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पता नहीं किस अर्जुन ने या किस राम ने अग्निबाण चलाया कि सौ वर्षों से भी ज्यादा
उम्रवाला कल्याण तालाब सूख गया। इसके लगातार घट रहे जलस्तर को देखकर सारे
बूढ़े-बुजुर्ग हैरान थे। बचपन से लेकर आज तक ऐसा उन्होंने कभी नहीं देखा था कि इस
तालाब का अक्षय कोष तिल भर के लिए भी घट जाए। अगम, रहस्यमय, अनेक क्रियाओं की
रंगशाला और जीवंतता, गतिशीलता व शीतलता का अमृत-कुंड आज जैसे किसी श्मशान में
परिवर्तित हो गया था। कल्याण सूख गया, इससे शायद बहुतों का जीवन अप्रत्यक्ष रूप से
प्रभावित हुआ होगा लेकिन प्रत्यक्ष रूप से इससे जो सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ, उसका
नाम था कोचाई मंडल।
कल्याण क्या सूखा जैसा उसके जीवन के सारे स्रोत ही सूख गए।
कल्याण उसकी संजीवनी था, कर्म-स्थल था, ऊर्जा-स्रोत था और कुल जमा पूँजी था। अब जब
वह नहीं रहा तो मानो उसके पास कुछ भी नहीं रहा जैसे वह उखड़ गया अपनी जड़ से हिल गया
अपनी नींव से। उसकी दयनीयता तब और भी त्रासद बन गई जब उसके घरवाले तालाब का सूखना,
अशुभ की जगह शुभ सूचक मानने लगे।
उसके बड़े लड़के निमाई ने कहा, "हमें खुश होना चाहिए कि इतने बड़े भूखंड का अब हम
सही रूप में व्यावसायिक उपयोग कर सकेंगे। सार्वजनिक हित से जुड़े होने के कारण हम
इसके वजूद को एकबारगी मिटाकर इसका रूपांतरण नहीं कर सकते थे। अब जब खुद ही सूख गया
है तो हमें अब टोकनेवाला भी कोई न रहा। हमें अपने आप बहाना या मौका मिल गया कि इस
कीमती भूखंड के सहारे अपनी कायापालट कर लें। हम इससे रातोंरात लाखों बना सकते हैं।"
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