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					 "जैसे तुमने बहुत कुछ देकर संसार की सभी खुशियाँ दे दी हैं 
					मुझे – पत्थरों से प्रेम करते हो, पत्थरों को तुमसे प्रेम है। 
					दीवारों पर कितने रंग चिपकाए तुमने, टाइलों, सिरेमिक्स, काँच 
					के टुकड़ों के विभिन्न रंगों के बीच बस फँसे हो, जीवन का 
					सुख–दुख तुम्हें कहाँ याद रहता है?" 
 "किसी का भी पूरा जीवन सुख से बीत जाए ऐसा तो असम्भव होता है 
					पूजा . . .और अगर तुम्हें ही पूरे जीवन की खुशियाँ उपलब्ध हो 
					जातीं तो तुम बरदाश्त न कर पातीं . . ."
 "चलो आनन्द या सुख की बात जाने दो . . .अब यह एकसार चलती 
					जिन्दगी की बोरडम तोड़ने का हक तो मुझे है न विकास . . .अभी उस 
					दिन मैंने तुम्हें पढ़कर सुनाया था कि स्वतंत्र और मुकत रहने के 
					लिये बोरियत की बलि चढ़ानी होती है। 
					यह साधारण सी बात है।' मेरी अब की यह बलि अब तुम चढ़ा ही दो विकास . 
					. .इस बार तुम मुझे अपने साथ विदेशी ले ही चलो। और जिस आनन्द 
					की बात तुम करते हो वह शायद धरती के उस छोर पर 
					मुझे मिल ही 
					जाए . . ."
 
 विकास का अपना मानदंड था, उसके जीवन में उसका कलाकार होना ही 
					शायद सबसे अधिक मायने रखता था, उसका शिल्प उसका ध्येय था, 
					जिसके लिए वह बहुत से मानपत्र तथा पुरस्कार पा चुका था। घर के 
					साधारण सुख जुटा सकने लायक मात्र धन मिल जाना उसे कम नहीं लगता 
					था। विकास बहुत बार कलाकारों के डेलीगेशन में विदेश–यात्रा कर 
					चुका था, इस बार बगदाद के फाइवस्टार होटल ने उसे 'म्यूरल' या 
					भित्तिचित्र बनाने के लिए अनुबद्ध किया था। बगदाद आना–जाना अब 
					रोज का काम हो गया था। और . . .पूजा, उसकी सहेलियाँ, बहनें 
					किसी न किसी कारण को पकड़ कर विदेश जाती–आती रहतीं थीं, उनके ही 
					कुछ रोमांचक किस्से उसकी पलकों पर अटके थे कि वह जिद कर रही थी 
					. . .
 
 फिर विकास ने कुछ नहीं कहा, पूजा का पासपोर्ट इत्यदि तैयार 
					कराए और उसे साथ ले लिया। पूजा अपने एकरस जीवन में इस प्रथम 
					यान यात्रा और विकास के साथ का अकेलापन, इतने सालों में पाया 
					यह अद्भुत समय जैसे बाँधकर रख लेना चाहती थी। बगदाद का हवाई 
					अड्डा इतना साधारण लगा था . . .कितना सुना था विदेशों के 
					सौंदर्य तथा भव्यता के बारे में और यहाँ सब कुछ व्यावहारिक–सा 
					है। विकास उसे एक जगह छोड़कर मलिक को ढूँढ़ रहा है– लकड़ी के 
					रेलिंग के दूसरी ओर से मलिक विकास को पुकार लेता है– वहीं दूर 
					से वे कुछ बात कर लेते हैं। तरह–तरह की वेश भूषाओं के 
					सम्मिश्रण से खचाखच भरे उस हाल में जैसे परेशानी–सी हो रही है– 
					सामान आने में देर है और विकास की एक द्विविधा 
					का कारण पूजा भी तो है।
 
 मलिक की बड़ी–सी आरामदेह गाड़ी में वे सब बैठकर चल देते हैं – 
					विकास ने अब तक पूजा का परिचय मलिक से नहीं कराया है। पूजा कार 
					के शीशे से बाहर का दृश्य देख रही है – सर्द तेज हवा का झोंक 
					शीशा खोलते ही उससे टकराता है . . .सिहरन उसे झकझोरती है। बाहर 
					का सब कुछ बड़ा साधारण–सा है . . .पूरा शहर जैसे नींद से जाग 
					रहा है . . .पुरानी इमारतों को तोड़ कर नए–नए भव्य भवन आकार 
					ले रहे हैं। बाहर चारों तरफ यही एक नज़ारा था – और कार के भीतर 
					ही विकास, मलिक म्यूरल और होटल की बनावट तथा सज्जा पर बात कर 
					रहे हैं। पूजा आँखें बंद करके लेट–सी जाती है . . .उसे लगता है 
					वह अकेली छूट गई है – कितनी बेकार हो उठी है अचानक –
 होटल के रंग–बिरंगे दरवाजे में घुसते ही पूजा को चाँदनी चौक के 
					रंगीन सस्ते होटल की याद आ जाती है। कमरा बदलकर सिंगल से डबल 
					किया जाता है – कुछ परेशानी नहीं आती – एक साधारण–सी लिफ्ट 
					उन्हें ऊपर कमरे तक ले जाती है। मलिक बिना विदा लिए नीचे रह 
					जाता है – सुबह के नौ बज चुके हैं – इस धरती पर पाँव रखे ठीक 
					चार पाँच घंटे हो चुके हैं और विकास के चेहरे पर वैसी ही खीझ 
					है। पूजा चुपचाप सामान लगाती है – कपड़े बदलकर विकास लेट जाता 
					है – रातभर का सफर, थकावट से चूर कर गया है। पूजा भी सो जाती 
					है – जब उठती है तो ग्यारह बजे हैं और विकास बैठा 
					शेव कर रहा है।
 
