मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


साली, सब दूर लूट-खसीट ही भरी धरी है। अब इसी को लो न, पहले 'थिनर' बना-बनाया बज्जार से ख़रीदता था, पण जब से ओइलपेंट की करामात कब्जे में आई है, वह सब समझ गया है कि इंग्रजी नाम घर के लोग लूटते हैं। ये थिन्नर-विन्नर कुछ नी होता। बारनिश लो और उसमें कूढ़ लो थोड़ा-सा तरपीन का तेल -- लो ये होगिया इंग्रजी का 'थिनर', डिब्बे में पैकबंद कर के इसी से साले पइसा झाड़ते हैं।

उसने जल्दी से घुल-मिल करने के लिए तेज़ी से बुरूश घुमाना शुरू किया। कोहनी के पास के जोड़ ने आज फिर चसक मारी। कम्मू कूढ़ा। साली, पूरी ठंड में येई तकलीफ भोगनी पड़ती है, जोड़-जोड़ जकड़ा जाता है। फिर रात को तो होली के होरे (पाले) की बूढ़ी ठंड थी। कई एक बूढ़े-गढ़ले तो लुढ़क गए होंगे, ऐसे में दर्द क्यों न होगा, इस टूटे हाथ में। हस्पताल में डॉ.सिरीवास्तो को बताया भी था, तो बोले - 'गलत जुड़ गई है, फिर से तोड़ के जोड़ना पड़ेगी।'

डॉक्टर ने यह उल्टी बात बोली थी, तो कम्मू को सीधा पच्चू-पेहलवान पर गुस्सा आया था। गलत काहे को जोड़ दी। फिर उसने गुस्से को ठपकार के सही ढंग से समझाया था, खुद को -- 'इसमें गल्ती पच्चू पेहलवान की काय की? गल्ती तो तेरी है। तू काय कू गया वहाँ, कोई सरकारी हस्पताल में ताले पड़े थे? और इस सबसे अलहादी बात तो ये कि तूने वो वाला काम अपने हाथ में ही काय कू लिया, जब तेरे को मालम था कि अपन एकेले आदमी हैं।'

पचास रुपए का काम था, जिसमें से बीस रुपए का तो अपना ही माल लग जाने का था। मुरारी मिठाईवाले की भीत पर लिखना था - 'क्या चाहिए, मिठाई? तो सीधे चले आइए!' बड़े-बड़े हरूप में। दुकान दिन भर खूब चलती है, सो काम रात कू करने का था। कसम भगवान की, वो ऊपरवाला गवाह है। सिर्फ़ दो रात का काम किया, तीसरी को तो धर लिया मलेरिया बुखार ने। पण काम लगा दिया था, तो पूरा करना लाजमी होता है। इसलिए कुनैन की कड़वी गोली गील कर चढ़ गया नसेरनी पर एक हाथ में बुरूश, दूसरे हाथ में रंग का डिब्बा। कुछ देरी में जो जम के धुजणी धरी कि पूरा बदन पीपल के पत्ते की मुजब कंपने लगा। चिकनी दीवार से हत्थे टिका कर खड़ी निसेरनी कंपकंपी के कारण जो फिसली, तो भैया कम्पू पेंटर निच्चे! धड़ाम!! अवाज़ भी खूब जम के हुई, जैसे गजा गिरी हो, मगर, सामने बने अलीसान मकानों की खिड़की खोल के किसी माई के लाल ने पूछा-परखा नहीं कि ये अवाज़ आखिर काय बात की हुई। साले, सब रजाइयों में दुबके सोये रहे क़ाले रंग से भरा डिब्बा मुँह पे अलग उलट गया। मुश्किल से उठा, तो पाया कि कोहनी में कटार-सी चल रही है।

तब कम्मू को गुस्सा उन अलीसान मकानों के गर्म कमरे में नर्म रजाइयों में दुबके लोगों के साथ-साथ अपने ही वर्ग के सिलावट लोगों पर आया था कि सालों ने दीवार क्यों कर के इतनी चिकनी बना दी। बहुत व्यंग्यात्मक स्थिति थी। दीवार की चिकनाई, जो हरूप मांडते समय और रंग पोतने में बहुत सहयोगी व अपने पक्ष में लग रही थी, वही चिकनाई उसकी दूसरी सहूलियत के खिलाफ़ हो गई थी।

उठ के चला था, तो काला मुँह देख के कुत्तों ने दौड़ना शुरू कर दिया था। डरने लगा था, कोई काट न लें, वरना चौदह इंजेक्शन का रगड़ा साथ लग जाएगा। आखीर में कैसे तो भी साबूत घर आ लगा था, मगर धंधा महीने भर बंद रखना पड़ा था।

..

