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जमीन पर टेपचू गिरा तो धप्प की आवाज के साथ एक मरते हुए आदमी की अंतिम कराह भी उसमें शामिल थी। इसके बाद मटका गिरा और उसके हिज्जे-हिज्जे बिखर गए। काला साँप एक ओर पड़ा हुआ ऐंठ रहा था। उसकी रीढ़ की हडि्ड़याँ टूट गई थीं।

मदना सिंह दौड़ा। उसने आकर देखा तो उसकी हवा खिसक गई। उसने ताड़ की फुनगी से मटके समेत टेपचू को गिरते हुए देखा था। बचने की कोई संभावना नहीं थी। उसने एक-दो बार टेपचू को हिलाया-डुलाया। फिर गाँव की ओर हादसे की खबर देने दौड़ गया।

धाड़ मार-मारकर रोती, छाती कूटती फिरोजा लगभग सारे गाँव के साथ वहाँ पहुँची। मदना सिंह उन्हें मौके की ओर ले गया, लेकिन मदना सिंह बक्क रह गया। ऐसा नहीं हो सकता - यही ताड़ का पेड़ था, इसी के नीचे टेपचू की लाश थी। उसने ताड़ी के नशे में सपना तो नहीं देखा था? लेकिन फूटा हुआ मटका अब भी वहीं पड़ा हुआ था। साँप का सिर किसी ने पत्थर के टुकड़े से अच्छी तरह थुर दिया था। लेकिन टेपचू का कहीं अता-पता नहीं था। आसपास खोज की गई, लेकिन टेपचू मियाँ गायब थे।

गाँववालों को उसी दिन विश्वास हो गया कि हों न हों टेपचू साला जिन्न है, वह कभी मर नहीं सकता।

फिरोजा की सेहत लगातार बिगड़ रही थी। गले के दोनों ओर की हड्डियाँ उभर आई थीं। स्तन सूखकर खाली थैलियों की तरह लटक गए थे। पसलियाँ गिनी जा सकती थीं। टेपचू को वह बहुत अधिक प्यार करती थी। उसी के कारण उसने दूसरा निकाह नहीं किया था।

टेपचू की हरकतों से फिरोजा को लगने लगा कि वह कहीं बहेतू और आवारा होकर न रह जाए। इसीलिए उसने एक दिन गाँव के पंडित भगवानदीन के पैर पकड़े। पंडित भगवानदीन के घर में दो भैंसें थीं और खेती पानी के अलावा दूध पानी बेचने का धंधा भी करते थे। उनको चरवाहे की जरूरत थी इसलिए पन्द्रह रूपए महीने और खाना खुराक पर टेपचू रख लिया गया। भगवानदीन असल काइयाँ थे। खाने के नाम पर रात का बचा-खुचा खाना या मक्के की जली-भूनी रोटियाँ टेपचू को मिलतीं। करार तो यह था कि सिर्फ भैसों की देखभाल टेपचू को करनी पड़ेगी, लेकिन वास्तव में भैसों के अलावा टेपचू को पंडित के घर से लेकर खेत-खलिहान तक का सारा काम करना पड़ता था। सुबह चार बजे उसे जगा दिया जाता और रात में सोते-सोते बारह बज जाते। एक महीने में ही टेपचू की हालत देखकर फिरोजा पिघल गई। छाती में भीतर से रूलाई का जोरदार भभका उठा। उसने टेपचू से कहा भी कि बेटा इस पंडित का द्वार छोड़ दे। कहीं और देख लेंगे। यह तो मुआ कसाई है पूरा, लेकिन टेपचू ने इंकार कर दिया।

टेपचू ने यहाँ भी जुगाड़ जमा लिया। भैसों को जंगल में ले जाकर वह छुट्टा छोड़ देता और किसी पेड़ के नीचे रात की नींद पूरी करता। इसके बाद उठता। सोन नदी में भैसों को नहलाता, कुल्ला वगैरह करता। फिर इधर-उधर अच्छी तरह से देख-ताककर डालडा के खाली डिब्बे में एक किलो भैंस का ताजा दूध दुहकर चढ़ा लेता। उसकी सेहत सुधरने लगी।

