एक कोठरी में राजकुमारी का
शृंगार होता था। उनकी देह में रामरज पीसकर पोती जाती, मुँह पर
पाउडर लगाया जाता और पाउडर के ऊपर लाल, हरे, नीले रंग की
बुँदकियाँ लगाई जाती थीं। सारा माथा, भौंहें, गाल, ठोड़ी,
बुँदकियों से रच उठती थीं। एक ही आदमी इस काम में कुशल था। वही
बारी-बारी से तीनों पात्रों का शृंगार करता था। रंग की
प्यालियों में पानी लाना, रामरज पीसना, पंखा झलना मेरा काम था।
जब इन तैयारियों के बाद विमान निकलता, तो उस पर रामचंद्र जी के
पीछे बैठकर मुझे जो उल्लास, जो गर्व, जो रोमांच होता था, वह अब
लाट साहब के दरबार में कुरसी पर बैठकर भी नहीं होता। एक बार जब
होम-मेंबर साहब ने व्यवस्थापक-सभा में मेरे एक प्रस्ताव का
अनुमोद किया था, उस वक्त मुझे कुछ उसी तरह का उल्लास, गर्व और
रोमाच था। हाँ, एक बार जब मेरा ज्येष्ठ पुत्र नायब-तहसीलदारी
में नामजद हुआ, तब भी ऐसी ही तरंगे मन में उठी थीं; पर इनमें
और उस बाल-विह्वलता में बड़ा अंतर हैं। तब ऐसा मालूम होता था
कि मैं स्वर्ग में बैठा हूँ।
निषाद-नौका-लीला का दिन था। मैं दो-चार लड़कों के
बहकाने में आकर गुल्ली-डंडा खेलने लगा था। आज शृंगार देखने न गया। विमान भी निकला
पर मैंने खेलना न छोड़ा। मुझे अपना दाँव लेना था। अपना दाँव छोड़ने के लिए उससे
कहीं बढ़कर आत्मत्याग की ज़रूरत थी, जितना मैं कर सकता था। अगर दाँव देना होता तो
मैं कब का भाग खड़ा होता, लेकिन पदाने में कुछ और ही बात होती है। ख़ैर, दाँव पूरा
हुआ। अगर मैं चाहता, तो धांधली करके दस-पाँच मिनट और पदा सकता था, इसकी काफ़ी
गुँजाइश थी, लेकिन अब इसका मौका न था। मैं सीधे नाले की तरफ़ दौड़ा। विमान जल-तट पर
पहुँच चुका था। मैंने दूर से देखा - मल्लाह किश्ती लिए आ रहा है। दौड़ा, लेकिन
आदमियों की भीड़ में दौड़ना कठिन था। आखिर जब मैं भीड़ हटाता, प्राण-पण से आगे
बढ़ता घाट पर पहुँचा, तो निषाद अपनी नौका खोल चुका था। रामचंद्र पर मेरी कितनी
श्रद्धा थी! अपने पाठ की चिंता न करके उन्हें पढ़ा दिया करता था, जिससे वह फेल न हो
जाएँ। मुझसे उम्र ज़्यादा होने पर भी वह नीची कक्षा में पढ़ते थे। लेकिन वही
रामचंद्र नौका पर बैठे इस तरह मुँह फेरे चले जाते थे, मानो मुझसे जान-पहचान ही
नहीं। नकल में भी असल की कुछ-न-कुछ बू आ ही जाती है। भक्तों पर जिनकी निगाह सदा ही
तीखी रही है, वह मुझे क्यों उबारते? मैं विकल होकर उस बछड़े की भाँति कूदने लगा,
जिसकी गरदन पर पहली बार जुआ रखा गया हो। कभी लपककर नाले की ओर जाता, कभी किसी सहायक
की खोज में पीछे की तरफ़ दौड़ता, पर सब-के-सब अपनी धुन में मस्त थे, मेरी चीख-पुकार
किसी के कानों तक न पहुँची। तब से बड़ी-बड़ी विपत्तियाँ झेलीं, पर उस समय जितना
दु:ख हुआ, उतना फिर कभी न हुआ।
मैंने निश्चय किया था अब रामचंद्र से न कभी बोलूँगा, कभी खाने की कोई चीज़ ही
दूँगा, लेकिन ज्यों ही नाले को पार कर के वह पुल की ओर लौटे, मैं दौड़कर विमान पर
चढ़ गया, और ऐसा खुश हुआ, मानो कोई बात ही न हुई थी।
रामलीला समाप्त हो गई थी। राजगद्दी होनेवाली थी,
पर न जाने क्यों देर हो रही थी। शायद चंदा कम वसूल हुआ था। रामचंद्र की इन दिनों
कोई बात भी न पूछता था। न घर ही जाने की छुट्टी मिलती थी, न भोजन का ही प्रबंध होता
था। चौधरी साहब के यहाँ से एक सीधा कोई तीन बजे दिन को मिलता था। बाकी सारे दिन कोई
पानी को नहीं पूछता। लेकिन मेरी श्रद्धा अभी तक ज्यों-की-त्यों थी। मेरी दृष्टि में
वह अब भी रामचंद्र ही थे। घर पर मुझे खाने की कोई चीज़ मिलती, वह लेकर रामचंद्र दे
आता। उन्हें खिलाने में मुझे जितना आनंद मिलता था, उतना आप खा जाने में कभी न