तब से हाथ काम करने लायक तो हो गया, लेकिन अब उठा-धरी व ठंड-वाव में दरद करने लगता है। कम्मू पेंटर ने बुरूश घुमाना छोड़ कर थोड़ा-सा तरपीन का तेल लिया और कोहनी पर मलने लगा। कुछ देर मलने के बाद बोर्ड पोतने के लिए नंबर सात का बुरूश ढूँढ़ने लगा। याद आया - कल रात को ठंड व थकान जिस्म में ऐसी घुल गई थी कि कुल्फीवाले की पेटी पर 'बॉबी' बना चुकने के बाद, बुरूश धोने के नाम पर ऐसा कंटाल चढ़ने लगा था, इसलिए, जल्दी में बुरूश उसने पीपे में पटक दिए थे। यह भूल गया था कि पीपे में घासलेट नहीं, पानी है। कल वाटर-कलर का काम आ गया था न!

उसने ब्रश निकाले, रात भर पानी में पड़े रहने के कारण चीठे-चठ हो गए थे। बाल चिपक कर ऐसे बँध गए कि उन्हें खोलने में खासी खीझ होने लगी थी। पेंटरी का काम औरतों के चूल्हे-चौके-सा थोड़े है कि खाना शाम को बना लो, तो बर्तन-भांडे सुबू घीस लो।

सारे बुरूश उठाए और घासलेट के पीपे में डाल दिए। लकड़ी की रीपें निकाल कर चौखटे पर टीन ठोंकने लगा। भड़! भड़!! भड़ाभड़!!! हथोड़ी की मार से च र भनभना कर कमरे की पूरी हवा को बौखलाने लगी। भड़भड़ाहट के बीच उसे अपने नए पड़ोसियों का ध्यान आया, साले फिर बोमड़ी पाड़ेंगे। कम्मू को ताज्जुब होता है, इनको ये रजी-सी बात भी समझ में क्यों नहीं आती कि ये धंधा है, टीन ठोंक-पीट न किये, तो हरूप क्या इनके बाप के चेहरों पर लिखे जाएँगे, हूँह!

सोच-साच कर कम्मू और झूँझलाया और तेज़ी से टीन ठोंकने लगा। इधर आए को फकत फरवरी बीती है, मगर, दुश्मन दिसंबर तक की गिनती के बन गए हैं। पंद्रह दिन पहले कम्मू की गुमटी थी, एम.जी.रोड के गंदे नाले पर। मगर जिज्जाबाई घोरपड़े, वो पाड़ा मैदान से चुनाव लड़ के मुंसीपालटी की प्रिसीडेंटनी क्या बनी कि बस हो गई लाट साब। नाले पर की सारी गुमटियाँ हटवा दीं। सब बिच्चारे छिन्न-भिन्न हो गये। 'किर्लोस्कर छंटनी पान भंडार' वाला रसूलपुरे चला गया और 'फिकर नॉट टी स्टॉल' वाला नई आबादी में, और वो यहाँ आ गया। धंधे का नाता जिगो से जम के होता है। ठीया-ठिकाना बदला कि गिराक गए। अब उसके सारे गिराक अब्दुल पेंटर की ओर चले जाते हैं।

गिराकी कम होने की बात की याद से उसे लगा, जैसे किसी ने रंगे-चंगे बोर्ड को बिगाड़ दिया हो। मन की कसक सूखते ओइलपेंट-सी गाढ़ी हो कर खुरदुरी होने लगती है। अब तो जैसे पपड़ी जम गई है, ज़रा-सी खुरचो तो नीचे का गीलापन फफक कर फटाक से ऊपर उफन आता है, तब कम्मू पेंटर खुद को दिलासा दिलाता है - कम्मू, इसमें मन गीला करने से क्या होता है रे, गिराक जाते हैं, तो साले जाव, किस्मत में लिखा होगा, तो गिराक टोड़ी कार्नर से खिंच के आ जाएगा। फिर, पेंटरी तो वो धंधा है कि गिराक वर्क से खिंच के आता है, नाम-ठाम से नहीं। और, अब्दुल पेंटर को आता भी क्या है? हरूप तो एकदम बेकार, बंबई डिजान की तो लकीर नहीं खींच सकता और चेहरे भी वो ही रटे-रटाये व़ैजंती माला, राजश्री, दलीपकुमार, अब इनका जमाना गया। कल ही कुल्फीवाला आया था, पेटी पर पेंट करवाने, नहीं बोल रहा था, क्या - कम्मू मिया, बॉबी बनाव। साले बुढ़ाऊ अब्दुल की बॉबी के नाम पे अक्कल की चॉबी गुम हो जाती है अ़पन उसको बोला, तो टेक दिए हाथ और कोसिस की भी, तो बना दी वो ही वैजंती ब़ुढ्ढ़ा है न, हाथ कंपते हैं। सुग्गे-सी सुतवाँ नाक बनाने को बोलो, तो भुजिये-सी भारी नाक बन जाती है।