एक बार पंडिताइन ने उसे किसी बात पर गाली बकी और खाने के लिए सड़ा हुआ बासी भात दे दिया। उस दिन टेपचू को पंडित के खेत की निराई भी करनी पड़ी थी और थकान और भूख से वह बेचैन था। भात का कौर मुँह में रखते ही पहले तो खटास का स्वाद मिला, फिर उबकाई आने लगी। उसने सारा खाना भैसों की नाँद में डाल दिया और भैसों को हाँककर जंगल ले गया।

शाम को जब भैसें दुही जाने लगीं तो छटाँक भर भी दूध नहीं निकला। पंडित भगवानदीन को शक पड़ गया और उन्होंने टेपचू की जूतों से पिटाई की। देर तक मुर्गा बनाए रखा, दीवाल पर उकडू बैठाया, थप्पड़ चलाए और काम से उसे निकाल दिया।

इसके बाद टेपचू पी.डब्ल्यू.डी. में काम करने लगा। राखड़ मुरम, बजरी बिछाने का काम। सड़क पर डामर बिछाने का काम। बड़े-बड़े मर्दों के लायक काम। चिलचिलाती धूप में। फिरोजा मकई के आटे में मसाला - नमक मिलाकर रोटियाँ सेंक देती। टेपचू काम के बीच में, दोपहर उन्हें खाकर दो लोटा पानी सड़क लेता।

ताज्जुब था कि इतनी कड़ी मेहनत के बावजूद टेपचू सिझ-पककर मजबूत होता चला गया। काठी कढ़ने लगी। उसकी कलाई की हडि्ड़याँ चौड़ी होती गईं, पेशियों में मछलियाँ मचलने लगीं। आँखों में एक अक्खड़ रौब और गुस्सा झलकने लगा। पंजे लोहे की माफिक कड़े होते गए।

एक दिन टेपचू एक भरपूर आदमी बन गया। जवान।
पसीने, मेहनत, भूख, अपमान, दुर्घटनाओं और मुसीबतों की विकट धार को चीरकर वह निकल आया था। कभी उसके चेहरे पर पस्त होने, टूटने या हार जाने का गम नहीं उभरा।
उसकी भौहों को देखकर एक चीज हमेशा अपनी मौजूदगी का अहसास कराती-गुस्सा, या शायद घृणा की थरथराती हुई रोशन पर्त।

मैंने इस बीच गाँव छोड़ दिया और बैलाडिला के आयरन ओर मिल में नौकरी करने लगा। इस बीच फिरोजा की मौत हो गई। बालदेव, संभारू और राधे के अलावा गाँव के कई और लोग बैलाडिला में मजदूरी करने लगे। पंडित भगवानदीन को हैजा हो गया और वे मर गए। हाँ, किशनपाल सिंह उसी तरह ताड़ी उतरवाने का धंधा करते रहे। वे कई सालों से लगातार सरपंच बन रहे थे। कस्बे में उनकी पक्की हवेली खड़ी हो गई और बाद में वे एम.एल.ए. हो गए।

लंबा अर्सा गुजर गया। टेपचू की खबर मुझे बहुत दिनों तक नहीं मिली लेकिन यह निश्चित था कि जिन हालात में टेपचू काम कर रहा था, अपना खून निचोड़ रहा था, अपनी नसों की ताकत चट्टानों में तोड़ रहा था - वे हालात किसी के लिए भी जानलेवा हो सकते थे।

