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कोचाई को पता है कि उसकी पत्नी राधामुनी भी इस मुद्दे पर अपने बेटे के पक्ष में हैं। पढ़ाई कर रहे उसके बेटे ने आज से कई साल पहले उसके पानी वाले परंपरागत व्यवसाय से घृणा का इज़हार करते हुए कहा था, "इस पेशे ने हमारे पूरे खानदान को बौना बनाकर गरीबी के घेरे में सिमटे रहने के लिए अभिशप्त कर दिया है। भला कोई मछली मारकर और नाव खेकर दो रोटी जुटाने से ज्यादा और क्या कर सकता है? मैं कोई सा भी दूसरा काम कर लूँगा, लेकिन पानी से जुड़ा कोई काम नहीं करूँगा। आखिर हम अपना भाग्य पानी में ही क्यों गलाएँ, धरती पर हम अपने लिए कोई मंजिल क्यों तलाश न करें?"

राधामुनी ने अपने बेटे का जोरदार समर्थन किया, "तुमने बिल्कुल ठीक फैसला किया है। मैं भी यही चाहती हूँ कि बाप की तरह पानी का प्रेत तुम लोगों पर न सवार हो। मुझे हमेशा लगा कि इस आदमी ने मुझसे नहीं पानी से शादी कर ली हैं। राह देखते-देखते मेरी आँखें थक जातीं मगर इस आदमी का मन पानी से नहीं भरता। इन्होंने जमीन और घर से ज्यादा अपना वक्त पानी में बिताया। मैं तो कुढ़ती रही इस पानी से जैसे वह मेरी सौत बन गया। मैंने बहुत पहले ठान लिया था कि अपने बेटों को खूब पढ़ाऊँगी और पानी के धंधे से जितना दूर रखना मुमकिन होगा, रखूँगी।"

निमाई ने अपने दिमागी घोड़े को जरा रफ़्तार से दौड़ाते हुए कहा, "माँ, पढ़ाई-लिखाई अगर हमें रास्ता बदलने में मदद कर दे तो अच्छा है, इसके बाद भी हमें तालाब में फँसी ज़मीनों का बाज़ार भाव के हिसाब से रिटर्न पाने के लिए पानी से अपना पिंड छुड़ाना ही होगा। पच्चीस बीघा का रकबा इस इलाके के लिए लाख की नहीं करोड़ की संपत्ति साबित होगा। चारों तरफ जिस तरह कालोनियाँ बसी हैं, उद्योगों के जाल बिछ रहे हैं, इसकी मुँहमाँगी कीमत वसूली जा सकती है।"

कोचाई को गुस्सा करना नहीं आता था और नाहीं उसे किसी से चोंच लड़ाने में कोई रुचि थी। वह संतभाव से ऐसी बातें सुन लेता था और कल क्या होनेवाला है, उसे नियति के भरोसे छोड़कर अपने काम में लग जाता था। उसने अपने दादा की लिखी हुई डायरी का एक पन्ना लाकर निमाई के हाथों में रख दिया। उसमें लिखा था, "तालाब की अहमियत रुपयों-पैसों से नहीं आँकी जा सकती। और अगर रुपयों से आँकी जाए तो उसके जरिए जो मानवीयता पर परोपकार हो रहा है, वह अरबों-खरबों से भी कहीं ज्यादा है। जब एक कुआँ बन जाता है या तालाब तो वह किसी की निजी संपत्ति नहीं रह जाता, वह सार्वजनिक हो जाता है।"

निमाई ने डायरी के उस पन्ने की चिंदी-चिंदी कर डाली।

राधामुनी ने कहा था, "मैं तो कब से यह चाहती रही कि इस तालाब को भरवाकर हम सिर्फ इसे बेच दें तो उसी से कई पीढ़ियों से जमी हमारी दरिद्रता छूमंतर हो जाए। लेकिन तुम्हारे इस बाप की जिद और पानी में बसे इनके प्राण को देखकर मैं कोई सख्त कदम उठाने के लायक न बन पाई और तुम लोगों के जवान होने का मैं इंतजार करती रही। अब देखो, ऊपरवाले का कमाल, उसने हमारी सुन ली और इसका सारा पानी अपने आप ही गायब हो गया।"