मिलता। कोई मिठाई या फल पाते ही मैं बेतहाशा चौपाल की ओर दौड़ता। अगर रामचंद्र वहाँ
न मिलते तो उन्हें चारों ओर तलाश करता, और जब तक वह चीज़ उन्हें न खिला लेता, मुझे
चैन न आता था।
ख़ैर, राजगद्दी का दिन आ गया, रामलीला के मैदान
में एक बड़ा-सा शामियाना ताना गया। उसकी खूब सजावट की गई। वेश्याओं के दल भी आ
पहुँचे। शाम को रामचंद्र की सवारी निकली, और प्रत्येक द्वार पर उनकी आरती उतारी गई।
श्रद्धानुसार किसी ने रुपए दिए, किसी ने पैसे। मेरे पिता पुलिस के आदमी थे; इसलिए
उन्होंने बिना कुछ दिए ही आरती उतारी। उस वक्त मुझे जितनी लज्जा आई, उसे बयान नहीं
कर सकता। मेरे पास उस वक्त संयोग से एक रुपया था। मेरे मामा जी दशहरे के पहले आए थे
और मुझे एक रुपया दे गए थे। उस रुपए को मैंने रख छोड़ा था। दशहरे के दिन भी उसे
खर्च न कर सका। मैंने तुरंत वह रुपया लाकर आरती की थाली में डाल दिया। पिता जी मेरी
ओर कुपित-नेत्रों से देखकर रह गए। उन्होंने कुछ कहा तो नहीं; लेकिन मुँह ऐसा बना
लिया, जिससे प्रकट होता था कि मेरी इस धृष्टता से उनके रोब में बट्टा लग गया। रात
के दस बजते-बजते यह परिक्रमा पूरी हुई। आरती की थाली रुपयों और पैसों से भरी हुई
थी। ठीक तो नहीं कह सकता, मगर अब ऐसा अनुमान होता है कि चार-पाँच सौ रुपयों से कम न
थे। चौधरी साहब इनसे कुछ ज़्यादा ही खर्च चुके थे। उन्हें इसकी बड़ी फिक्र हुई कि
किसी तरह कम-से-कम दो सौ रुपए और वसूल हो जाएँ और इसकी सबसे अच्छी तरकीब उन्हें यही
मालूम हुई कि वेश्याओं द्वारा महफ़िल में वसूली हो। जब लोग आकर बैठ जाएँ, और महफ़िल
का रंग जम जाए, तो आबादीजान रसिकजनों की कलाइयाँ पकड़-पकड़कर ऐसे हाव-भाव दिखाएँ कि
लोग शरमाते-शरमाते भी कुछ-न-कुछ दे ही मरें। आबादीजान और चौधरी साहब में सलाह होने
लगी। मैं संयोग से उन दोनों प्राणियों की बातें सुन रहा था। चौधरी साहब ने समझा
होगा, यह लौंडा क्या मतलब समझेगा। पर यहाँ ईश्वर की दया से अक्ल के पुतले थे। सारी
दास्तान समझ में आती-जाती थी।
चौधरी - सुनो आबादीजान, यह तुम्हारी ज़्यादती है।
हमारा और तुम्हारा कोई पहला साबिका तो है नहीं। ईश्वर ने चाहा तो यहाँ हमेशा
तुम्हारा आना-जाना लगा रहेगा। अब की चंदा बहुत कम आया, नहीं तो मैं तुमसे इतना
इसरार न करता।
आबादी - आप मुझसे भी ज़मींदारी चालें चलते हैं, क्यों? मगर यहाँ हुजूर की दाल न
गलेगी। वाह! रुपए तो मैं वसूल करूँ, और मूँछों पर ताव आप दें। कमाई का अच्छा ढंग
निकाला है। इस कमाई से तो वाकई आप थोड़े दिनों में राजा हो जाएँगे। उसके सामने
ज़मींदारी झक मारेगी! बस, कल ही से एक चकला खोल दीजिए! खुद की कसम, मालामाल हो
जाइएगा।
चौधरी - तुम दिल्लगी करती हो, और यहाँ काफिया तंग हो रहा है।
आबादी - तो आप भी तो मुझी से उस्तादी करते हैं। यहाँ आप-जैसे काइयों को रोज़
उँगलियों पर नचाती हूँ।
चौधरी - आखिर तुम्हारी मंशा क्या है?
आबादी - जो कुछ वसूल करूँ, उसमें आधा मेरा, आधा आपका। लाइए हाथ मारिए।
चौधरी - यही सही।
आबादी - अच्छा, वो पहले मेरे सौ स्र्पए गिन दीजिए। पीछे से आप अलसेट करने लगेंगे।
चौधरी - वाह! वह भी लोगी और यह भी।
आबादी - अच्छा! तो क्या आप समझते थे कि अपनी उजरत छोड़ दूँगी? वाह री आपकी समझ!
खूब, क्यों न हो। दीवाना बकारे दरवेश हुशियार!
चौधरी - तो क्या तुमने दोहरी फीस लेने की ठानी है?
आबादी - अगर आपको सौ दफे गरज हो, तो। वरना मेरे सौ रुपए तो कहीं गए ही नहीं। मुझे
क्या कुत्ते ने काटा है, जो लोगों की जेब में हाथ डालती फिरूँ?
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