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					 हमारे गाँव में दस-ग्यारह साल पहले अब्बी नाम का एक मुसलमान 
					रहता था। गाँव के बाहर जहाँ चमारों की बस्ती है, उसी से कुछ 
					हटकर तीन-चार घर मुसलमानों के थे। मुसलमान, मुर्गियाँ, बकरियाँ 
					पालते थे। लोग उन्हें चिकवा या कटुआ 
					कहते थे। वे बकरे-बकरियों के 
					गोश्त का धंधा भी करते थे। थोड़ी बहुत जमीन भी उनके पास होती 
					थी। 
 अब्बी आवारा और फक्कड़ किस्म का आदमी था। उसने दो-दो औरतों के 
					साथ शादी कर रखी थी। बाद में एक औरत जो ज्यादा खूबसूरत थी, 
					कस्बे के दर्जी के घर जाकर बैठ गई। अब्बी ने गम़ नहीं किया। 
					पंचायत ने दऱ्जी को जितनी रकम भरने को कहा, उसने भर दी। अब्बी 
					ने उन रूपयों से कुछ दिनों ऐश किया और फिर एक हारमोनियम खरीद 
					लाया। अब्बी जब भी हाट जाता, उसी दर्जी के घर रुकता। 
					खाता-पीता, जश्न मनाता, अपनी पुरानी बीवी को फुसलाकर कुछ रूपए 
					ऐठता और फिर खरीदारी करके घर लौट आता।
 
 कहते हैं, अब्बी खूबसूरत था। उसके चेहरे पर हल्की-सी लुनाई थी। 
					दुबला-पतला था। बचपन में बीमार रहने और बाद में खाना-पीना 
					नियमित न रहने के कारण उसका रंग हल्का-सा हल्दिया हो गया था। 
					वह गोरा दिखता था। लगता था, जैसे उसके शरीर ने कभी धूप न खाई 
					हो। अँधेरे में, धूप और हवा से दूर उगने वाले गेहूँ के पीले 
					पौधे की तरह उसका रंग था। फिर भी, उसमें जाने क्या गुण था कि 
					लड़कियाँ उस पर फिदा हो जाती थीं। शायद इसका एक कारण यह रहा हो 
					कि दूर दराज शहर में चलने वाले फैशन सबसे पहले गाँव में उसी के 
					द्वारा पहुँचते थे। जेबी कंघी, धूप वाला चश्मा, जो बाहर से 
					आईने की तरह चमकता था, लेकिन भीतर से आर-पार दिखाई देता था, 
					तौलिए जैसे कपड़े की नंबरदार पीली बनियान, 
					पंजाबियों का 
					अष्टधातु का कड़ा, रबर का हंटर वगैरह ऐसी चीजें थी, जो अब्बी 
					शहर से गाँव लाया था।
 
 जब से अब्बी ने हारमोनियम खरीदा था, तब से वह दिन भर 
					चीपों-चीपों करता रहता था। उसकी जेब में एक-एक आने में बिकने 
					वाली फिल्मी गानों की किताबें होतीं। उसने शहर में कव्वालों को 
					देखा था और उसकी दिली ख्वाहिश थी कि वह कव्वाल बन जाए, लेकिन 
					जी-तोड़ कोशिश करने के बाद भी "हमें तो लूट लिया मिल के 
					हुस्नवालों ने" के अलावा और 
					दूसरी कोई कव्वाली उसे याद ही 
					नहीं हुई।
 
 बाद में अब्बी ने अपनी दाढ़ी-मूंछ बिल्कुल सफाचट कर दी और बाल 
					बढ़ा लिए। चेहरे पर मुरदाशंख पोतने लगा। गाँव के धोबी का लड़का 
					जियावन उसके साथ-साथ डोलने लगा और दोनों गाँव-गाँव जाकर 
					गाना-बजाना करने लगे। अब्बी इस काम को आर्ट कहता था, लेकिन 
					गाँव के लोग कहते थे, "ससुर, भड़ैती कर रहा है।" अब्बी इतनी 
					कमाई कर लेता था कि उसकी बीवी खा-पहन सके।
 टेपचू इसी अब्बी का लड़का था।
 टेपचू जब दो साल का था, तभी अब्बी की अचानक मौत हो गई।
 
