राणा का जब तक राज चला वे इस इलाके में जमे रहे
और उनकी रसोई के लिए इसी तालाब से ताज़ी मछलियों की आपूर्ति
होती रही। सुतारू मंडल ही इस आपूर्ति के प्रभारी रहे। जब
रियासतों का अधिग्रहण होने लगा तो राणा अपनी हवेली और जायदाद
अपने बराहिलों और गुमाश्तों को सुपुर्द कर सपरिवार भुवनेश्वर
में स्थानांतरित हो गए।
कल्याण सुतारू मंडल से होते हुए अब उनकी तीसरी
पीढ़ी कोचाई मंडल के जिम्मे आ गया। कोचाई को अपने दादा की
ज़्यादा याद नहीं है लेकिन अपने पिता को तो वह अब भी हर पल
अपने आसपास ही महसूस करता रहता है। जब से उसने होश संभाला अपने
पिता की उँगली थामे अपने को इस तालाब में ही पाया। पिता उसे
तैराना सिखा रहे हैं गहरे पानी में गोता लगाना सिखा रहे
हैं नाव खेना सिखा रहे हैं जाल डालना सिखा रहे हैं बिना
जाल डाले भी बड़ी मछलियों को पकड़ लेने की कला सिखा रहे हैं
मछलियों का जीरा बनाने का गुर सिखा रहे हैं इ़नके लिए चारा
बनाने का इल्म बता रहे हैं।
उन्होंने इस क्षेत्र के तेज़ी से हो रहे
शहरीकरण के कारण तालाब के अस्तित्व पर बढ़ते दबाव को भाँपते
हुए कहा था, "देखो
बेटे,
तालाब
सिर्फ पानी का खजाना भर नहीं होता ब़ल्कि यह हमारी संस्कृति
का एक अंग है। यह व्यक्ति विशेष के स्वामित्व के अधीन होकर भी
एक सार्वजनिक धरोहर है,
जिसके इस्तेमाल का हक आसपास की पूरी आबादी को
है। जैसे कोई अपनी ही ज़मीन पर गाछ लगा दे तो वह गाछ सिर्फ उसी
का नहीं रह जाता। उसकी छाया और नीचे गिरे हुए फल पर हर राहगीर
का हक बन जाता है। उसकी शाखाओं पर हजारों चिड़ियों-चुरगनों को
बसेरा डालने का हक बन जाता है। तालाब के होने से आसपास के बहुत
बड़े क्षेत्रफल में जल-स्तर नियंत्रित रहता है। खेती की जमीनों
में नमी बनी रहती है। आसपास के तापमान में एक आर्द्रता रहती
है लोगों को ताजी मछलियों की आपूर्ति हो पाती है एक साथ
नहाने-धोने से सामाजिकता और सहअस्तित्व की भावना का विकास होता
है।"
राजा ने सुतारू से कहा था,
"इस
तालाब पर तुम्हारा स्वामित्व जरूर होगा लेकिन इसके उपयोग पर
सबको बराबर का अधिकार होगा। हक नहीं होगा तो तालाब का कुछ
बिगाड़ने और नष्ट करने का।"
कोचाई के दादा और पिता ने इस निर्देश का पूरा
खयाल रखा कभी इस तरह का रौब नहीं दिखाया कि तालाब उसकी निजी
जायदाद है। लोगों द्वारा उसके इस्तेमाल पर कभी कोई परेशानी या