टेपचू से मेरी मुलाकात पर तब हुई, जब वह बैलाडिला आया। पता लगा कि किशनपाल सिंह ने गुंडों से उसे बुरी तरह पिटवाया था। गुंडों ने उसे मरा हुआ जानकर सोन नदी में फेंक दिया था, लेकिन वह सही सलामत बच गया और उसी रात किशनपाल सिंह की पुआल में आग लगाकर बैलाडिला आ गया। मैंने उसकी सिफारिश की और वह मजदूरी में भर्ती कर लिया गया।

वह सन अठहत्तर का साल था।
हमारा कारखाना जापान की मदद से चल रहा था। हम जितना कच्चा लोहा तैयार करते, उसका बहुत बड़ा हिस्सा जापान भेज दिया जाता। मजदूरों को दिन-रात खदान में काम करना पड़ता।

टेपचू इस बीच अपने साथियों से पूरी तरह घुल-मिल गया था। लोग उसे प्यार करते। मैंने वैसा बेधड़क, निडर और मुँहफट आदमी और नहीं देखा। एक दिन उसने कहा था, "काका, मैंने अकेले लड़ाइयाँ लड़ी है। हर बार मैं पिटा हूँ। हर बार हारा हूँ। अब अकेले नहीं, सबके साथ मिलकर देखूँगा कि सालों में कितना जोर है।"

इन्हीं दिनों एक घटना हुई। जापान ने हमारे कारखाने से लोहा खरीदना बंद कर दिया, जिसकी वजह से सरकारी आदेश मिला कि अब हमें कच्चे लोहे का उत्पादन कम करना चाहिए। मजदूरों की बड़ी तादाद में छँटनी करने का सरकारी फरमान जारी हुआ। मजदूरों की तरफ से माँग की गई कि पहले उनकी नौकरी का कोई दूसरा बंदोबस्त कर दिया जाए तभी उनकी छँटनी की जाए। इस माँग पर बिना कोई ध्यान दिए मैनेजमेंट ने छँटनी पर फौरन अमल शुरू कर दिया। मजदूर यूनियन ने विरोध में हड़ताल का नारा दिया। सारे मजदूर अपनी झुग्गियों में बैठ गए। कोई काम पर नहीं गया।

चारों तरफ पुलिस तैनात कर दी गई। कुछ गश्ती टुकड़ियाँ भी रखी गई, जो घूम-घूमकर स्थिति को कुत्तों की तरह सूँघने का काम करती थीं। टेपचू से मेरी भेंट उन्हीं दिनों शेरे पंजाब होटल के सामने पड़ी लकड़ी की बेंच पर बैठे हुए हुई। वह बीड़ी पी रहा था। काले रंग की निकर पर उसने खादी का एक कुर्ता पहन रखा था।

मुझे देखकर वह मुस्कराया, "सलाम काका, लाल सलाम।" फिर अपने कत्थे-चूने से रंगे मैले दांत निकालकर हँस पड़ा, "मनेजमेंट की गाँड में हमने मोटा डंडा घुसेड़ रखा है। साले बिलबिला रहे हैं, लेकिन निकाले निकलता नहीं काका, दस हजार मजदूरों को भुक्खड़ बनाकर ढोरों की माफिक हाँक देना कोई हँसी-ठठ्ठा नहीं है। छँटनी ऊपर की तरफ से होनी चाहिए। जो पचास मजदूरों के बराबर पगार लेता हो, निकालो सबसे पहले उसे, छाँटो अजमानी साहब को पहले।"

टेपचू बहुत बदल गया था। मैंने गौर से देखा उसकी हँसी के पीछे घृणा, वितृष्णा और गुस्से का विशाल समुंदर पछाड़े मार रहा था। उसकी छाती उघड़ी हुई थी। कुर्ते के बटन टूटे हुए थे। कारखाने के विशालकाय फाटक की तरह खुले हुए कुर्ते के गले के भीतर उसकी छाती के बाल हिल रहे थे, असंख्य मजदूरों की तरह, कारखाने के मेन गेट पर बैठे हुए। टेपचू ने अपने कंधे पर लटकते हुए झोले से पर्चे निकाले और मुझे थमाकर तीर की तरह चला गया।

