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                      वे परेशान लगती थीं। हँसती 
                      थीं, लेकिन परेशानी अपनी जगह कायम रहती थी। पता नहीं, बच्ची 
                      कहाँ थी? वे उसे चीखते हुए बुला रही थीं और चाय ठंडी हो रही 
                      थी।वे सिर पकड़कर बैठी रहीं। फिर याद आया, मैं भी हूँ। "आप शुरू 
                      कीजिए - वह बाग में बैठी होगी।"
 "आपका अपना बाग है?" मैंने पूछा।
 "बहुत छोटा-सा, किचेन के पीछे। जब हम यहाँ आए थे, उजाड़ पड़ा 
                      था। मेरे पति ने उसे साफ़ किया। अब तो थोड़ी-बहुत सब्ज़ी भी 
                      निकल आती है।"
 "आपके पति यहाँ नहीं रहते?"
 "उन्हें यहाँ काम नहीं मिला - दिन भर पार्क में घूमते रहते 
                      थे। वही आदत ग्रेता को पड़ी है।"
 उनके स्वर में हल्की-सी थकान थी। खीज से खाली - लेकिन ऐसी 
                      थकान जो पोली धूल-सी हर चीज़ पर बैठ जाती है।
 "पार्क में तो मैं घूमता हूँ।" मैंने उन्हें हल्का करना 
                      चाहा। वे हो भी गईं। हँसने लगी।
 "आपकी बात अलग है।" उन्होंने डूबे स्वर में कहा, "आप अकेले 
                      हैं। लेकिन लंदन में अगर परिवार साथ हो, तो बिना नौकरी के 
                      नहीं रहा जा सकता।"
 वे मेज़ की 
                      चीज़ें साफ़ करने लगीं। बर्तनों को जमा करके मैं किचन में ले 
                      गया। सिंक के आगे खिड़की थी, जहाँ से उनका बाग दिखाई देता 
                      था। बीच में एक वीपिंग-विलो खड़ा था, जिसकी शाखाएँ एक उल्टी 
                      छतरी की सलाखों की तरह झूल रही थी।पीछे मुड़ा तो वे दिखाई दीं। दरवाज़े पर तौलिया लेकर खड़ी 
                      थी।
 "क्या देख रहे हैं?"
 "आपके बाग को य़ह तो कोई बहुत छोटा नहीं है।"
 "हैं नहीं - पर इस पेड़ ने सारी जगह घेर रखी है। मैं इसे 
                      कटवाना चाहती थी, लेकिन वह अपनी ज़िद पर अड़ गई - जिस दिन 
                      पेड़ काटना था, वह रात-भर रोती रही।"
 वे चुप हो गईं - जैसे उस रात को याद करना अपने में एक रोना 
                      हो।
 "क्या कहती थी?"
 "कहती क्या थी - अपनी ज़िद पर अड़ी थी। बहुत पहले कभी इसके 
                      पापा ने कहा होगा कि पेड़ के नीचे समर-हाउस बनाएँगे - अब आप 
                      बताइए, यहाँ खुद रहने को जगह है नहीं, बाग में गुड़ियों का 
                      समर-हाउस बनेगा?"
 "समर-हाउस?"
 "हाँ, समर-हाउस - जहाँ ग्रेता अपने भालू के साथ रहेगी।"
 वे हँसने 
                      लगीं - एक उदास-सी हँसी जो एक खाली जगह से उठकर दूसरी खाली 
                      जगह पर ख़त्म हो जाती है - और बीच की जगह को भी खाली छोड़ 
                      जाती है।मेरे जाने का समय हो गया था - लेकिन ग्रेता कहीं दिखाई नहीं 
                      दी। हम सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर चले आए। लंदन की मैली धूप पड़ोस 
                      की चिमनियों पर रेंग रही थी।
 जब विदा लेने के लिए मैंने हाथ आगे बढ़ाया, तो उन्होंने कुछ 
                      सकुचाते हुए कहा, "आप कल खाली हैं?"
 "कहिए - मैं तकरीबन हर रोज़ ही खाली रहता हूँ।"
 "कल इतवार है..." उन्होंने कहा, "ग्रेता की छुट्टी है, पर 
                      मेरी अस्पताल में डयूटी है, क्या मैं उसे आपके पास छोड़ सकती 
                      हूँ?"
 "कितने बजे आना होगा?"