अड़चन खड़ी नहीं की। उल्टे सबको आकर्षित करने के लिए रख-रखाव व
साफ-सफाई पर पूरा ध्यान दिया। सिर्फ मछली मारने तथा इसमें
नौकायन करने का हक अपने पास रखा।
कोचाई पिछले कुछ अर्से से देख रहा था कि लोखट
पहाड़ी से निकलकर आनेवाला नाला क्षीण से क्षीणतर होता जा रहा
है। पहाड़ी के पार्श्व में और तालाब के आसपास तेज़ी से फैल रहे
कांक्रीट के जंगल,
उसमें बस
रहे निष्ठुर लोग और उनकी आक्रामक आपाधापी से पहाड़ी के ऊपर के
पेड़ यानी प्राकृतिक जंगल तेज़ी से कटकर गायब होने लगे थे।
पहाड़ अब बिल्कुल छीन-झपटकर हरण कर लिए गए चीर के उपरांत
लुटा-पिटा सा नंगा दिखने लगा था और उससे निकलकर आनेवाला नाला
जिस नदी में गिरता था उस नदी का पाट भी सिकुड़कर मानो एक पतली
रेखा में बदल गया था। नदी नदी नहीं जैसे किसी विधवा की उजड़ी
माँग हो गई थी। कोचाई को यह पूर्वाभास हो गया था कि कोई
विपत्ति सन्निकट है,
लेकिन इतनी
सन्निकट है,
ऐसा उसने
नहीं सोचा था। पर्यावरण के महाविनाश का असर इतना जल्दी दिखाई
पड़ने लगेगा,
इसकी कल्पना शायद किसी को नहीं थी।
कल्याण के सूखते जाने से बर्बादी में लुत्फ
उठानेवाले कुछ राक्षसी वृत्ति के लोग तालाब के साथ जुड़ी
रहस्यमय दंतकथाओं के अनावृत्त होने के प्रति उत्सुक हो उठे थे।
वे यह जानने को व्यग्र थे कि इसमें रहनेवाली जलपरी का क्या
होगा और वह पानी के बिना मरकर कैसी दिखेगी! निचली सतह पर स्थित
उस द्वार का क्या होगा जो पाताल लोक में जाता है! उन बड़ी
मछलियों और जलचरों का क्या होगा जिनकी विशाल आकृति के बारे में
एक से एक किस्से प्रचलित है!
कल्याण सूखता जा रहा था और कोचाई मंडल का मौन
बर्फ के टीले की तरह जमता हुआ एक उदास टापू में बदलता जा रहा
था। ठीक इसके विपरीत उसके घर में चहल-पहल बढ़ गई थी। कई लोग
कार से और जीप से उसके बड़े बेटे राधामुनी से मिलने के लिए आने
लगे थे।
कोचाई ने उसकी मंशा ताड़ ली थी। उसने प्रतिरोध
किए बिना एक दिन अपना इरादा जता दिया,
"जब तक मैं
कायम हूँ,
तालाब की ज़मीन पर दूसरा कोई काम नहीं होगा।
मुझे विश्वास है कि लोखट पहाड़ी का नाला फिर से जीवित होगा।
मैं पहाड़ पर गाछ लगाऊँगा और वहाँ फिर हरा-भरा एक जंगल बसेगा।"
निमाई और राधामुनी एक-दूसरे का मुँह देखने लगे,
मानो वे
पूछ रहे हों कि इस आदमी के माथे का पेंच ढीला तो नहीं हो गया?