कहते हैं, तीसरी रात यूनियन ऑफिस पर पुलिस ने छापा मारा। टेपचू वहीं था। साथ में और भी कई मजदूर थे। यूनियन ऑफिस शहर से बिल्कुल बाहर दूसरी छोर पर था। आस-पास कोई आबादी नहीं थी। इसके बाद जंगल शुरू हो जाता था। जंगल लगभग दस मील तक के इलाके में फैला हुआ था।

मजदूरों ने पुलिस को रोका, लेकिन दरोगा करीम बख्श तीन-चार कांस्टेबुलों के साथ जबर्दस्ती अंदर घुस गया। उसने फाइलों, रजिस्टरों, पर्चों को बटोरना शुरू किया। तभी टेपचू सिपाहियों को धकियाते हुए अंदर पहुँचा और चीखा, "कागज-पत्तर पर हाथ मत लगाना दरोगाजी, हमारी डूटी आज यूनियन की तकवानी में हैं। हम कहे दे रहे हैं। आगा-पीछा हम नहीं सोचते, पर तुम सोच लो, ठीक तरह से।"
दरोगा चौंका। फिर गुस्से में उसकी आँखें गोल हो गई, और नथुने साँढ की तरह फड़कने लगे, "कौन है मादर त़ूफानी सिंह, लगाओ साले को दस डंडे।"

सिपाही तूफानी सिंह आगे बढ़ा तो टेपचू की लंगड़ी ने उसे दरवाजे के आधा बाहर और आधा भीतर मुर्दा छिपकली की तरह ज़मीन पर पसरा दिया। दरोगा करीम बख्श ने इधर-उधर देखा। सिपाही मुस्तैद थे, लेकिन कम पड़ रहे थे। उन्होंने इशारा किया लेकिन तब तक उनकी गर्दन टेपचू की भुजाओं में फँस चुकी थी।

मजदूरों का जत्था अंदर आ गया और तड़ातड़ लाठियाँ चलने लगीं। कई सिपाहियों के सिर फूटे। वे रो रहे थे और गिड़गिड़ा रहे थे। टेपचू ने दरोगा को नंगा कर दिया था।

पिटी हुई पुलिस पलटन का जुलूस निकाला गया। आगे-आगे दरोगाजी, फिर तूफानी सिंह, लाइन से पाँच सिपाहियों के साथ। पीछे-पीछे मजदूरों का हुजूम ठहाके लगाता हुआ। पुलिस वालों की बुरी गत बनी थी। यूनियन ऑफिस से निकलकर जुलूस कारखाने के गेट तक गया, फिर सिपाहियों को छोड़कर मस्ती और गर्व में डूबे हुए लोग लौट गए। टेपचू की गर्दन अकड़ी हुई थी और वह साल्हो दादर गाने लगा था।

अगले दिन सबेरे टेपचू झुग्गी से निकलकर टट्टी करने जा रहा था कि पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया। और भी बहुत से लोग पकड़े गए थे। चारों तरफ गिरफ्तारियाँ चल रही थीं।

टेपचू को जब पकड़ा गया तो उसने टट्टीवाला लोटा खींचकर तूफानीसिंह को मारा। लोटा माथे के बीचोंबीच बैठा और गाढ़ा गंदा खून छलछला आया। टेपचू ने भागने की कोशिश की, लेकिन वह घेर लिया गया। गुस्से में पागल तूफानी सिंह ने तड़ातड़ डंडे चलाए। मुँह से बेतहाशा गालियाँ फूट रही थीं।
सिपाहियों ने उसे जूते से ठोकर मारी। घूँसे-लात चलाए। दरोगा करीम बख्श भी जीप से उतर आए। यूनियन ऑफिस में की गई अपनी बेइज्जती उन्हें भूली नहीं थी। दरोगा करीम बख्श ने तूफानी सिंह से कहा कि टेपचू को नंगा किया जाए और गांड में एक लकड़ी ठोंक दी जाए। तूफानी सिंह ने यह काम सिपाही गजाधर शर्मा के सुपुर्द किया।