 अब्बी की मृत्यु भी बड़ी अजीबो-गरीब दुर्घटना में हुई। आषाढ़ 
					के दिन थे। सोन उमड़ रही थी। सफेद फेन और लकड़ी के सड़े हुए 
					लठ्ठे-पटरे धार में उतरा रहे थे। पानी मटैला हो गया था, चाय के 
					रंग जैसा, और उसमें कचरा, काई, घास-फूस बह रहे थे। यह बाढ़ की 
					पूर्व सूचना थी। घंटे-दो घंटे के भीतर सोन नदी में पानी बढ़ 
					जाने वाला था। अब्बी और जियावन को जल्दी थी, इसलिए वे बाढ़ से 
					पहले नदी पार कर लेना चाहते थे। जब तक वे पार जाने का फैसला 
					करें और पानी में पाँव दे तब तक सोन में कमर तक पानी हो गया 
					था। जहाँ कहीं गाँव के लोगों ने कुइयाँ खोदी थीं, वहाँ छाती तक 
					पानी पहुँच गया था। कहते हैं कि जियावन और अब्बी बहुत इत्मीनान 
					से नदी पार कर रहे थे। नदी के दूसरे तट पर गाँव की औरतें घड़ा 
					लिए खड़ी थीं। अब्बी उन्हें देखकर मौज में आ गया। जियावन ने 
					परदेसिया की लंबी तान खींची। अब्बी भी सुर मिलाने लगा। गीत कुछ 
					गुदगुदीवाला था। औरतें खुश थीं और खिलखिला रही थीं। अब्बी कुछ 
					और मस्ती में आ गया। जियावन के गले में अंगोछे से बंधा 
					हारमोनियम झूल रहा था। अब्बी ने हारमोनियम उससे लेकर अपने गले 
					में लटका लिया और रसदार साल्हो गाने लगा। दूसरे किनारे पर खड़ी 
					हुई औरतें खिलखिला ही रही थीं कि उनके गले से चीख निकल गई। 
					जियावन अवाक होकर खड़ा ही रह गया। अब्बी का पैर शायद धोखे से 
					किसी कुइयाँ या गड्ढ़े में पड़ गया था। वह बीच धार में गिर 
					पड़ा। गले में लटके हुए हारमोनियम ने उसको हाथ पांव मारने तक 
					का मौका न दिया। हुआ यह था कि अब्बी किसी फिल्म में देखे हुए 
					वैजयंती माला के नृत्य की नकल उतारने में लगा हुआ था और इसी 
					नृत्य के दौरान उसका पैर किसी कुइयाँ में पड़ गया। कुछ लोग 
					कहते हैं कि नदी में 'चोर बालू' भी होता है। ऊपर-ऊपर से देखने 
					पर रेत की सतह बराबर लगती 
					है, लेकिन उसके नीचे अतल गहराई होती है प़ैर रखते ही आदमी 
					उसमें समा सकता है।
 
 अब्बी की लाश और हारमोनियम, दोनों को ढूँढ़ने की बहुत कोशिश की 
					गई। मलंगा जैसा मशहूर मल्लाह गोते लगाता रहा, लेकिन सब बेकार। 
					कुछ पता ही नहीं चला।
 
 अब्बी की औरत फिरोज़ा जवान थी। अब्बी के मर जाने के बाद 
					फिरोज़ा के सिर पर मुसीबतों के पहाड़ टूट पड़े। वह घर-घर जाकर 
					दाल-चावल फटकने लगी। खेतों में मज़दूरी शुरू की। बगीचों की 
					तकवानी का काम करना शुरू किया, तब कहीं जाकर दो रोटी मिल पाती। 
					दिन भर वह ढेंकी कूटती, सोन नदी से मटके भर-भरकर पानी ढोती, घर 
					का सारा काम काज करना पड़ता, रात खेतों की तकवानी में निकल 
					जाती। घर में एक बकरी थी, जिसकी देखभाल भी उसे ही करनी पड़ती। 
					इतने सारे कामों के दौरान टेपचू उसके पेट पर, एक पुरानी साड़ी 
					में बँधा हुआ चमगादड़ की तरह झूलता रहता।
 