 "नहीं, आप आने की तकलीफ़ न करें। अस्पताल जाते हुए मैं इसे 
                      लायब्रेरी के सामने छोड़ दूँगी श़ाम को लौटते हुए ले लूँगी।"
 मैंने हामी 
                      भरी और सड़क पर चला आया। कुछ दूर चलकर जेब से पैसे निकाले और 
                      उन्हें गिनने लगा। आज खाने के पैसे बच जाएँगे, यह सोचकर खुशी 
                      हुई। मैंने बची हुई रेज़गारी को मुठ्ठी में दबाया और घर की 
                      तरफ़ चलने लगा।मैं लायब्रेरी के दरवाज़े पर खड़ा था।
 उन्हें देर हो गई थी - शायद सर्दी के कारण। धूप कहीं न थी। 
                      लंदन की इमारतों पर अवसन्न-सा आलोक फैला था - पीली और ज़र्द, 
                      जिसमें वे और भी दरिद्र और दुखी दिखाई देती थीं।
 मुझे उनकी 
                      सफ़ेद पोशाक दिखाई दी। दोनों पार्क से गुज़रते हुए आ रहे थे। 
                      आगे-आगे वे और पीछे भागती हुई ग्रेता। जब उन्होंने मुझे देख 
                      लिया तो हवा में हाथ हिलाया, बच्ची को जल्दी से चूमा और तेज़ 
                      कदमों से अस्पताल की तरफ़ मुड़ गईं।किंतु बच्ची में कोई जल्दी न थी। वह धीमे कदमों से मेरे पास 
                      आई। सर्दी में नाक लाल-सुर्ख हो गई थी। उसने पूरी बाँहोंवाला 
                      ब्राउन स्वेटर पहन रखा था - सिर पर वही पुरानी कैप थी, जिसे 
                      मैं पार्क में देखा करता था।
 वह निढाल-सी खड़ी थी।
 "चलोगी?" मैंने उसका हाथ पकड़ा।
 उसने चुपचाप सिर हिला दिया। मुझे हल्की-सी निराशा हुई। मैंने 
                      सोचा था, वह पूछेगी, कहाँ - और तब मैं उसे आश्चर्य में डाल 
                      दूँगा। पर उसने पूछा कुछ भी नहीं और हम सड़क पार करने लगे।
 जब हम 
                      पार्क को छोड़कर आगे बढ़े तो एक बार उसने प्रश्नभरी निगाहों 
                      से मेरी ओर देखा - जैसे वह अपने किसी सुरक्षित घेरे से बाहर 
                      जा रही हो। पर मैं चुप रहा - और उसने कुछ पूछा नहीं। तब मुझे 
                      पहली बार लगा कि जब बच्चे माँ-बाप के साथ नहीं होते तो सब 
                      प्रश्नों को पुड़िया बनाकर किसी अंधेरे गड्ढ़े में फेंक देते 
                      हैं।टयूब में बैठकर वह कुछ निश्चिंत नज़र आई। उसने मेरा हाथ छोड़ 
                      दिया और खिड़की के बाहर देखने लगी।
 "क्या अभी से रात हो गई?" उसने पूछा।
 "रात कैसी?"
 "देखो - बाहर कितना अंधेरा है।"
 "हम ज़मीन के नीचे हैं।" मैंने कहा।
 वह कुछ सोचने लगी, फिर धीरे-से कहा, "नीचे रात है, ऊपर दिन।"
 हम दोनों हँसने लगे। मैंने पहले कभी ऐसा नहीं सोचा था।
 धीरे-धीरे रोशनी नज़र आने लगी। ऊपर आकाश का एक टुकड़ा दिखाई 
                      दिया और फिर अथाह सफ़ेदी में डूबा दिन सुरंग के बाहर निकल 
                      आया।
 टयूब स्टेशन की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए वह स्र्क गई। मैंने 
                      आश्चर्य से उसकी ओर देखा।
 "रुक क्यों गई!"
 "मुझे बाथरूम जाना है।"
 मुझे दहशत 
                      हुई। टॉयलेट नीचे था और वह इस तरह अपने को रोके बहुत दूर तक 
                      नहीं जा सकती थी। मैंने उसे गोद में उठा लिया और उलटे पाँव 
                      सीढ़ियों पर भागने लगा। गलियारे के दूसरे सिरे पर टॉयलेट 
                      दिखाई दिया - पुरुषों के लिए - मैं जल्दी से उसे भीतर ले 
                      गया। दरवाज़ा बंद करके बाहर आया, तो लगा जैसे वह नहीं, मैं 
                      मुक्त हो रहा हूँ।वह बाहर आई तो परेशान-सी नज़र आई। "अब क्या बात है?"
