बोर्ड पर सफेद मिट्टी पुतने से पुरानी फिलिम का नाम दब गया था।
उसने उसे धूप में डाल दिया और दूसरा पोतना आरंभ किया। कम्मू के
मन में आया था, बोलता होली खेलने की बखत गई रे छोरो अ़ब तुम सब
जने भी कोई नया त्योहार ढूँढ़ो। पर छोकरे हैं, मसखरी भी करते
हैं तो एकाएक और समझदारी भी। पार साल सालों के मगज में चढ़ गई
एक बात - 'इंग्रेजी हटाव' फिर क्या था, कित्तई स्कूटर, ट्रिरिक,
टेंपों उसकी गुमटी के आसपास डटे खड़े हैं - 'भैया, नंबर प्लेट
हिंदी में कर दो, छोरे-छापरी हालत खराब किये हैं।' पण, काम की
ऐसी बहार की बखत वो बुखार में था। सारा काम अब्दुल पेंटर की ओर
चला गया था, 'काम जाव, पर अपनी मुलुक की बोली बोलनेवाले को काम
तो मिला। नहीं तो सारे इंग्रेजी के बोर्ड शहर से बनते थे। और
वो रामजान का शहजाद नहीं बोल रहा था, 'चचा, इंग्रेजी के कारण
ही उसकी नौकरी नहीं लग रही।'
छोकरे अब और दूर निकल गए थे, उन्हों की बोम सुनाई दे रही थी -
"जो बोम नी दे, वो बोम।"
..
बोर्ड और प्लेटें अब निबट गई। दोपहर होने को आई थी, कम्मू हाथ
धो ही रहा था कि खट-खट की आवाज़ आई। पोस्टमैन था।
कम्मू को थोड़ा-सा ताज्जुब हुआ। पिछले पांच बरस में शायद ही
किसी की चिट्ठी आई हो। नीली छतरी के नीचे उसके भाई-बंध सिर्फ़
उसके हाथ व ब्रश भर तो हैं। वह धुकधुकाती जिज्ञासा से आगे आया।
"आजकल, तुम मेरी 'बीट' में कब से आ गए?"
पोस्टमैन ने बोला, तो कम्मू को लगा, किसी ने उसके जिस्म में
सुई चुभो दी हो। आहत स्वर में बोला - "भैया, जिज्जाबाई ने शहर
सुंदर बनाने की सोची है न, इसलिए हम जैसे रंग-रोगनवाले गंदे
लोगों को झाड़ मार के इधर फेंक दिया है।" फिर लगा, इसके सामने
रोना-रोने का क्या मतलब, सो तत्काल तत्परता से बात बदली - "आज
अपने नाम पे क्या लई आए?"
"एक रजिस्ट्री है, तुम्हारे नाम की" - पोस्टमैन ने उत्तर देते
हुए खाकी बैग का मुँह फाड़ा और लंबा-सा सफ़ेद लिफ़ाफ़ा निकालने
लगा। व्यग्रता को काबू में करने के लिए कम्मू पोस्टमैन का
हुलिया देख बोला - "होली, खूब चढ़ रही है, पोस्टमेन जी।"
"गेले गाँव के लिए ये दिन ऊँट की अवई जैसा है, लौंडों की चंदे
माँगती भीड़ ने स्याही फेंक दी।" पोस्टमैन ने लिफ़ाफ़ा निकाल
लिया। फिर साइन करवाने के लिए कम्मू के सामने डायरी फैला दी।
"बोलो, भैया चिड़ी कहाँ मांड दूँ?" कम्मू ने साइन करने की जगह
पूछी, फिर साइन कर के रजिस्ट्री ले ली।
पोस्टमेन नीचे उतर गया।
लिफा़फ़े का पेट फाड़ा, तो चकित रह गया। नोटिस था, हरजाने भरने
का। लिखा था, गुमटी हटाये जाने की इत्तिला के बाद भी नगरपालिका
के अधिकार क्षेत्र पर अवैध कब्जा करीब अठ्ठाइस दिन किए रहे हो।
कब्जा? और कैसा कब्जा। पहले
दिन गुमटी हटाने का कागद दारोगा दे गया, मगर कम्मू को काम था।
इंदौर में दीवाल पर दंतमंजन का विज्ञापन लिखने का। लौटा, तो
गुमटी की जगह खाली भक्क असमान था। कम्मू को लगा था, जैसे किसी
ने ब्रश घुंसेड़ दिया आँख में ज़िज्जाबाई के पास गया तो
सी.ये.मो. ने छुछकार के भगा दिया था।
कम्मू को रजिस्ट्री का
लिफ़ाफ़ा किसी गर्म अंगारे सा लग रहा था। हरजाना हफ्ते भर में
न भरा, तो कड़क कनूनी कारवाई होगी। हूँह! कड़क कारवाई कर के
क्या लोगे? मेरा मांस? ले के देखो...