 फिरोजा को अकेला जानकर गाँव के कई खाते-पीते घरानों के छोकरों 
					ने उसे पकड़ने की कोशिश की, लेकिन टेपचू हर वक्त अपनी मां के 
					पास कवच की तरह होता। दूसरी बात, वह इतना घिनौना था कि फिरोजा 
					की जवानी पर गोबर की तरह लिथड़ा हुआ लगता था। पतले-पतले सूखे 
					हुए झुर्रीदार हाथ-पैर, कद्दू की तरह फूला हुआ पेट, फोड़ों से 
					भरा हुआ शरीर। लोग टेपचू के मरने का इंतजार करते रहे। एक साल 
					गुजरते-गुजरते हाड़-तोड़ मेहनत ने फिरोजा की देह को झिंझोड़कर 
					रख दिया। वह बुढ़ा गई। उसके बाल उलझे हुए सूखे और गंदे रहते। 
					कपड़ों से बदबू आती। शरीर मैल पसीने और गर्द से चीकट रहा करता। 
					वह लगातार काम करती रही। लोगों को उससे घिन होने लगी।
 
 टेपचू जब सात-आठ साल का हुआ, 
					गाँव के लोगों की दिलचस्पी उसमें 
					पैदा हुई।
 हमारे गाँव के बाहर, दूर तक फैले धान के खेतों के पार आम का एक 
					घना बगीचा था। कहा जाता है कि गाँव के संभ्रांत किसान घरानों, 
					ठाकुरों-ब्राह्मणों की कुलीन कन्याएं उसी बगीचे के अंधेरे 
					कोनों में अपने अपने यारों से मिलतीं। हर तीसरे-चौथे साल उस 
					बगीचे के किसी कोने में अलस्सुबह कोई नवजात शिशु रोता हुआ 
					लावारिस मिल जाता था। इस तरह के ज्यादातर बच्चे स्वस्थ, सुदर 
					और गोरे होते थे। निश्चित ही गाँव के आदिवासी कोल-गोंडों के 
					बच्चे वे नहीं कहे जा सकते थे। हर बार पुलिस आती। दरोगा ठाकुर 
					साहब के घर में बैठा रहता। पूरी पुलिस पलटन का खाना वहाँ पकता। 
					मुर्गे गाँव से पकड़वा लिए जाते। शराब आती। शाम को पान चबाते, 
					मुस्कराते और गाँव की लड़कियों से चुहलबाजी करते पुलिस वाले 
					लौट जाया करते। मामला हमेशा रफा-दफा हो जाता था।
 
 इस बगीचे का पुराना नाम मुखियाजी का बगीचा था। वर्षों पहले 
					चौधरी बालकिशन सिंह ने यह बगीचा लगाया था। मंशा यह थी कि खाली 
					पड़ी हुई सरकारी जमीन को धीरे-धीरे अपने कब्ज़े में कर लिया 
					जाए। अब तो वहाँ आम के दो-ढ़ाई सौ पेड़ थे, लेकिन इस बगीचे का 
					नाम अब बदल गया था। इसे लोग भुतहा बगीचा कहते थे, क्योंकि 
					मुखिया बालकिशन सिंह का भूत उसमें बसने लगा था। रात-बिरात उधर 
					जाने वाले लोगों की घिग्घी बँध जाती थी। बालकिशन सिंह के बड़े 
					बेटे चौधरी किशनपाल सिंह एक बार उधर से जा रहे थे तो उनको किसी 
					स्त्री के रोने की आवाज सुनाई पड़ी। जाकर देखा झ़ाड़ियों, 
					झुरमुटों को तलाशा तो कुछ नहीं। उनके सिर तक के बाल खड़े हो 
					गए। धोती का फेंटा खुल गया और वे 'हनुमान-हनुमान' 
					करते भाग खड़े हुए।
 
 तब से वहाँ अक्सर रात में किसी स्त्री की कराहने या रोने की 
					करुण आवाज सुनी जाने लगी। दिन में जानवरों की हडि्डयाँ, 
					जबड़े या चूड़ियों के टुकड़े वहाँ बिखरे दिखाई देते। गाँव के 
					कुछ लफंगों का कहना था कि उस बगीचे में भूत-ऊत कुछ नहीं रहता। 
					सब मुखिया के घराने द्वारा फैलाई गई अफवाह है। साले ने उस 
					बगीचे को ऐशगाह बना रखा है।
 