अपने धंधे के प्रतिद्वंद्वी की कारीगरी में मीनमेख खोज कर कम्मू पेंटर को थोड़ी-सी राहत मिली। राहत महसूस की, तो दिल दरियाई हो गया, दया बरसाने लगी - 'अरे बिच्चारा, बूढ़ा है, कम्मू की और उसकी कौन बराबरी, कैसे तो भी पोत-पात के पेट पालता है, तो मुझे उसमें काहे की जलन! चल भइया, चार पैसे तू भी कमा ले।

पतरा चौखटे के ऊपर ठोंकने के बाद ग्राउंड कलर पोत के आर्डर की चिठ्ठी खोजने लगा। चार-पाँच चिठि्ठयाँ थीं, छोटी-छोटी प्लेट बनने आई थीं, पी.डब्लू.डी.आफिसर की। सोचा, बड़ा काम बाद में करेगा, पहले यह खींच दे। चिट पढ़ी - 'कुत्ते से सावधान' कम्मू को लगा जैसे लपक कर किसी अलसेशियन टेगड़े ने भभोड़ लिया हो। मन में आया लिख दे - 'हम से सावधान' अरे, कुत्ता काट खाए तो कोई बात नी, उनके तो चौदह इंजीक्शन भी निकल आए हैं, मगर इनके काटे तो जगत-दुनिया में कोई इंजीक्शन ही नहीं है।

कम्मू को याद आया, वह भी तो ऐसा ही काटा हुआ है, उसको भी दाँत गड़े हुए हैं मगर, पी.डब्लू.डी.नहीं प्रिसीडेंटनी बाई के। ये तो अच्छा है कि वो दुनिया जहान में एकला है। शादीशुदा बाल बच्चेदार होता, तो हो गया था कल्याण।

कम्मू ने दूसरी पर्ची उठाई, लिखा था - 'डोंट डिस्टर्ब मी' इसका मतलब उसने आफ़िस के किलार्क से ही पूछा था, तो उसने बताया था 'मेरे को मत सताव' कम्मू खुसफुसाया। सालो, तुम हमको खूब सता लो, मगर हम अपनी तकलीफ़ बयान करने आएँगे, तो बोलेंगे - 'डूंट डिस्टर्ब मी'। उस दिन ये ही तो हुआ था, गुमटी हटवा दी अफिसर ने। मिलने को गया तो बोला था - 'एक तो तुमने शहर बिगाड़ रखा है, ऊपर से खोपड़ी खाने आये हो, गेटाऊंट!' लो, ये भी बात में बात हुई। उसने तीसरी पर्ची उठाई, लिखा था - 'अंदर आना मना है'

कम्मू को लगा, किसी कमरे में घुसते ही भड़ाक से बारसाख से सिर फुट गया हो। उसने बहुत हौले-से बेचैन उँगलियाँ कपाल पर घुमाईं। जैसे, गुम्मा खोजना चाहता हो, सिर भिन्नाता-सा मालूम होने लगा।

..