दोनों में से किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। वे
गुपचुप रूप से एक मंत्रणा करने लगे।
कोचाई कल्याण की परिधि पर स्थित किसी गाछ के
नीच जाकर बैठ जाता गुमसुम शोकाकुल और आर्तनाद करता हुआ।
सामने कल्याण तिल-तिल दम तोड़ रहे किसी प्रियजन की तरह कराहता
हुआ बिछा होता। तट पर आकर कुछ प्यासे जानवर अपनी अबोध आँखों से
शून्य को निहारते और फिर वापस हो जाते। जल-विहार करनेवाले
पक्षी गाछ की फुनगी से ही दुर्दशा निहारकर स्यापा कर लेते। कुछ
बड़ी मछलियाँ,
जिनके लिए
पेंदी में बचा थोड़ा सा पानी कम पड़ रहा था,
छटपटाते-तड़फड़ाते दिख जाते। बस्ती के कुछ
लोगों के लिए यह प्रलय एक उत्सव बन गया था और वे एकांत मिलते
ही इन मछलियों का शिकार कर अपनी रसोई को चटखारेदार बना लेते।
कल्याण जब पानी से भरा होता तो इसमें एक रौनक
समाई होती और इससे एक जीवन राग मुखरित होता रहता। कुछ लोग
नहाते होते और पूरब तट पर स्थित शिवालय में जल चढ़ाते होते।
छोटे घरों की गृहिणियाँ बतियाती होतीं,
बर्तन-वासन धोती रहतीं और बच्चों को
रगड़-रगड़कर उन पर भर-भर लोटा पानी उलीच रही होतीं। कुछ लड़के
तैरने का लुत्फ उठाते होते और कुछ लोग इस तट से उस तट
नौका-विहार का मजा ले रहे होते। गैरआबादी वाले छोर पर बचे कुछ
खाली खेत में सब्जी-भाजी उगानेवाले किसान पटवन के लिए
लाठा-कुंडी से पानी निकाल रहे होते। मछलियाँ उन्मुक्त नाद करती
हुई तैर रही होतीं। कोचाई द्वारा नियुक्त तीन-चार मछुआरे जाल
फैलाए हुए होते।
अब आय का कोई नियमित ज़रिया नहीं रह गया था।
कोचाई चिंतित था लेकिन घरवाले जरा सा भी परेशान नहीं थे। उलटे
निमाई और राधामुनी पहले से ज्यादा निश्चिंत दिख रहे थे। निचली
कक्षाओं में पढ़नेवाला उसका छोटा बेटा और बेटी भी पूर्व की तरह
ही अच्छे रख-रखाव में जी रहे थे और स्कूल जा रहे थे।
एक दिन एक साहबनुमा व्यक्ति उससे मिलने आया।
उसने अपने को एक शिपिंग कंपनी का अधिकार बताते हुए कहा,
"मेरा नाम
प्रदीप डोगरे है। मुझे आपकी सेवा चाहिए। मेरा एक जहाज बंगाल की
खाड़ी में डूब गया है। उसमें सोने की ईटों के पाँच बक्से लदे
थे,
जिसकी कीमत ५० करोड़ से भी ज़्यादा है। कई गोताखोर हार गए मगर
कुछ भी ढूँढ़ने में कामयाब नहीं हुए। आपके बारे में हमें
जानकारी मिली। सुना है कि पानी को आपने पूरी तरह साध लिया है
दिल से आप जो चाह लेते हैं,
वह पूरा हो
जाता है पानी आप से दगा नहीं कर सकता। आप अगर इस चुनौती को
स्वीकार कर लें तो आप जो भी कीमत चाहें,
हम देने को तैयार हैं।"
कोचाई ने जायजा लिया कि राधामुनी,
निमाई और उसके अन्य बच्चे भी उस मुद्रा में
उन्हें देख रहे हैं जिसमें उनकी इच्छा है कि यह प्रस्ताव
स्वीकार कर लेना चाहिए।
उसकी ठिठक को देखते हुए राधामुनी ने कहा,
"डोगरे
साहब ठीक ही कह रहे हैं। यह आपके मन के लायक काम है। यहाँ आप
नाहक घुट रहे हैं। चले जाइएगा तो जी बहल जाएगा। कुछ कमाई भी हो
जाएगी,
घर चलाने के लिए पैसा भी तो चाहिए ही।"
कोचाई को लगा कि राधामुनी ठीक ही कह रही है।
तालाब को देख-देखकर उसका दुख असह्य होता जा रहा है। पानी में