 एक बार मैं पड़ोस के गाँव में शादी के न्यौते में गया था। 
					लौटते हुए रात हो गई। बारह बजे होंगे। संग में राधे, संभारू और 
					बालदेव थे। रास्ता बगीचे के बीच से गुजरता था। हम लोगों ने हाथ 
					में डंडा ले रखा था। अचानक एक तरफ सूखे पत्तों की चरमराहट 
					सुनाई पड़ी। लगा, जैसे कोई जंगली सूअर बेफिक्री से पत्तियों को 
					रौंदता हुआ हमारी ओर ही चला आ रहा है। हम लोग रूककर आहट लेने 
					लगे। गर्मी की रात थी। जेठ का महीना। अचानक आवाज़ जैसे ठिठक 
					गई। सन्नाटा खिंच गया। हम टोह लेने लगे। भीतर से डर भी लग रहा 
					था। बालदेव आगे बढ़ा, कौन है, बे, छोह-छोह। उसने जमीन पर लाठी 
					पटकी हालाँकि उसकी नसें ढीली पड़ रही थीं। कहीं मुखिया का 
					जिन्न हुआ तो? मैंने किसी तरह हिम्मत जुटाई, "अबे, होह, होह।" 
					बालदेव को आगे बढ़ा देखा संभारू भी तिड़ी हो गया। पगलेटों की 
					तरह दाएं-बाएं ऊपर-नीचे लाठियाँ भाँजता वह उसी ओर लपका।
 तभी एक बारीक और तटस्थ सी आवाज़ सुनाई पड़ी, "हम हन भइया, हम।"
 "तू कौन है बे?"बालदेव कड़का।
 
 अँधेरे से बाहर निकलकर टेपचू आया, "काका, हम हन टेपचू।" वह 
					बगीचे के बनते-मिटते घने अंधेरे में धुँधला सा खड़ा था। हाथ 
					में थैला था। मुझे ताज्जुब हुआ। "इतनी रात को इधर क्या कर रहा 
					है कटुए?"
 थोड़ी देर टेपचू चुप रहा। फिर डरता हुआ बोला, "अम्मा को लू लग 
					गई थी। दोपहर मुखिया के खेत की तकवानी में गई थी, घाम खा गई। 
					उसने कहा कि कच्ची अमिया का पना मिल जाए तो जुड़ा जाएगी। बड़ा 
					तेज जर था।"
 "भूत-डाइन का डर नहीं लगा तुझे मुए? किसी दिन साले की लाश 
					मिलेगी किसी झाड़-झंखाड़ में।" राधे ने कहा। टेपचू हमारे साथ 
					ही गाँव लौटा। रास्ते भर चुपचाप चलता रहा। जब उसके घर जाने 
					वाली गली का मोड़ आया तो बोला, "काका, मुखिया से मत खोलना यह 
					बात नहीं तो मार-मार कर भरकस बना देगा हमें।"
 टेपचू की उम्र उस समय मुश्किल से सात-आठ साल की रही होगी।
 
 दूसरी बार यों हुआ कि टेपचू अपनी अम्मा फ़िरोजा से लड़कर घर से 
					भाग गया। फिरोजा ने उसे जलती हुई चूल्हे की लकड़ी से पीटा था। 
					सारी दोपहर, चिनचिनाती धूप में टेपचू जंगल में ढोर-ढंगरों के 
					साथ फिरता रहा। फिर किसी पेड़ के नीचे छाँह में लेट गया। थका 
					हुआ था। आँख लग गई। नींद खुली तो आँतों में खालीपन था। पेट में 
					हल्की-सी आँच थी भूख की। बहुत देर तक वह यों ही पड़ा रहा, 
					टुकुर-टुकुर आसमान ताकता। फिर भूख की आँच में जब कान के लवे तक 
					गर्म होने लगे तो सुस्त-सा उठकर सोचने लगा कि अब क्या जुगाड़ 
					किया जाए। उसे याद आया कि सरई के पेड़ों के पार 
					जंगल के बीच एक मैदान है। वहीं 
					पर पुरनिहा तालाब है।
 
 वह तालाब पहुँचा। इस तालाब में, दिन में गाँव की भैंसें और रात 
					में बनैले सूअर लोटा करते थे। पानी स्याह-हरा सा दिखाई दे रहा 
					था। पूरी सतह पर कमल और कुई के फूल और पुरईन फैले हुए थे। काई 
					की मोटी पर्त बीच में थी। टेपचू तालाब में घुस गया। वह कमल 
					गट्टे और पुरइन की कांद निकालना चाहता था। तैरना वह जानता था।
 
