चीज़ों का नाम ले रही थी, 
                      जो उसे सबसे अधिक अच्छी लगती थीं।
 फिर वह चुप हो गई - जैसे 
                      मिसेज टामस ने कोई अप्रत्याशित प्रस्ताव उसके सामने रखा हो। 
                      "ठीक है मिसेज टामस, मैं अभी आती हूँ - नहीं, मुझे देर नहीं 
                      लगेगी। मैं अभी बस-स्टेशन की तरफ़ जा रही हूँ - गुड बाई, 
                      मिसेज टामस!"उसने चमकती आँखों से मेरी ओर देखा।
 "मिसेज टामस ने मुझे डिनर पर बुलाया है - आप क्या करेंगे?"
 "मैं सोऊँगा।"
 "पहले इन्हें कुछ खिला देना..." नहीं तो ये रोएँगे।" उसने 
                      पेड़ों की ओर इशारा किया, जो ठहरी हवा में निस्पंद खड़े थे।
 वह तैयार होने लगी। अपने बिखरे बालों को सँवारा, पाउडर लगाने 
                      का बहाना किया - हथेली का शीश बनाकर उसमें झाँका - धूप और 
                      पेड़ों की छाया के बीच वह सचमुच सुंदर जान पड़ रही थी।
 जाते समय उसने मेरी तरफ़ 
                      हाथ हिलाया। मैं उसे देखता रहा, जब तक वह पेड़ों और झाड़ियों 
                      के घने झुरमुट में गायब नहीं हो गई।ऐसा हर रोज़ होने लगा। वह मिसेज टामस से मिलने चली जाती और 
                      मैं बेंच पर लेटा रहता। मुझे अकेला नहीं लगता था। पार्क की 
                      अजीब, अदृश्य आवाज़ें मुझे हरदम घेरे रहतीं। मैं एक दुनिया 
                      से निकलकर दूसरी दुनिया में चला आता। वह पार्क के सुदूर 
                      कोनों में भटकती फिरती। मैं लायब्रेरी की किताबों का सिरहाना 
                      बनाकर बेंच पर लेट जाता। लंदन के बादलों को देखता - वे घूमते 
                      रहते और जब कभी कोई सफ़ेद टुकड़ा सूरज पर अटक जाता, तब पार्क 
                      में अंधेरा-सा घिर जाता।
 ऐसे ही एक दिन जब मैं बेंच 
                      पर लेटा था, मुझे अपने नज़दीक एक अजीब-सी खड़खड़ाहट सुनाई 
                      दीं। मुझे लगा, मैं सपने में मिसेज टामस को देख रहा हूँ। वे 
                      मेरे पास - बिलकुल पास - आकर खड़ी हो गई है, मुझे बुला रही 
                      है।मैं हड़बड़ाकर उठ बैठा।
 सामने बच्ची की माँ खड़ी थीं। उन्होंने ग्रेता का हाथ पकड़ 
                      रखा था और कुछ असमंजस में वे मुझे निहार रही थीं।
 "माफ़ कीजिए।" उन्होंने सकुचाते हुए कहा, "आप सो तो नहीं रहे 
                      थे?"