 "चेन बहुत ऊँची है।" उसने कहा।
 "तुम ठहरो, मैं खींच आता हूँ।"
 उसने मेरा 
                      कोट पकड़ लिया। वह खुद खींचना चाहती थी। उसके साथ मैं भीतर 
                      गया, उसे दुबारा गोद में उठाया और तब तक उठाता गया, जब तक 
                      उसका हाथ चेन तक नहीं पहुँच गया। हम दोनों विस्मय से टॉयलेट 
                      में पानी को बहता देख रहे, जैसे यह चमत्कार जिंदगी में पहली 
                      बार देख रहे हों।हम सीढ़ियाँ उतरने लगे। ऊपर आए तो उसने कसकर मेरा हाथ भींच 
                      लिया। ट्रिफाल्गर स्क्वेयर आगे था, चारों तरफ़ भीड़, उजाला, 
                      शोर। मैं उसे आश्चर्य में डालना चाहता था। किंतु वह डर गई 
                      थी। वह इतनी डर गई थी कि मेरी इच्छा हुई कि मैं उसे दोबारा 
                      नीचे ले जाऊँ - टयूब स्टेशन में जहाँ ज़मीन का अपना सुरक्षित 
                      अंधेरा था।
 लेकिन 
                      जल्दी ही डर बह गया और कुछ देर बाद उसने मेरा हाथ भी छोड़ 
                      दिया। वह स्क्वेयर के अनोखे उजाले में खो गई थी। वह उन शेरों 
                      के नीचे चली आई थी, जो काले पत्थरों पर अपने पंजे खोलकर भीड़ 
                      को निहार रहे थे। बहुत-से बच्चे कबूतरों को दाना डाल रहे थे। पंखों की 
                      छाया एक बादल-सा दिखाई देती थी, जो हवा में कभी इधर जाती थी, 
                      कभी उधर - सिर के ऊपर से निकल जाती थी और कानों में सिर्फ एक 
                      गर्म, सनसनाती फड़फड़ाहट बाकी रह जाती थी।वह सुन रही थी। वह मुझे भूल गई थी।
 मैं उसकी आँख बचाकर स्क्वेयर के बीच चला आया। वहाँ एक लाल 
                      लकड़ी का केबिन था, जहाँ दाने बिकते थे। एक कप दाने के दाम - 
                      चार पेंस। मैंने एक कप ख़रीदा और भीड़ में उसे ढूँढ़ने लगा।
 बच्चे बहुत थे - कबूतरों से घिरे हुए। किंतु वह जहाँ थी, 
                      वहाँ खड़ी थी। अपनी जगह से एक इंच भी न हिली थी। मैं उसके 
                      पीछे गया और दानों का कप उसके आगे कर दिया।
 वह मुड़ी और हकबकाकर मेरी ओर देखा। बच्चे कृतज्ञ नहीं होते, 
                      सिर्फ अपना लेते हैं। एक तीसरी आँख खुल जाती है, जो सब 
                      चुप्पियों को काट देती है। उसने कप को लगभग मेरे हाथों से 
                      खींचते हुए कहा, "क्या वे आएँगे?"
 "ज़रूर आएँगे प़हले तुम्हें एक-एक दाना डालना होगा - उन्हें 
                      पास बुलाने के लिए, फिर..."
 उसने मेरी 
                      बात नहीं सुनी। वह उस तरफ़ भागती गई, जहाँ इक्के-दुक्के 
                      कबूतर भटक रहे थे। शुरू-शुरू में उसने डरते हुए हथेली आगे 
                      बढ़ाई। कबूतर उसके पास आते हुए झिझक रहे थे, जैसे उसके डर ने 
                      उन्हें भी छू लिया हो। किंतु ज़्यादा देर वे अपना लालच नहीं 
                      रोक सके। नखरे छोड़कर पास आए - इधर-उधर देखने का बहाना किया 
                      और फिर खटाखट उसकी हथेली से दाने चुगने लगे। वह अब अपनी 
                      फ्रॉक फैलाकर बैठ गई थी। एक हाथ में दोना दूसरे हाथ में 
                      दाने। मैं अब उसे देख भी नहीं सकता था। पंखों की सलेटी, 
                      फड़फड़ाती छत ने उसे अपने में ढक लिया था। मैं बेंच 