गजाधर शर्मा ने टेपचू का निकर खींचा तो दरोगा करीम बख्श का चेहरा फक हो गया। फिरोजा ने टेपचू की बाकायदा खतौनी कराई थी। टेपचू दरोगा का नाम तो नही जानता था, लेकिन उसका चेहरा देखकर जात जरूर जान गया। दरोगा करीम बख्श ने टेपचू की कनपटी पर एक डंडा जमाया, "मादर ऩाम क्या है तेरा?"
टेपचू ने कुर्ता उतारकर फेंक दिया और मादरजाद अवस्था में खड़ा हो गया, "अल्ला बख्श बलद अब्दुल्ला बख्श साकिन मड़र मौजा पौंड़ी, तहसील सोहागपुर, थाना जैतहरी, पेशा मज़दूरी - "इसके बाद उसने टाँगे चौड़ी कीं, घूमा और गजाधर शर्मा, जो नीचे की ओर झुका हुआ था, उसके कंधे पर पेशाब की धार छोड़ दी, "जिला शहडोल, हाल बासिंदा बैलाडिला"

टेपचू को जीप के पीछे रस्सी से बाँधकर डेढ़ मील तक घसीटा गया। सड़क पर बिछी हुई बज़ड़ी और मुरम ने उसकी पीठ की पर्त निकाल दी। लाल टमाटर की तरह जगह-जगह उसका गोश्त बाहर झाँकने लगा।

जीप कस्बे के पार आखिरी चुंगी नाके पर रूकी। पुलिस पलटन का चेहरा खूँखार जानवरों की तरह दहक रहा था। चुंगी नाकेपर एक ढाबा था। पुलिस वाले वहीं चाय पीने लगे।
टेपचू को भी चाय पीने की तलब महसूस हुई, "एक चा इधर मारना छोकड़े, कड़क।" वह चीखा। पुलिस वाले एक-दूसरे की ओर कनखियों से देखकर मुस्कराए। टेपचू को चाय पिलाई गई। उसकी कनपटी पर गूमड़ उठ आया था और पूरा शरीर लोथ हो रहा था। जगह-जगह से लहू चुहचुहा रहा था।

जीप लगभग दस मील बाद जंगल के बीच रूकी। जगह बिलकुल सुनसान थी। टेपचू को नीचे उतारा गया। गजाधर शर्मा ने एक दो डंडे और चलाए। दरोगा करीम बख्श भी जीप से उतरे और उन्होंने टेपचू से कहा, "अल्ला बख्श उर्फ टेपचू, तुम्हें दस सेकेंड का टाइम दिया जाता है। सरकारी हुकुम मिला है कि तुम्हारा जिला बदल कर दिया जाए। सामने की ओर सड़क पर तुम जितनी जल्द दूर-से-दूर भाग सकते हो, भागो। हम दस तक गिनती गिनेंगे।"

टेपचू लंगड़ाता-डगमगाता चल पड़ा। करीम बख्श खुद गिनती गिन रहे थे। एक-दो-तीन-चार-पाँच। लंगड़े, बुढ़े, बीमार बैल की तरह खून में नहाया हुआ टेपचू अपने शरीर को घसीट रहा था। वह खड़ा तक नहीं हो पा रहा था, चलने और भागने की तो बात दूर थी।
अचानक दस की गिनती खत्म हो गई। तूफानी सिंह ने निशाना साधकर पहला फायर किया धांय।
गोली टेपचू की कमर में लगी और वह रेत के बोरे की तरह जमीन पर गिर पड़ा। कुछ सिपाही उसके पास पहुँचे। कनपटी पर बूट मारी। टेपचू कराह रहा था, "हरामजादो।"
गजाधर शर्मा ने दरोगा से कहा, "साब अभी थोड़ा बहुत बाकी है।" दरोगा करीम बख्श ने तूफानी सिंह को इशारा किया। तूफानी सिंह ने करीब जाकर टेपचू के दोनों कंधों के पास, दो-दो इंच नीचे दो गोलियाँ और मारीं, बंदूक की नाल लगभग सटाकर। नीचे की जमीन तक उधड़ गई।
टेपचू धीमे-धीमे फड़फड़ाया। मुँह से खून और झाग के थक्के निकले। जीभ बाहर आई। आँखें उलटकर बुझीं। फिर वह ठंडा पड़ गया।