 बीच तालाब में पहुँचकर वह कमलगट्टे बटोरने लगा एक हाथ में ढेर 
					सारे कमलगट्टे उसने खसोट रखे थे। लौटने के लिए मुड़ा, तो तैरने 
					में दिक्कत होने लगी। जिस रास्ते से पानी काटता हुआ वह लौटना 
					चाहता था, वहाँ पुरइन की घनी नालें आपस में उलझी हुई थीं। उसका 
					पैर नालों में उलझ गया और तालाब के बीचों-बीच वह "बक-बक" करने 
					लगा।
 
 परमेसुरा जब भैंस को पानी पिलाने तालाब आया तो उसने "गुड़प 
					ग़ुड़प" की आवाज सुनी। उसे लगा, कोई बहुत बड़ी सौर मछली तालाब 
					में मस्त होकर ऐंठ रही है। जेठ के महीने में वैसे भी मछलियों 
					में गर्मी चढ़ जाती है। उसने कपड़े उतारे और पानी में हेल गया। 
					जहाँ पर मछली तड़प रही थी वहाँ उसने गोता लगाकर मछली के 
					गलफड़ों को अपने पंजों में दबोच लेना चाहा तो उसके हाथ में 
					टेपचू की गर्दन आई। वह पहले तो डरा, फिर उसे खींचकर बाहर निकाल 
					लाया। टेपचू अब मरा हुआ सा पड़ा था। पेट गुब्बारे की तरह फूल 
					गया था और नाक-कान से पानी की धार लगी हुई थी। टेपचू नंगा था 
					और उसकी पेशाब निकल रही थी। परमेसुरा ने उसकी टाँगे पकड़कर उसे 
					लटकाकर पेट में ठेहुना मारा तो "भल-भल" करके पानी मुँह से 
					निकला।
 
 एक बाल्टी पानी की उल्टी करने के बाद टेपचू मुस्कराया। उठा और 
					बोला "काका, थोड़े-से कमलगट्टे तालाब से खींच दोगे क्या? मैंने 
					इत्ता सारा तोड़ा था, साला सब छूट गया। बड़ी भूख लगी है।"
					परमेसुरा ने भैंस हाँकने वाले डंड़े से टेपचू के चूतड़ में 
					चार-पाँच डंडे जमाए और गालियाँ देता हुआ लौट गया।
 
 गाँव के बाहर, कस्बे की ओर जाने वाली सड़क के किनारे सरकारी 
					नर्सरी थी। वहाँ पर प्लांटेशन का काम चल रहा था। बिड़ला के 
					पेपर मिल के लिए बाँस, सागौन और यूक्लिप्टस के पेड़ लगाए गए 
					थे। उसी नर्सरी में, काफी भीतर ताड़ के भी पेड़ थे। गाँव में 
					ताड़ी पीने वालों की अच्छी-खासी तादाद थी। ज्यादातर आदिवासी 
					मजदूर, जो पी.डब्ल्यू.डी. में सड़क बनाने तथा राखड़ गिट्टी 
					बिछाने का काम करते थे, दिन-भर की थकान के बाद रात में ताड़ी 
					पीकर धुत हो जाते थे। पहले वे लोग साँझ का झुटपुटा होते ही 
					मटका ले जाकर पेड़ में बाँध देते थे। ताड़ का पेड़ बिल्कुल 
					सीधा होता है। उस पर चढ़ने की 
					हिम्मत या तो छिपकली कर सकती है या फिर मजदूर। सुबह तक मटके 
					में ताड़ी जमा हो जाती थी। लोग उसे उतार लाते।
 
 ताड़ पर चढ़ने के लिए लोग बाँस की पंक्सियाँ बनाते थे और उस पर 
					पैर फँसा कर चढ़ते थे। इसमें गिरने का खतरा कम होता। अगर उतनी 
					ऊँचाई से कोई आदमी गिर जाता तो उसकी हडि्डयाँ बिखर सकती थीं।
 
 अब ताड़ के उन पेड़ों पर किशनपालसिंह की मिल्कियत हो गई थी। 
					पटवारी ने उस सरकारी नर्सरी के भीतर भी उस जमीन को किशनपालसिंह 
					के पट्टे में निकाल दिया था। अब ताड़ी निकलवाने का काम वही 
					करते थे। ग्राम पंचायत भवन के बैठकी वाले कमरे में, जहाँ 
					महात्मा गांधी की तस्वीर टँगी हुई थी, उसी के नीचे शाम को 
					ताड़ी बाँटी जाती। कमरे के 
					भीतर और बाहर ताड़ीखोर मज़दूरों 
					की अच्छी-खासी जमात इकठ्ठा हो जाती थी। किशनपालसिंह को भारी 
					आमदनी होती थी।
 