"पेंटर सांब, ओ पेंटर सांब!" नीचे से आवाज़ आई। कम्मू ने खिड़की में से झाँका, सेनुमा का तांगेवाला था। उसे देखते ही तांगेवाला कपड़े के बोर्ड लेकर ऊपर चढ़ आया। बोला - "ये दो बोर्ड ले आया हूँ, फटाफट खींच दो, तो मैं तांगे से रौंड मार दूँ। नहीं तो फिरि मेरा स्टेशन की सवारियोंवाला टैम आ लगेगा।"
"तो साली फिलिम बदल गई।"कम्मू बड़बड़ाया।
"नीचू को नोट लगा देना, शनि-रवि को मेटनी शो भी चलेगा - और हाँ, 'एकदम नई कापी' लिखना न भूलियो। पर्ची पर फिल्लिम की हीरो-हीरोइन के नाम लिखे हैंगे।" तांगेवाले ने सारी हिदायतें एक साथ दीं व पर्ची-बोर्ड थमा के नीचे उतर गया।

कम्मू को अब पता नहीं लगता कि फिलिम नई है कि पुरानी, बहुत दिनों से देखना जो बंद कर दी। अब उसकी जगह भगत को भेज देता है। सेनुमावालों की ओर से बोर्ड बनई के चालीस स्र्पये मईने के मिलते हैं और बाल्कनी में हर फिलिम में एक सीट फ्री, पहले दिन और पहले शो की। पण, अब तो जाने का मन ही नहीं करता। एक दिन कोई फिलिम देख लो, तो दस दिन तक 'एकलापन' लगने लगता है।

कम्मू बोर्ड खींच कर कोने में ले आया। दो ही तो बोर्ड हैं, अभी बनाए देता है। उसने नील व पीली पेवड़ी सरेस के गाढ़े पानी में घोली और उन कपड़े के बोर्डों पर सफ़ेद मिट्टी पोतने बैठ गया।

ऐसे कित्तई बोर्ड फटाफट खींचे थे, कम्मू ने, मुंसीपाल्टी के चुनाव के टैम। जिज्जाबाई घोरपडे के भी कोई पचासों बैनर-बोर्ड बनाए थे। उसी पूँजी से चार पटिये जोड के गुमटी खड़ी की थी। उसी ने उखड़वा दी, शहर सुंदर बनवाना है। अब एम.जी.रोड के गंदे नाले को गंगा बना देंगे अरे, ये क्या समझेंगे 'ठीये' का चला जाना। धंधेवाले के 'डीये' फूटना होता है, जड़ उखड़ जाती है। देखें, तुम्हारा चुनाव लड़ने का वार्ड बदल दें पाड़ा मैदान की जगह लड़ लो मोहसिनपुरे से - साली ज़मानत ज़ब्त हो जाए। काला टेगड़ा भी वोट नी देगा, राजनीति के धंधे का मुर्गा दो दिन में दड़बे में घुस जाएगा - कहते हैं न, वो अपना नाम ब्याह मांड के और टपरा उखाड़ के देखो। आदमी घड़ी भर में घुटने टेक देता है।

कम्मू ने उदास हो कर सोचा, अब टपरा उखड़ गया, तो अपना ब्याह मंडने का सवाल ही नी उठता और मांड के करेगा भी क्या? आदी जिनगी तो कट गई, खाने के ठिकाने न हो पाये। छोकरी को ले आया तो कहाँ खाये-सोयेगी - जिज्जाबाई घोरपड़े के तिमंजले बंगले में?

..

नील घुल गई थी, लिखने के लिए ब्रश डुबोया ही था कि नीचे से आवाज आई - "पेंटर चचा, ओ पेंटर चचा!" वह देखे, तब तलक तो चार-पांच छोरों का झंुड कमरे में था। एक के हाथ में चंदे का डिब्बा था और जिसे वह लगतार हिला-हिला कर बजाये जा रहा था। दूसरा बोला - 'चचा, धुलेंडी तो कल है और तुमने रंग अभी से घोल लिया। कुँवारे आदमी को रंग खेलने का खूब शौक होता है न म़जे मारोगे दिखता!"
"नहीं रे, ये सेनुमा के बोर्ड बनाने हैंगे, सो नील और पेवड़ी घोली है।" कम्मू ने मजाक को गंभीरता में डुबोने के इरादे से कहा और उनकी ओर पूरी तरह मुखातिब हो गया।
"चचा, बता दो कितनी रांगोली और रंग ले आयें।" लड़के ने पूछा। कम्मू ने हिसाब से बता दिया। वे उतर गये। पिछले पूरे हफ्ते से इनका चंदा बटोरू कामकाज शुरू हो गया था। कम्मू से चंदा नहीं लेते, सिर्फ होली के मंडप के आगे 'होलिका और प्रह्लाद' वाला रांगोली-चित्र बनवा लेते हैं। ये सिलसिला कोई पांच साल से चल रहा है।

पृष्ठ: . .

आगे—

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।