 मैं कपड़े झाड़ता हुआ उठ खड़ा हुआ।
 "आज आप जल्दी आ गई?" मैंने कहा। उनकी सफ़ेद पोशाक, काली 
                      बेल्ट और बालों पर बँधे स्कार्फ को देखकर मेरी आँखें 
                      चुँधिया-सी गई। लगता था, वे अस्पताल से सीधी यहाँ चली आ रही 
                      थीं।
 "हाँ, मैं जल्दी आ गई," वे मुस्कराने लगी, "शनिवार को काम 
                      ज़्यादा नहीं रहता - मैं दोपहर को ही आ जाती हूँ।"
 वे वेस्ट इंडीज़ के चौड़े उच्चारण के साथ बोल रही थीं जिसमें 
                      हर शब्द का अंतिम हिस्सा गुब्बारे-सा उड़ता दिखाई देता था।
 "मैं आपसे कहने आई थी आज आप हमारें साथ चाय पीने चलिएगा, हम 
                      लोग पास में ही रहते हैं।"
 उनके स्वर में कोई संकोच या 
                      दिखावा नहीं था, जैसे वे मुझे मुद्दत से जानती हों।मैं तैयार हो गया। मैं अरसे से किसी के घर नहीं गया था। अपने 
                      बेडसिटर से लायब्रेरी और पार्क तक परिक्रमा लगाता था। मैं 
                      लगभग भूल गया था कि उसके परे एक और दुनिया है - जहाँ ग्रेता 
                      रहती होगी, खाती होगी, सोती होगी।
 वह आगे-आगे चल रही थी। 
                      कभी-कभी पीछे मुड़कर देख लेती थीं कि कहीं हम बहुत दूर तो 
                      नहीं छूट गए। उसे शायद कुछ अनोखा-सा लग रहा था कि मैं उसके 
                      घर आ रहा हूँ। अजीब मुझे भी लग रहा था - उसके घर आना नहीं, 
                      बल्कि उसकी माँ के साथ चलना। वे उम्र में काफ़ी छोटी जान 
                      पड़ती थीं, शायद अपने कद के कारण। मेरे साथ चलते हुए वे कुछ 
                      इतनी छोटी दिखाई दे रही थीं कि भ्रम होता था कि मैं किसी 
                      दूसरी ग्रेता के साथ चल रहा हूँ।रास्ते-भर वो चुप रहीं। सिर्फ जब उनका घर सामने आया, तो वे 
                      ठिठक गईं।
 "आप भी तो कहीं पास रहते हैं?" उन्होंने पूछा।
 "ब्राइट स्ट्रीट में," मैंने कहा, "टयूब स्टेशन के बिलकुल 
                      सामने।"
 "आप शायद हाल में ही आए हैं?" उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, 
                      "इस इलाके में बहुत कम इंडियन रहते हैं।"
 वे नीचे उतरने लगीं। उनका 
                      घर बेसमेंट में था और हमें सीढ़ियाँ उतर कर नीचे जाना पड़ा 
                      था। बच्ची दरवाज़ा खोलकर खड़ी थी। कमरे में दिन के समय भी 
                      अंधेरा था। बत्ती जलाई, तो तीन-चार कुर्सियाँ दिखाई दीं। बीच 
                      में एक मेज़ थी। ज़रूरत से ज़्यादा लंबी और नंगी - जैसे उस 
                      पर पिंग-पांग खेली जाती है। दीवार से सटा सोफा था, जिसके 
                      सिरहाने एक रजाई लिपटी रखी थी। लगता था, वह कमरा बहुत-से 
                      कामों के काम आता था, जिसमें खाना, सोना और मौका पड़ने पर - 
                      अतिथि-सत्कार भी शामिल था। "आप बैठिए, मैं अभी चाय 
                      बनाकर लाती हूँ।"वे पर्दा उठाकर भीतर चली गईं। मैं और ग्रेता कमरे में अकेले 
                      बैठे रहें। हम दोनों पार्क के पतझड़ी उजाले में एक-दूसरे को 
                      पहचानने लगे थे। पर कमरे के भीतर न कोई मौसम था, न कोई माया। 
                      वह अचानक एक बहुत कम उम्रवाली बच्ची बन गई थी, जिसका जादू और 
                      आतंक दोनों झर गए थे।
 "तुम यहाँ सोती हो?" मैंने सोफे की ओर देखा।
 "नहीं, यहाँ नहीं," उसने सिर हिलाया, "मेरा कमरा भीतर है - 
                      आप देखेंगे?"
 किचेन से आगे एक कोठरी थी, 
                      जो शायद बहुत पहले गोदाम रहा होगा। वहाँ एक नीली चिक लटक रही 
                      थी। उसने चिक उठाईं और दबे कदमों से भीतर चली आई।"धीरे-से आइए - वह सो रहा है।"
 "कौन?"