अपने बीवी-बच्चों के विजयी भाव को देखकर कोचाई जैसे किसी मूक चित्र में परिवर्तित हो गया।

कोचाई मंडल के जीवन में पानी ही पानी था। वह अपना समय ज़मीन पर कम और पानी पर ज़्यादा गुज़ारता था। वह अपने को पानी का पहरेदार कहता था और लोग उसे पानी का मेंढक कहते थे। पानी के अंदर या पानी के ऊपर कोई कारोबार चलाना हो तो कोचाई से उपयुक्त व्यक्ति दूसरा कोई नहीं हो सकता था। नदी में, तालाब में, समुद्र में कोई दुर्घटना हो जाए, कोचाई का झट बुलावा आ जाता। कहते हैं जो काम सेना के गोताखोरों से भी संभव नहीं हो पाता, उसे कोचाई कर डालता था। इस मामले में उसकी ख्याति काफी दूर-दूर तक थी। कोई बस नदी में पलट गई और कुछ लाशें बरामद नहीं हो सकी कोचाई को लगा दीजिए। किसी ने नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली और उसकी लाश बहकर अदृश्य हो गई   कोचाई के लिए यह कोई बड़ा मसला नहीं है। कहीं अचानक बाढ़ आ गई और पानी में फँसे लोगों को बाहर निकालना है   गरजती-उछलती जलधारा में किसी की हिम्मत नहीं पड़ रही कोचाई कमर में गमछा बांधकर पानी में कूद पड़ेगा। पानी के अंदर काफ़ी गहरे में किसी की कोई बहुमूल्य वस्तु गिर गई   क़ोचाई पाताल में भी डुबकी लगाकर निकाल लेगा।

उसके बारे में यह किंवदंती प्रचलित हो गई थी कि पानी में उतरते ही उसकी ताकत बढ़ जाती है। पानी के अंदर वह ज्यादा देख सकता है   पानी के अंदर मीलोंमील तैर सकता है   पानी के अंदर वह जलचरों को सूँघ कर पता कर सकता है   उसकी देह से पानी का स्पर्श होते ही उसमें एक बिजली दौड़ जाती है।

कोचाई के बारे में उसके कुछ गाँववाले कहते थे कि इसे दरअसल किसी जलचर में जन्म लेना था, मगर गलती से आदमी (थलचर) में आ गया। उसके बारे में यह किस्सा भी प्रचलित था कि कोई जलपरी है जो कोचाई से प्यार करती है। ज्यों ही वह पानी में उतरता है वह जलपरी उस पर सवार हो जाती है और उसकी पूरी दैवीय शक्ति उसमें समा जाती हैं।

पानी को इस तरह साध लेनेवाला कोचाई कभी पानी रहित हो जाएगा, यह कोई नहीं जानता था। पानी ने कोचाई को दार्शनिक बना दिया था। वह कहा करता था कि पानी जिस तरह दुनिया भर के विकार और गंदगी साफ करता है, अगर कोई आठ-दस दिनों तक पानी के संपर्क में रह जाए चारों ओर पानी ही पानी, दूसरा कोई नहीं तो उसके मन का विकार भी धुल जाता है। पानी दया, करूणा, ममता और आत्मीयता का पर्याय है   वह आदमी को तरल, सरल और निश्छल बना देता है। पानी में सारे तत्व हैं, कोई चाहे तो सिर्फ पानी पीकर अपनी पूरी उम्र जी सकता है। बहुत सारे ऐसे जलचर हैं जो बिना खाए भी पानी में रहकर जी लेते हैं। पानी की जिसको आदत हो जाती है, वह पानी के बिना नहीं रह सकता। पानी से अलग होते ही वह प्राण त्याग देता हैं।

कोचाई को तालाब विरासत में मिला था। पच्चीस बीघे का लंबा-चौड़ा तालाब ठीक लोखट पहाड़ी के पार्श्व में स्थित था। बरसात के दिनों में पहाड़ी का पानी झरकर एक नाले में तब्दील हो जाता था। बरसात खत्म होने के बाद भी इस नाले में पानी का प्रवाह जारी रहता था। कोचाई ने अपने तालाब के जलस्तर को अधिकतम रखने के लिए ज़रूरत-ब -ज़रूरत नाले की दिशा अपनी ओर मोड़ लेने की व्यवस्था कर रखी थी। इस तालाब के अलावा उसके पास और कोई ज़मीन-जोत नहीं थी। इसी से उसकी आजीविका चलती थी और इसी से उसकी पहचान बनती थी। इस तालाब की गहराई के बारे में, कोचाई के पुरखों के पास हस्तांतरित होने के बारे में और इसके महात्म्य व गुणधर्मिता के बारे में कई तरह की दंत कथाएँ प्रचलित थीं।