                      पर बैठ गया। फव्वारों को देखने लगा, जिनके छींटे उड़ते हुए 
                      घुटनों तक आ जाते थे। बादल इतने नीचे झुक आए थे कि नेल्सन का 
                      सिर सिर्फ एक काले धब्बे-सा दिखाई देता था।दिन बीत रहा था।
 कुछ ही देर में मैंने देखा, वह सामने खड़ी है।
 "मैं एक कप और लूँगी।" उसने कहा।
 "अब नहीं..." मैंने कुछ हिचकिचाते हुए कहा, "काफ़ी देर हो गई 
                      है। अब चाय पिएँगे - और तुम आइस्क्रीम लोगी।"
 उसने सिर हिलाया।
 "मैं एक कप और लूँगी।"
 उस स्वर में ज़िद नहीं थी। कुछ क्षण पहले जो पहचान आई थी, वह 
                      मानो मुझसे नहीं, उससे आग्रह कर रही हो।
 मैंने उसके 
                      हाथ से खाली कप लिया और दुकान की तरफ़ बढ़ गया। पीछे मुड़कर 
                      देखा। वह मुझे देख रही थी। मैं दुकान के पीछे मुड़ गया। वहाँ 
                      भीड़ थी और उसकी आँखें मुझ तक नहीं पहुँच सकती थीं। कोने में 
                      सिमटकर मैंने जेब से पैसे निकाले। चाय और आइसक्रीम के पैसे 
                      एक तरफ़ किए, टयूब के किराए के पैसे दूसरी तरफ़ - बाकी सिर्फ 
                      दो पेंस बचे थे। मैंने चाय के कुछ पेंस उसमें मिलाए और दुकान 
                      के आगे लगी क्यू में शामिल हो गया।  इस बार जब 
                      मैंने उसे कप दिया, तो उसने मुझे देखा भी नहीं। वह तुरंत 
                      भागती हुई उस जगह चली गई जहाँ सबसे ज़्यादा कबूतर इकठ्ठा थे। 
                      वे आसपास उड़ते हुए कभी हाथों, उसके कंधों, उसके सिर पर बैठ 
                      जाते थे। वह हँसती जा रही थी, पीला चेहरा एक ज्वरग्रस्त 
                      खिंचाव में विकृत-सा हो गया था और हाथ - वे हाथ, जो मुझे 
                      हमेशा इतने निरीह जान पड़ते थे - अब एक अजीब बेचैनी में कभी 
                      खुलते थे, कभी बंद होते थे जैसे वे किसी भी क्षण कबूतरों की 
                      फड़फड़ाती माँसल धड़कनों को दबोच लेंगे। उसे पता भी न चला, 
                      कब दानों की कटोरी खाली हो गई - कुछ देर तक हवा में हथेली 
                      खोले बैठी रही। सहसा उसे आभास हुआ, कबूतर उसे छोड़कर दूसरे 
                      बच्चों के आसपास मंडराने लगे हैं। वह खड़ी हो गई और बिना 
                      कहीं देखे चुपचाप मेरे पास चली आई।वह एकटक मुझे देख रही थी। मुझे शक हुआ, वह मुझ पर शक कर रही 
                      है। मैं बेंच से उठ खड़ा हुआ।
 "अब चलेंगे।" मैंने कहा।
 "मैं एक कप और लूँगी।"
 "अब और नहीं - तुम दो ले चुकी हो।" मैंने गुस्से में कहा, 
                      "तुम्हें मालूम है, हमारे पास कितने पैसे बचे हैं?"
 "सिर्फ एक और - उसके बाद हम लौट जाएँगे।"
 लोग हमें 
                      देखने लगे थे। मैं बहस कर रहा था - दानों की एक कटोरी के 
                      लिए। मैंने उसे उठाकर बेंच पर बिठा दिया, "ग्रेता, तुम बहुत 
                      ज़िद्दी हो। अब तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा।"उसने ठंडी आँखों से मुझे देखा।
 "आप बुरे आदमी हैं। मैं आपके साथ कभी नहीं खेलूँगी।" मुझे 
                      लगा जैसे उसने मेरी तुलना किसी अदृश्य व्यक्ति से की हो। मैं 
                      खाली-सा बैठा रहा। कभी-कभी ऐसा होता है कि अपने लिए कोई 