उसकी लाश को जंगल के भीतर महुए की एक डाल से बाँधकर लटका दिया गया था। मौके की तस्वीर ली गई पुलिस ने दर्ज किया कि मजदूरों के दो गुटों में हथियारबंद लड़ाई हुई। टेपचू उर्फ अल्ला बख्श को मारकर पेड़ में लटका दिया गया था। पुलिस ने लाश बरामद की। मुजरिमों की तलाश जारी है।

इसके बाद टेपचू की लाश को सफेद चादर से ढककर संदूक में बंद कर दिया गया और जीप में लादकर पुलिस चौकी लाया गया।

रायगढ़ बस्तर, भोपाल सभी जगह से पुलिस की टुकड़ियाँ आ गई थीं। सी.आर.पी.वाले गश्त लगा रहे थे। चारों ओर धुआँ उठ रहा था। झुग्गियाँ जला दी गई थीं। पचासों मजदूर मारे गए। पता नहीं क्या-क्या हुआ था।

सुबह टेपचू की लाश को पोस्टमार्टम के लिए जिला अस्पताल भेजा गया। डॉ.एडविन वर्गिस ऑपरेटर थिएटर में थे। वे बड़े धार्मिक किस्म के ईसाई थे। ट्राली-स्ट्रेचर में टेपचू की लाश अंदर लाई गई। डॉ.वर्गिस ने लाश की हालत देखी। जगह-जगह थ्री-नॉट-थ्री की गोलियाँ धंसी हुई थीं। पूरी लाश में एक सूत जगह नहीं थी, जहाँ चोट न हो।

उन्होंने अपना मास्क ठीक किया, फिर उस्तरा उठाया। झुके और तभी टेपचू ने अपनी आँखें खोलीं। धीरे से कराहा और बोला, "डॉक्टर साहब, ये सारी गोलियाँ निकाल दो। मुझे बचा लो। मुझे इन्हीं कुत्तों ने मारने की कोशिश की है।"

डॉक्टर वर्गिस के हाथ से उस्तरा छूटकर गिर गया। एक घिघियाई हुई चीख उनके कंठ से निकली और वे ऑपरेशन रूम से बाहर की ओर भागे।

आप कहेंगे कि ऐसी अनहोनी और असंभव बातें सुनाकर मैं आपका समय खराब कर रहा हूँ। आप कह सकते हें कि इस पूरी कहानी में सिवा सफेद झूठ के और कुछ नहीं है।

मैंने भी पहले ही अर्ज किया था कि यह कहानी नहीं है, सच्चाई है। आप स्वीकार क्यों नहीं कर लेते कि जीवन की वास्तविकता किसी भी काल्पनिक साहित्यिक कहानी से ज्यादा हैरत अंगेज होती है। और फिर ऐसी वास्तविकता जो किसी मजदूर के जीवन से जुड़ी हुई हो।

हमारे गाँव मड़र के अलावा जितने भी लोग टेपचू को जानते हैं वे यह मानते हैं कि टेपचू कभी मरेगा नहीं - साला जिन्न है।

आपको अब भी विश्वास न होता हो तो जहाँ, जब, जिस वक्त आप चाहें, मैं आपको टेपचू से मिलवा सकता हूँ।

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१ अप्रैल २००४

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