कहते हैं यह तालाब जमाईकेला रियासत के राणा कौतुक विक्रम सिंह का था जिसे उन्होंने कोचाई के परदादा सुतारू मंडल की स्वामिभक्ति और तालाब की देखरेख के प्रति उसकी गहरी संलग्नता से प्रभावित होकर उसे बतौर बख्शीश दे दिया था। तालाब की गहराई के बारे में लोगों का अनुमान था कि यह पचास फ़ीट से भी ज़्यादा गहरा है। उसके तल के बारे में सबका कहना था कि वहाँ एक खास ऐसा केन्द्र है जहाँ कोई गलती से चला जाए तो फिर वापस नहीं आता। कुछ धर्मपरायण लोगों की ऐसी मान्यता थी कि पाताल लोक जाने का एक द्वार है इस तालाब के अन्दर, जहाँ पहुँचते ही उसे भीतर दाखिल कर लिया जाता है।

तालाब के पानी की तासीर की भी एक अलग व्याख्या थी। कहते हैं इसमें नियमित स्नान कर देह के किसी भी चर्मरोग से मुक्ति पाई जा सकती थी। कुछ लोग हफ़्ते या पखवारे इसमें एहतियात के तौर पर इसलिए भी स्नान करते थे कि उन्हें कोई चर्मरोग न हो। धीरे-धीरे लोगों ने तो यहाँ तक मानना शुरू कर दिया कि इसमें स्नान करने से किसी भी तरह की बीमारी से बचा जा सकता है। इसका यह महात्म्य दूर-दूर तक प्रचारित हो गया था जिससे उसमें लोगों के स्नान करने का ताँता कभी खत्म नहीं होता था। लोगों ने इसे कल्याण नाम से पुकारना शुरू कर दिया था।

पहाड़ियों से होकर आनेवाले पानी में संभव है कुछ जड़ी-बूटियों का औषध प्रभाव समा जाता हो। लोकश्रुति का स्वभाव तो प्राय: ऐसा होता ही है कि किसी छोटी चीज़ को बढ़ाते-बढ़ाते बहुत बड़ी बना दें। इस तालाब में आम आदमी की तो छोड़िए खुद राणा कौतुक विक्रम सिंह की हवेली से उनकी पत्नियाँ, बहनें और माँ तक सप्ताह में एक बार स्नान करने ज़रूर आती थीं। इन्हें सुरक्षित स्नान कराने का ज़िम्मा सुतारू मंडल का होता था। जब ये शाही महिलाएँ तालाब के घाट पर आतीं थीं तो आम जनों की आमद-रफ़्त वर्जित कर दी जाती थी। कहते हैं इनमें कुछ रानियाँ तैरने की बहुत शौकीन थीं और वे देर तक और दूर तक तालाब में उन्मुक्त तैरती रहती थीं। एक अकेले सुतारू मंडल ही होते थे जो किनारे में खड़े होकर इनकी किसी भी आपात्कालीन मदद के लिए चीते की तरह सतर्क रहते थे। कहते हैं सुतारू से इन महिलाओं का अब ऐसा सौजन्य स्थापित हो गया था कि अब वे इनसे जरा भी शर्म, पर्दा और लिहाज़ नहीं करती थीं। सुतारू ने अपने को ऐसा वीतराग बना भी लिया था कि इन्हें किसी भी रूप में देख ले, उसमें कोई उत्तेजना जाग्रत नहीं होती थी। चाहती तो ये महिलाएँ राजमहल की चारदीवारी में ही तालाब खुदवा लेतीं, लेकिन वह औषधीय प्रभाव तो उसमें न आता। सुतारू के शायद इसी संयमित आचरण पर कृपालु होकर राणा ने बतौर इनाम उस यशस्वी तालाब कल्याण का उसे रक्षक और मालिक बना दिया था।

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