भूख भड़कने लगी थी, फिर भी तै
किया, पहले दूसरी गुमटियोंवालों से भी तलाश करेगा कि तुम कूं
भी नोटिस मिला क्या? फिर पाँच-सांती मिल कर जिज्जाबई से
मिलेंगे। कहेंगे - अखीर मर्ज़ी क्या है? हमकूं रोटी-पे-रोटी रख
के खाने भी देना है या नहीं? दो जने ये बात बोलेंगे, तो ज़ोर
चाहे न लगे, जरीका तो होगा ही। उसने झटपट हाथ धोये, कपड़े पहने
और गली में उतर आया। गली से चौराहे की भीड़ में मिलते ही उसके
फेफड़ों में साहस आ गया जैसे वह अकेला नहीं है।
याकूद से साइकिल ली और
रसूलपुरे की ओर धुनक दी। पहुँच कर दरवाजा खटखटाया। खुला, तो 'किर्लोस्कर
छंटनी पान भंडार' वाले का छोकरा था। बोला - "अब्बा को अभी
बुलाता हूँ।" वह आया, कम्मू ने सारी बातें बताई कि हम मिल कर
माँग करेंगे, तो आवाज़ ऐसी होगी कि कान में तेल डाले अदमी बिचक
कर बैठ जाएँगे। तो वह बोला - "खुदा, सब देखता है, जिसने हमारी
जड़ों में तेल दिया उसे, मरेगा तो कब्र के लिए भी जिगो नहीं
मिलेगी।" इस पर कम्मू ने और खींचा, तो मिनक गया - "तू भैया, जा
यहाँ से, कोई सुन लेगा तो यहाँ से भी जाऊँगा।"
कम्मू वहाँ से 'फिकर नॉट'
वाले के पास साइकिल दौड़ा ले गया। वह इसका भी बाप निकला। वह
भागमल लूणिया से हर्जाने को भरने के लिए चवन्नी ब्याज पर पैसा
ला चुका था। अबकी बार कम्मू को गुस्सा आ गया। साले, सब मरदूद
हैं, जरा-सी बात में जान काग़ज़-सी चिरने लगी है। उसे लगा, उस
वार्ड के सारे लोग, लोग नहीं है, हस्पताल के वार्ड लंबर छै में
भरे लूले, लंगड़े, काने-कोचरे, अधमरे मरीज़ हैं - जिनमें थाली
से हाथ मुँह तक ले जाने की ताकत भी गायब हो चुकी है।
कम्मू ने एक गंदी गाली दी,
पूरी ताकत से और पैडिल पर पाँव रख दिया।
..
ठंड के दिनों के बावजूद वह
पसीने से लथपथ हो चुका था। किराये की साइकिल जमा कर के घर की
गली में मुड़ने ही लगा था कि कान में शब्द पड़े - "पेंटर चचा!
कहाँ गायब हो गए थे, हम तुमको ढूँढ़े-ढूँढ़े फिर रहे हैं न!"
लौंडो-लफाडियों की भीड़ थी।
"रांगोली और रंग ले आए हैं, होली भी रचा गई है, चलो वो बना दो
नी।" एक छोकरे ने बोला, तो कम्मू को गुस्सा आया, ज़ोर-ज़ोर से
चिल्ला कर डांट दे। साले, तुम सब गधे हो, बड़े-बड़े बाल बढ़ाने
से तुम्हारी अक्कल को जुएँ खा गई हैं। इतना भी नहीं समझते कि
ये होली-वोली तुमको मूरख बनाने का त्योहार है। तुम एक-दूसरों
पर रंग-धूल धक्कड़ फेंकते रहो और मरे हुए लोग तुम पे हँसते
रहें, तुम्हें चूस के हड़काया करते रहें।
"चल्लो चचा, क्या सोच रहे हो!" उसी लड़के ने फिर कहा, तो कम्मू
को ताव आ गया, तड़ातड़ तमाचे मार कर भगा दे। फिर अचानक जाने
क्या मगज में ध्यान आ गया। लगभग ललकारती-सी आवाज़ में बोला - "चल्लो।"
..
