|  | ईराक की 
					राजधानी बगदाद के हवाई अड्डे पर यान के पहुंचने की सूचना यान 
					परिचारिका दे रही थी। पूजा उसकी अरबी भाषा के पूरे संवाद के 
					बाद 'शुक्रन' शब्द ही केवल पकड़ पाई थी। यान से उतरते–उतरते 
					सुबह हो जाने का सत्य जैसे उसे सजग कर रहा था, कि उसके पाँव 
					अनजानी विदेशी धरती पर उतर रहे थे। विकास के चेहरे पर खीझ–सी 
					थी जिसे देखकर पूजा को लगा जैसे सुबह दबे कदमों से अपने आपको 
					फैला लेने में कतरा रही थी। 
 विकास की बाँह थामकर वह उस बस में चढ़ जाती है, जो उन्हें हवाई 
					अड्डे के मुख्य भवन तक ले जाने को थी। मन जैसे फिर से पंखयुक्त 
					हो उठा था, इतने सालों का वैवाहिक जीवन और संयुक्त परिवार के 
					दैनन्दिन संघर्षों से जूझती वह जिस राह पर चली थी, वहाँ कुछ भी 
					तो नहीं मिला था – हाथ लगी थी तो बस एक ऊब। कॉलेज की पढ़ाई, 
					डिग्रियाँ, विद्यार्थी जीवन के अर्जित इनाम और मैडल पता नहीं 
					किस बेनामी के पर्दे के पीछे छुपे पड़े थे?
 
 अब सच था तो संयुक्त परिवार का 
					ढेर–सा काम, विकास की अल्पभाषिता और व्यस्तता से एक नियमित 
					दूरी जो मात्र शरीर की ही नहीं थी, मन में भी एक कसैले धुएँ की 
					तरह भरती जा रही थी . . .जब भी वह कुछ कहती तो विकास का उत्तर 
					होता– "जीवन में दो ही तो दुख हैं पूजा – एक तो जो तुमने चाहा 
					है वह वांछित कभी न प्राप्य हो, दूसरा वह जो चाहा है झट से मिल 
					जाए।"
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