                      उम्मीद नहीं रहती। सिर्फ घोर हैरानी होने लगती है, अपने होने 
                      पर, अपने होने पर ही हैरानी होने लगती है। फिर मुझे वह आवाज़ 
                      सुनाई दी, जो आज भी मुझे अकेले में सुनाई दे जाती हैं और 
                      मुँह मोड़ लेता हूँ।
 वह रो रही 
                      थी। हाथ में दानों का खाली कप था, और उसकी कैप खिसककर माथे 
                      पर चली आई थी। वह चुप्पी का रोना था। अलग-अलग साँसों के बीच 
                      बिंधा हुआ। मुझसे वह नहीं सहा गया। मैंने उसके हाथ से कप 
                      लिया और लाइन में जाकर खड़ा हो गया। इस बार पैसों को गिनना 
                      भी याद नहीं आया। मैं सिर्फ उसका रोना सुन रहा था, हालाँकि 
                      वह मुझसे बहुत दूर थी, और बीच में कबूतरों की फड़फड़ाहट और 
                      बच्चों की चीखों के कारण कुछ भी सुनाई नहीं देता था। पर इन 
                      सबके परे मेरे भीतर का सन्नाटा था जिसके बीच उसकी रूँधी 
                      साँसें थीं - और वे मैं अंतहीन दूरी से सुन सकता था। किंतु इस 
                      बार पहले जैसा नहीं हुआ। बहुत देर तक कोई कबूतर उसके पास 
                      नहीं आया। उसकी अपनी घबराहट के कारण या घिरते अंधेरे के कारण 
                      - वे पास तक आते थे, लेकिन उसकी खुली हथेली की अवहेलना करके 
                      दूसरे बच्चों के पास चले जाते थे। हताश होकर उसने दानों की 
                      कटोरी ज़मीन पर रख दी और स्वयं मेरे पास बेंच पर आकर बैठ गई।उसके जाते ही कबूतरों का जमघट कटोरी के ईद-गिर्द जमा होने 
                      लगा। कुछ देर बाद हमने देखा, दानों की कटोरी औंधी पड़ी है और 
                      उसमें एक भी दाना नहीं है।
 "अब चलोगी?" मैंने कहा।
 वह तुरंत बेंच से उठ खड़ी हुई, जैसे वह इतनी देर से सिर्फ 
                      इसकी ही प्रतीक्षा कर रही हो। उसकी आँखें चमक रही थी - एक 
                      भीगी हुई चमक - जो आँसुओं के बाद चली आती है।
 उन दिनों ट्रिफाल्गर स्कैयर के सामने लायंस का रेस्तराँ होता 
                      था। गंदा और सस्ता दोनों ही। सड़क पार करके हम वहीं चले आए।
 इस बीच 
                      मैंने जेब में हाथ डालकर पैसों को गिन लिया था - मैंने उसके 
                      लिए दो टोस्ट मँगवाए, अपने लिए चाय। आइसक्रीम को भुला देना 
                      ही बेहतर था।वह पहली बार किसी रेस्तरां में आई थी। गहरी उत्सुकता से 
                      चारों तरफ़ देख रही थी। मुझे लगा, कुछ देर पहले का संताप 
                      घुलने लगा है। हम करीब-करीब दोबारा एक-दूसरे के करीब आ गए 
                      थे। लेकिन पहले जैसे नहीं - कबूतरों की छाया अब भी हम दोनों 
                      के बीच फड़फड़ा रही थी।
 "मैं क्या 
                      बहुत बुरा आदमी हूँ!" मैंने पूछा।इसने आँखें उठाईं, एक क्षण मुझे देखती रही, फिर बहुत अधीर 
                      स्वर में कहा, "मैंने आपको नहीं कहा था।"
 "मुझे नहीं कहा था?" मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा, "फिर 
                      किसको कहा था?"
 "मि. टामस को - वे बुरे आदमी हैं। एक दिन जब मैं उनके घर गई, 
                      वे डाँट रहे थे और मिसेज टामस बेचारी रो रही थीं।"
 "ओह!" मैंने कहा।
 "आप समझे - मैंने आपको कहा था?"