डुबकी लगाए हुए भी महीनों हो गए। इसके बिना लग रहा था जैसे देह
के सारे सेल चार्ज रहित हो गए हैं। उसने हामी भर दी। डोगरे
साहब ने झट लिखकर एक लाख रुपए का चेक सामने कर दिया। कोचाई ठगा
रह गया,
उसकी ऐसी कीमत तो आज तक किसी ने नहीं लगाई।
कोचाई को लेकर डोगरे साहब चला गया। उसे कथित
शिपिंग कंपनी के मुख्यालय स्थित शहर में भेज दिया गया। कंपनी
के कुछ कर्मचारी उसे बोट के जरिए समुद्र में ले जाते। वह
गोताखोरों वाली ड्रेस पहनकर मुँह में ऑक्सीजन मास्क लगाता और
उस स्थल पर समुद्र में कूद जाता,
जहाँ वे
जहाज डूबने की आशंका जाहिर करते। कोसाई को पहले भी दो-तीन बार
समुद्र में छोटा गोता लगाने का मौका मिल चुका था। इस बार उसे
लगभग डेढ़ महीने रोका गया,
जिसमें
उसने दस-बारह बार लंबे गोते लगाए। गहराई में जाकर समुद्र की
दुनिया उसे अचम्भित कर देती थी। अजीब-अजीब तरह के रंग-बिरंगे
जीव-जन्तु,
पेड़-पौधे और पहाड़ जैसे उसे अपनी ओर खींचने
लगते थे। पता नहीं क्यों उसे लगता था कि बाहरी दुनिया से यह
अंदरूनी दुनिया कहीं ज्यादा खूबसूरत और सुरक्षित है। उसकी
इच्छा होती कि काश वह इसी दुनिया में रहने लायक बन जाता और
इन्हीं जलचरों के साथ तैरता रहता समुद्री अंतस्थल की खाइयों और
गुफाओं में। उसने बहुत ढूँढ़ा पर उसे जहाज का कोई अवशेष कहीं
दिखाई नहीं पड़ा।
डोगरे साहब ने एक दिन उसे फिर दर्शन दिया और
कहा, "मंडल
जी,
कल आप मेरे साथ लौट जाएँगे अपने शहर।"
कोचाई ने अफसोस जताते हुए कहा,
"मुझे
खेद है साहब कि मैं इतना-इतना गोता लगाकर भी कुछ ढूँढ़ न सका।"
उसने कहा, "नहीं
मंडल,
आपका गोता
लगाना व्यर्थ नहीं गया है। आपके गोता लगाने से हमें जो हासिल
करना था,
वह हमने कर लिया है।"
कोचाई उसका मुँह देखता रह गया।
घर वापस लौटने लगा तो उसका मन फिर दुखी हो गया।
कल्याण अब तक पूरी तरह सूख गया होगा। उसने मन ही मन तय किया कि
बरसात आते ही वह लोखट पहाड़ी पर पेड़ लगाना शुरू कर देगा। इस
काम में वह अपनी पूरी ज़िंदगी लगा देगा और इससे निकलनेवाले
नाले को फिर से जीवित करके छोड़ेगा। तालाब की पूर्व की स्थिति
बहाल किए बिना,
वह एक तिल चैन की साँस नहीं लेगा।
शहर पहुँचते ही कोचाई के पाँव अनायास तालाब के
रास्ते पर ही बढ़ गए। उसने देखा कि उस रास्ते पर दर्जनों डम्फर,
डोज़र और
ट्रक आवाज़ाही कर रहे हैं। उसका माथा ठनक गया। कल्याण के पास
पहुँचा तो वहाँ की हालत देखकर उसकी आँखें फटी की फटी रह गई। एक
किनारे बड़ा-सा बोर्ड लगा था - "साइट ऑफ डोगरे बिल्डर्स एंड
कॉन्ट्रैक्टर्स" कल्याण आसपास के उद्योगों के कचड़े और खेतों
की मिट्टी से तोपा जा रहा था। उसका आधा हिस्सा लगभग भरा जा
चुका था। क्षण भर के लिए प्रतीत हुआ कि कल्याण को नहीं मानो
जीते जी उसे ही दफ़नाया जा रहा है। डोगरे ने जो कहा था,
उसका अर्थ अब स्पष्ट होने लगा। उससे गोता
लगवाकर उसने वाकई अपना लक्ष्य हासिल कर लिया।
उसकी आँखें आँसुओं से डबडबा गई ल़गा कि
समुद्र में गोता लगाकर वह माल ढूँढने नहीं बल्कि अपना सर्वस्व
डुबोने चला गया था। |