 एक बार टेपचू ने भी ताड़ी चखनी चाही। उसने देखा था कि जब गाँव 
					के लोग ताड़ी पीते तो उनकी आँखें आह्लाद से भर जातीं। चेहरे से 
					सुख टपकने लगता। मुस्कान कानों तक चौड़ी हो जाती, मंद-मंद। 
					आनंद और मस्ती में डूबे लोग साल्हो-दादर गाते, ठहाके लगाते और 
					एक-दूसरे की मां-बहन की ऐसी तैसी करते। कोई बुरा नहीं मानता 
					था। लगता जैसे लोग प्यार के अथाह समुंदर में एक साथ तैर रहे 
					हो।
 
 टेपचू को लगा कि ताड़ी जरूर कोई बहुत ऊँची चीज है। सवाल यह था 
					कि ताड़ी पी कैसे जाए। काका लोगों से माँने का मतलब था, पिट 
					जाना। पिटने से टेपचू को सख्त नफरत थी। उसने जुगाड़ जमाया और 
					एक दिन बिल्कुल तड़के, जब सुबह ठीक से हो भी नहीं पाई थी, आकाश 
					में इक्का-दुक्का तारे छितरे हुए थे, वह झाड़ा फिरने के बहाने 
					घर से निकल गया।
 
 ताड़ की ऊँचाई और उस ऊँचाई पर टँगे हुए पके नींबू के आकार के 
					मटके उसे डरा नहीं रहे थे, बल्कि अदृश्य उँगलियों से इशारा कर 
					उसे आमंत्रित कर रहे थे। ताड़ के हिलते हुए डैने ताड़ी के 
					स्वाद के बारे में सिर हिला-हिलाकर बतला रहे थे। टेपचू को 
					मालूम था कि छपरा जिले का लठ्ठबाज मदना सिंह ताड़ी की रखवाली 
					के लिए तैनात था। वह जानता था कि मदना सिंह अभी ताड़ी की 
					खुमारी में कहीं खर्राटें भर रहा होगा। टेपचू के दिमाग में डर 
					की कोई हल्की सी खरोंच तक नहीं थी।
 
 वह गिलहरी की तरह ताड़ के एकसार सीधे तने से लिपट गया और ऊपर 
					सरकने लगा। पैरों में न तो बाँस की पक्सियाँ थी और न कोई रस्सी 
					ही। पंजों के सहारे वह ऊपर सरकता गया। उसने देखा, मदना सिंह 
					दूर एक आम के पेड़ के नीचे अँगोछा बिछाकर सोया हुआ है। टेपचू 
					अब काफी ऊँचाई पर था। आम, महुए बहेड़ा और सागौन के गबदू से 
					पेड़ उसे और ठिंगने नजर आ रहे थे। "अगर मैं गीध की तरह उड़ 
					सकता तो कित्ता मजा आता।" टेपचू ने सोचा। उस ने देखा, उसकी 
					कुहनी के पास एक लाल चींटी रेंग रही थी, "ससुरी" उसने एक भद्दी 
					गाली बकी और मटके की ओर सरकने लगा।
 मदना सिंह जमुहाइयाँ लेने लगा था और हिल-डुलकर जतला रहा था कि 
					उसकी नींद अब टूटने वाली है। धुँधलका भी अब उतना नहीं रह गया 
					था। सारा काम फुर्ती से निपटाना पड़ेगा। टेपचू ने मटके को 
					हिलाया। ताड़ी चौथाई मटके तक इकठ्ठी हो गई थी। उसने मटके में 
					हाथ डालकर ताड़ी की थाह लेनी चाही
 और बस, यहीं सारी गड़बड़ हो गई।
 मटके में फनियल करैत साँप घुसा हुआ था। असल नाग। ताड़ी पीकर वह 
					भी धुत था। टेपचू का हाथ अंदर गया तो वह उसके हाथ में बौड़कर 
					लिपट गया। टेपचू का चेहरा राख की तरह सफेद हो गया। गीध की तरह 
					उड़ने जैसी हरकत उसने की। ताड़ का पेड़ एक तरफ हो गया और उसके 
					समानांतर टेपचू वजनी पत्थर की तरह नींचे को जा रहा था। मटका 
					उसके पीछे था।
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