 वह हँसने लगी, जैसे मैंने सचमुच बड़ी मूर्खता की भूल की है - 
                      और उसकी हँसी देखकर न जाने क्यों, मेरा दिल बैठने लगा।
 "हम यहाँ 
                      फिर कभी आएँगे?" उसने कहा।"गर्मियों में," मैंने कहा, "गर्मियों में टेम्स पर चलेंगे, 
                      वह यहाँ से बहुत पास है।"
 "क्या वहाँ कबूतर होंगे?" उसने पूछा।
 मुझे बुरा लगा, जैसे कोई लड़की अपने प्रेमी की चर्चा बार-बार 
                      छेड़ दे। किंतु मैं उसे दोबारा निराश नहीं करना चाहता था। 
                      गर्मियाँ काफ़ी दूर थीं, बीच में पतझड़ और बर्फ के दिन आएँगे 
                      - तब तक मेरा झूठ भी पिघल जाएगा, मैंने सोचा।
 हम बाहर 
                      आए, तो पीला-सा अंधेरा घिर आया था। हालांकि दोपहर अभी बाकी 
                      थी। उसने खोयी हुई आँखों से स्क्वेयर की तरफ़ देखा, जहाँ 
                      कबूतर अब भी उड़ रहे थे। मेरी जेब में अब उतने ही पैसे थे, 
                      जिनसे टयूब का किराया दिया जा सके। इस बार उसने कोई आग्रह 
                      नहीं किया। बच्चे एक सीमा के बाद, बड़ों की गऱीबी न सही, 
                      मजबूरी सूँघ लेते हैं। मैंने सोचा 
                      था, ट्रेन में बैठेंगे, तो मैं उससे समर-हाउस के बारे में 
                      पूछूँगा - उस विलो के बारे में भी, जो अकेला उसके बाग में 
                      खड़ा था। मैं उसे दोबारा उसकी अपनी दुनिया में लाना चाहता था 
                      - जहाँ पहली बार हम दोनों एक-दूसरे से मिले थे। पर ऐसा नहीं 
                      हुआ। सीट पर बैठते ही उसकी आँखें मुँदने लगीं। ट्रिफाल्गर 
                      स्कैयर से इसलिंग्टन तक का काफ़ी लंबा फ़ासला था। कुछ देर 
                      बाद उसने मेरे कंधों पर अपना सिर टिका लिया और सोने लगी। इस बीच 
                      मैंने एक-आध बार उसके चेहरे को देखा था। मुझे हैरानी हुई कि 
                      सोते हुए वह हू-ब-हू वैसी ही लग रही है, जैसे पहली बार मैंने 
                      उसे देखा था पार्क में पेड़ों के बीच - तल्लीन और साबुत। 
                      कबूतरों के लिए जो भटकाव आया था, वह अब कहीं न था। आँसू कब 
                      के सूख चले थे। नींद में वह उतनी ही मुकम्मिल जान पड़ती थी, 
                      जितनी झाड़ियों के बीच और तब मुझे अजीब-सा विचार आया। पार्क 
                      में उसने कई बार मुझे पकड़ा था, किंतु उसके सोते हुए तल्लीन 
                      चेहरे को देखकर मुझे लगा कि वह हमेशा से पकड़ी हुई लड़की है, 
                      जबकि मेरे-जैसे लोग सिर्फ कभी-कभी पकड़ में आते हैं और उसे 
                      इसका कोई पता नहीं है और यह एक तरह का वरदान है, क्योंकि 
                      दूसरों को हमेशा छूटने का, मुक्त होने का भ्रम रहता है, जबकि 
                      बच्ची को इस तरह की कोई आशा नहीं थी। तब पहली बार मैंने उसे 
                      छूने का साहस किया। मैं धीरे-धीरे उसके गालों को छूने लगा, 
                      जो आँसुओं के बाद गऱ्म हो आए थे, कुछ वैसे ही, जैसे बारिश 
                      के बाद घास की पत्तियाँ हो जाती हैं।वह जगी नहीं। टयूब स्टेशन आने तक आराम से सोती रही।
 उस रात 
                      बारिश शुरू हुई, सो हफ्ते-भर चलती रही। झूठी गर्मियों के दिन 
                      ख़त्म हो गए। सारे शहर पर पीली धुंध की परतें जमीं रहतीं। 
                      सड़क पर चलते हुए कुछ भी दिखाई न देता - न पेड़, न लैंप 
                      पोस्ट, न दूसरे आदमी।मुझे वे दिन याद है, क्योंकि उन्हीं दिनों मुझे काम मिला था। 
                      लंदन में वह मेरी पहली नौकरी थी। काम ज़्यादा था, लेकिन 
                      मुश्किल नहीं। एक पब में काउंटर के पीछे सात घंटे खड़ा रहना 
                      पड़ता था। बियर और लिकर के गिलास धोने पड़ते थे। ग्यारह बजे 
                      घंटी बजानी पड़ती थी और पियक्कड़ लोगों को बाहर खदेड़ना 
                      पड़ता था। कुछ दिन तक मैं कहीं बाहर न जा सका। घर लौटता और 