तनाव कम्मू की नस-नस में बज रहा था। बीच चौराहे पर, जहाँ
होलिका रची गई थी, लोगों की खासी भीड़ थी और आता-जाता हर आदमी
उस भीड़ में शामिल होता जा रहा था। उसने भीड़ के घेरे को तोड़
कर अंदर प्रवेश किया, जहाँ होलिका व प्रह्लाद की रांगोली बनाना
था, तो उसे पिछले सालों की तरह नहीं लगा जैसे वह किसी रंगभवन
में एक चित्रकार की तरह घुस रहा है और भीड़ उसके प्रशंसकों की
है - उसे लगा, वह कोई चक्रव्यूह तोड़ कर रणक्षेत्र में उतर आया
है। इस अहसास ने उसकी अंगुलियों में जोश की सुरसुराहट भर दी थी
- इतनी कि जेब से चाक निकाल कर रेखाँकन के लिए पथरीली जमीन से
टिकाया कि टूट गया। फिर उसने दूसरा चाक निकाला और देखते-देखते
पथरीले डामरीकृत चौराहे की काली पृष्ठभूमि पर एक औरत, जो
होलिका थी, प्रह्लाद नामक बच्चे को लिए बैठी थी - बना दी।
दर्शक बढ़ते जा रहे थे जिनमें अपढ़, पढ़े-लिखे, पुलिस और कई
तरह के लोग थे। उसने महसूस किया कि रंगोली के रंग बिखरने में
उसके हाथ बहुत मुस्तैद हो उठे हैं। वह पूरी भीड़ से बेखबर बना
लगातार रंग भरे जा रहा था। रंगों के भरते-भरते भीड़ में
खुसफुसाहट होने लगी थी।
अब पूरा चित्र उभर कर आकार व
रंग पकड़ चुका था।
अंत में, उसने अपनी मुठ्ठी
में पीली रंगोली ली और होलिका के जूड़े में पीला फूल खोंस
दिया। फूल खुँसते ही लगा, किसी ने भीड़ के पेट में सन्नाटे का
छुरा भोंक दिया हो। होलिका का चित्र अब होलिका का न हो कर
जिज्जाबाई घोरपड़े पाड़ा मैदानवाली का हो गया था।
कम्मू पेंटर ने चाक जेब में
भरे और भीड़ के गोले को तोड़ कर घर की ओर डग भर दिए।
आज पूरी गली पार करते हुए पहली बार लगा कि वह बहुत लंबी और
गंदी है। गंदी ही नहीं, उसमें किसी के बड़े-बड़े जूतों द्वारा
उसका पीछा किए जाने की आवाज़ें कड़वी गंध की तरह समाई हैं।
कम्मू ने ताले में तेज़ी से
चाबी डाली और किवाड़ खोला। खोलते हुए हाथों में कंपकंपी थी।
किवाड़ खुलते ही उतरते सूरज की धूप का हाशिया तलवार की तरह
दरवाज़े में घुस गया। धूप ने टार्च की तरह तमाम चीज़ों को
चमचमाता बना दिया, जिसमें, रंग के डिब्बे, ब्रश और पट्टियाँ
थीं। पट्टी पर नज़र जाते ही वह इस कदर चौंक गया, जैसे आँखों से
उसने शब्द नहीं पढ़े, बल्कि राजा भोज के सिंहासन पर बैठी कोई
पुतली जोर से चीखी है - 'अंदर जाना मना है'। उसे लगा, गुमटी
किसी ने छीनी ही थी, यह घर भी कोई छीन रहा है। पल भर तक वह
वहीं सोचता खड़ा रहा कि वह क्या करे, क्या न करे। गली में भारी
जूतों की इस ओर बढ़ते जाने की आवाज़ लगातार ऊँची होने लगी थी।
उसने चाहा कि वह तेजी से घर
में घुस कर अंदर की सांकल लगा ले, या फिर पीछे मुड़ कर जूतों
की आवाज़ों से कहे - 'कर लो, क्या करते हो।'
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