 "हिश!" उसने अपना हाथ मुँह पर रख दिया।
 मैंने सोचा, कोई भीतर है। 
                      पर भीतर बिलकुल सूना था। कमरे की हरी दीवारें थीं, जिन पर 
                      जानवरों की तस्वीरें चिपकी थीं। कोने में उसकी खाट थी, जो 
                      खटोला-सी दिखाई देती थी! तकिए पर थिगलियों में लिपटा एक भालू 
                      लेटा था, गुदड़ी के लाल- जैसा-"वह सो रहा है।" उसने फुसफुसाते हुए कहा।
 "और तुम?" मैंने कहा, "तुम यहाँ नहीं सोतीं?"
 "यहाँ सोती हूँ। जब पापा यहाँ थे, तो वे दूसरे पलंग पर सोते 
                      थे। माँ ने अब उस पलंग को बाहर रखवा दिया है।"
 "कहाँ रहते हैं वे?" इस बार मेरा स्वर भी धीमा हो गया, भालू 
                      के डर से नहीं, अपने उस से, जो कई दिनों से मेरे भीतर पल रहा 
                      था।
 "अपने घर रहते हैं - और कहाँ?"
 उसने तनिक विस्मय से मुझे 
                      देखा। उसे लगा, मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं हुआ हूँ। वह अपनी 
                      मेज़ के पास गई, जहाँ उसकी स्कूल की किताबें रखी थीं। दराज 
                      खोला और उसके भीतर से चिठि्ठयों का पुलिंदा बाहर निकाला। 
                      पुलिंदे पर रेशम का लाल फीता बँधा था, मानो लिफ़ाफ़े पर लगा 
                      टिकट दिखाया।"वे यहाँ रहते हैं।" उसने कहा।
 मुझे याद आया, वह मेरी नकल कर रही है - बहुत पहले पार्क में 
                      मैंने उसे अपने देश की चिठ्ठी दिखाई थी।
 बैठक से उसकी माँ हमें बुला रही थी। आवाज़ सुनते ही वह कमरे 
                      से बाहर चली गई। मैं एक क्षण वहीं ठिठका रहा। खटोले पर भालू 
                      सो रहा था। दीवारों पर जानवरों की आँखें मुझे घूर रही थीं। 
                      बिस्तर के पास ही एक छोटी-सी बेसिनी थी, जिस पर उसका 
                      टूथ-ब्रश, साबुन और कंघा रखे थे।
 बिलकुल मेरे बेड-सेट की तरह - मैंने सोचा। किंतु मुझसे बहुत 
                      अलग। मैं अपना कमरा छोड़कर कहीं भी जा सकता था, उसका कमरा 
                      अपनी चीज़ों में शाश्वत-सा जान पड़ता था।
 मेज़ पर चिठि्ठयों का पुलिंदा पड़ा था, रेशमी डोर में बँधा 
                      हुआ, जिसे जल्दी में वह अकेला छोड़ गई थी।
 "कमरा देख लिया आपने?" उन्होंने मुस्कराते हुए कहा।
 "यहाँ जो भी आता है, सबसे पहले उसे अपना कमरा दिखाती है।" वे 
                      कपड़े बदलकर आई थीं। लाल छींट की स्कर्ट और खुला-खुला भूरे 
                      रंग का कार्डीगन। कमरे में सस्ती सेंट की गंध फैली थीं।
 "आप चाय नहीं - दावत दे रहीं है।" मैंने मेज़ पर रखे सामान 
                      को देखकर कहा। टोस्ट, जैम, मक्खन, चीज़ - पता नहीं, इतनी 
                      सारी चीज़ें मैंने पहले कब देखी थी।
 "अस्पताल की कैंटीन से ले आती हूँ - वहाँ सस्ते में मिल जाता 
                      है।"
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