                      बिस्तर पकड़ लेता, मानो पिछले महीनों की नींद कोई पुराना 
                      बदला निकाल रही हो। नींद खुलती, तो बारिश दिखाई देती, जो 
                      घड़ी की टिक-टिक की तरह बराबर चलती रहती। कभी-कभी भ्रम होता 
                      कि मैं मर गया हूँ- और अपनी कब्र की दूसरी तरफ़ से - बारिश 
                      की टप-टप सुन रहा हूँ।
 लेकिन एक 
                      दिन आकाश दिखाई दिया - पूरा नहीं- सिर्फ एक नीली डूबी-सी 
                      फ्रॉक और देखकर मुझे अकस्मात पार्क के दिन याद हो आए, यहूदी 
                      रेस्तराँ की बिल्ली और बाज़ार जाती हुई मिसेज टामस। वह मेरी 
                      छुट्टी का दिन था। उस दिन मैंने अपने सबसे बढ़िया कपड़े पहने 
                      और कमरे से बाहर निकल आया।लायब्रेरी खुली थी। सब पुराने चेहरे वहाँ दिखाई दिए। पार्क 
                      खाली पड़ा था। पेड़ों पर पिछले दिनों की बारिश चमक रही थी। 
                      वे सिकुड़े-से दिखाई देते थे, जैसे आनेवाली सर्दियों की 
                      अफ़वाह उन्हें छू गई हो।
 मैं दोपहर 
                      तक प्रतीक्षा करता रहा। ग्रेता कहीं दिखाई न दी, न बेंच पर, 
                      न पेड़ों के पीछे। धीरे-धीरे पार्क का पीला, पतझड़ी आलोक मंद 
                      पड़ने लगा। पाँच बजे अस्पताल का गजर सुनाई दिया और मेरी आँख 
                      अनायास फाटक की ओर उठ गईं।कुछ देर तक कोई दिखाई नहीं दिया। फाटक के ऊपर लोहे का हैंडिल 
                      शाम की आख़िरी धूप में चमक रहा था। उसके पीछे अस्पताल की लाल 
                      इंटोवाली इमारत दिखाई दे रही थी। मुझे मालूम था, उन्हें घर 
                      जाने के लिए पार्क के बीच से निकलना होगा, किंतु फिर भी मैं 
                      अनिश्चित निगाहों से कभी फाटक को देखता था, कभी सड़क को। यह 
                      ख़याल भी आता था कि शायद आज उनकी डयूटी अस्पताल में न हो और 
                      वे दोनों घर में ही बैठे हों।
 सड़क की 
                      बत्तियाँ जलने लगीं। मुझे अजीब-सी घबराहट हुई, जैसे 
                      प्रतीक्षा का अंत आ पहुँचा है और मैं उसे टालता जा रहा हूँ। 
                      मैं बेंच से उठ खड़ा हुआ - खड़े होकर प्रतीक्षा करना ज़्यादा 
                      आसान जान पड़ा। किंतु तभी मुझे फाटक के निकट सरसराहट सुनाई 
                      दी। उनके चेहरे को बाद में देखा, उनकी सफ़ेद पोशाक पहले 
                      दिखाई दी। वे तेज़ कदमों से पार्क के बीच पगडंडी पर चल रही 
                      थी। उन्होंने मुझे नहीं देखा था। यदि वे मेरी दिशा में आ रही 
                      होती, तो भी शायद धुंधलके में मुझे नहीं पहचान पातीं।मैं भागता हुआ उनके पीछे चला आया।
 "मिसेज पार्कर!" पहली बार मैंने उन्हें उनके नाम से बुलाया 
                      था।
 वे ठहर गई और भौंचक-सी मेरी ओर देखने लगी। "आप यहाँ कैसे?" 
                      अब भी वे अपने को नहीं सँभाल पाई थीं।
 "मैं यहाँ दोपहर से बैठा हूँ।" मैंने मुस्कराते हुए कहा।
 वे 
                      हकबकाई-सी मुझे देख रही थीं। उन्होंने मुझे पहचान लिया था, 
                      लेकिन जैसे उस पहचान का मतलब नहीं टोह पा रही थीं। मैं कुछ 
                      असमंजस में पड़ गया और सहज स्वर में पूछा, "आज आप इतनी देर 
                      से लौट रही हैं? पाँच का गजर तो कब का बज चुका?""पाँच का गजर?" उन्होंने विस्मय से पूछा।
 "आप हमेशा पाँच बजे लौटती थीं।" मैंने कहा।
 "ओह!" उन्हें याद आया, जैसे मैं किसी प्रागैतिहासिक घटना का 
                      उल्लेख कर रहा हूँ।
 "आप लंदन में ही थे?" उन्होंने पूछा।
 "मुझे काम मिल गया, इतने दिनों से इसलिए नहीं आ सका। ग्रेता 
                      कैसी है?"
 वे हिचकिचाईं - एक छोटे क्षण की हिचकिचाहट, जो कुछ भी मानी 
                      नहीं रखती - लेकिन शाम के धुंधलके में मुझे वह अपशकुन-सा जान 
                      पड़ी।
 "मैं आपको बताना चाहती थी, लेकिन मुझे आपका घर नहीं मालूम 
                      था..."
 "वह ठीक है?"
 "हाँ, ठीक है," उन्होंने जल्दी में कहा, "लेकिन वह अब यहाँ 
                      नहीं है। कुछ दिन पहले उसके पिता आए थे, वे उसे अपने साथ ले 
                      गए।"
 मैं उन्हें 
                      देखता रहा। मेरे भीतर जो कुछ था वह ठहर गया - मैं उसके भीतर 
                      था, उस ठहराव के, और वहाँ से दुनिया बिल्कुल बाहर दिखाई देती 
                      थी। मैंने कभी इतनी सफ़ाई से बाहर को नहीं देखा था।"कब की बात है?"
 "जिस दिन आप उसके साथ ट्रिफाल्गर स्कैयर गए थे - उसके दूसरे 
                      दिन ही वे आए थे आ़प जानते हैं, उन्हें वहाँ काम मिल गया 
                      है।"
 "और आप?" मैंने कहा, "आप यहाँ अकेली रहेंगी?"
 "मैंने अभी कुछ सोचा नहीं है।" उन्होंने धीरे-से सिर उठाया, 
                      आवाज़ हल्के-से काँपती थी, और एक क्षण के लिए मुझे उनके 
                      चेहरे पर बच्ची दिखाई दी, ऊपर उठा हुआ होंठ और भीगी आँखें, 
                      हवा में उड़ते हुए कबूतरों को निहारती हुईं।
 "आप कभी घर 
                      ज़रूर आइएगा।" उन्होंने विदा माँगी और मैंने हाथ आगे बढ़ा 
                      दिया। मैं बहुत दूर तक उन्हें देखता रहा। फिर काफ़ी देर तक 
                      बेंच पर बैठा रहा। मुझे कहीं नहीं जाना था, न ही प्रतीक्षा 
                      करनी थी। धीरे-धीरे पेड़ों के ऊपर तारे निकलने लगे। मैंने 
                      पहली बार लंदन के आकाश में इतने तारे देखे थे, साफ़ और 
                      चमकीले, जैसे बारिश ने उन्हें भी धो डाला हो।"इट इज टाइम डियर!"
 पार्क के 
                      चौकीदार ने दूर से ही आवाज़ लगाई। वह गेट की चाभियाँ खनखनाता 
                      हुआ पार्क का चक्कर लगा रहा था। टार्च की रोशनी में वह हर 
                      बेंच, झाड़ी और पेड़ के नीचे देख लेता था कि कहीं कोई छूट तो 
                      नहीं गया - कोई खोया हुआ बच्चा, कोई शराबी, कोई घरेलू 
                      बिल्ली।वहाँ कोई नहीं था। कोई भी चीज़ नहीं छूटी थी। मैं उठ खड़ा 
                      हुआ और गेट की तरफ़ चलने लगा। सहसा हवा उठी थी। हल्का-सा 
                      झोंका अंधेरे में चला आया और पेड़ सरसराने लगे। और तब मुझे 
                      धीमी-सी आवाज़ सुनाई दी, एक असीम आग्रह में लिपटी हुई - 
                      'स्टॉप स्टॉप...' मेरे पाँव बीच पार्क में ठिठक गए। चारों ओर 
                      देखा। कोई न था। न कोई आवाज़, न खटका - सिर्फ पेड़ों की 
                      शाखाएँ हवा में डोल रही थीं। उस समय एक पगली-उत्कट, नंगी-सी, 
                      आकांक्षा मेरे भीतर जागने लगी कि यहीं बैठ जाऊँ। इन पेड़ों 
                      के बीच जहाँ मैं पहली बार पकड़ा गया था। मेरी अब और आगे जाने 
                      की इच्छा नहीं थी। मैं इस बार अंतिम और अनिवार्य रूप में 
                      पकड़ लिया जाना चाहता था।
 "इट इज 
                      क्लोजिंग टाइम!" चौकीदार ने इस बार बहुत पास आकर कहा। मेरी 
                      तरफ़ जिज्ञासा से देखा कि क्या मैं वही आदमी हूँ, जो अभी कुछ 
                      देर पहले बेंच पर बैठा था।इस बार मैं नहीं मुड़ा। पार्क से बाहर आकर ही सांस ली। मेरा 
                      गला सूख गया था और देह खोखली-सी जान पड़ती थी। पार्क में 
                      सामने पब की लालटेन झूलती दिखाई दी। मैंने जेब से पर्स 
                      निकाला, पैसे गिनने के लिए। पुरानी गरीबी की यह आदत अब भी 
                      बची थी। मैंने हैरानी से देखा कि मेरे पास पूरे दो पौंड है - 
                      और तब मुझे याद आया कि मैं इन्हें कबूतरों के दानों के लिए 
                      लाया था।
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