 "पूजा – मैं तो जा रहा हूँ, मलिक आता होगा, तुम नहा–धो लो।"
 "मैं क्या साथ नही चल रही हूँ?"
 "नहीं, तुम क्या करोगी। वहाँ इतने मजदूर लगे हैं, सारे में 
					कबाड़ फैला है – तुम आज आराम ही करो। खाना नीचे से मँगा लेना – 
					जैसे भी हो – मैं यह कुछ 'दीनारें' छोड़ जाता हूँ – चाहो तो घूम 
					लेना।"
 "तुम कब तक लौटोगे?"
 "शाम तक –"
 
 विकास जल्दी–जल्दी तैयार होकर चला जाता है। पूजा अलसाई पड़ी 
					रहती है – नहाना क्या – चलो और सो लेते हैं – चादर–कंबल ओढ़ती 
					है पर नींद अब और नहीं आ सकती। वह उठकर नहा–धो लेती है, तैयार 
					होकर नीचे उतरती है। सोचती है अकेली आई हूँ तो अकेली घूमूँगी 
					भी। नीचे कुछ थोड़े–से लोग दीखते हैं, कुछ बगदादी भी, बाहर के 
					अतिथि भी। पूजा की साड़ी अपनी एक पहचान बनाती है। वह डाइनिंग 
					रूम तक जाती है, कॉफी का एक प्याला पीने की इच्छा है, वह देखती 
					है सारी मेजें दोपहर के खाने के लिए सजा दी गई हैं अतः वह जाकर 
					लौबी में बैठती है। एक बहुत खूबसूरत चुस्त बैरा पास आ खड़ा होता 
					है – 'कॉफी' वह कहती है, बड़ी मीठी मुस्कान से सिर हिलाकर वह 
					चला जाता है।
 
 टेलीविजन चल रहा है। सामने अरबी में समाचार आ रहे हैं, एक 
					स्मार्ट सी अधेड़ महिला मुस्तैदी से अपनी बात कह रही है – कुछ 
					समझ नहीं आता – फिर मुस्कान के साथ कॉफी का प्याला आ जाता है – 
					पूजा इस बार उस मुस्कराहट से घुल–सी जाती है – हमारे भारत में 
					तो जैसे बहुत से लोग नौकर–छाप पैदा होते हैं – सुस्त, बुझे 
					मुर्दनीभरे चेहरे, जिन पर हंसी की एक भी रेखा नहीं उभरती, 
					बुझा–सा उनका अस्तित्व जिस पर जितना चाहो चुस्त कपड़ों का खोल 
					चढ़ाओ वे बदलते नहीं और यह – बेहद साफ, नीली पैंट पर झकझक करती 
					सफेद कमीज और उतना ही चिलकता साफ रंग . . .जीवंत गुनगुनाते हुए 
					मेज लगा रहा है। कॉफी खत्म हो जाती है। बैरा कप उठाने के साथ 
					एक बिल उसके आगे सरका देता 
					है, जिस पर वह हस्ताक्षर कर देती है।
 
 बाहर आकर फिर अजनबी हो जाती है पूजा इस होटल से, उसके नाम से, 
					आसपास के दृश्य से पहचान बनाती कुछ देर खड़ी रहती है। किधर 
					जाए–मुड़ कर सड़क पर सीधी चलती जाती है। बेमानी अकेले घूमने का 
					यह पहला मौका है – भाषा भी तो नहीं है, इस अजनबी शहर में जैसे 
					वह गूँगी हो गई है। दूकानें शुरू हो जाती हैं, भाषा की 
					आवश्यकता नहीं है – आम–सा बाज़ार है, कोई विशेषता या भव्यता 
					नहीं नजर आती जिसे आंकने पूजा कितनी दूर आई है। कुछ सुपर बाजार 
					खाने–पीने की विभिन्न वस्तुओं से अटे पड़े हैं, पर आज इन 
					स्टोरों में झाँकने का पूजा का बिल्कुल मन नहीं है, बाल 
					बनाने का सैलून, फूलों की सुन्दर 
					छोटी–सी दूकान। तभी संगीत का एक स्टोर दीख पड़ता है, उसी में 
					पूजा घुस लेती है।
 
 बच्चों ने अँग्रेजी के कुछ टेप माँगे थे, पर्स से लिस्ट निकाल 
					लेती है। दूकानदार टूटी–फूटी कामचलाऊ अँग्रेजी बोल लेता है, 
					लिस्ट में लिखा है – 'बी जीस', 'जावा का वुलेवू' डिस्को 
					पार्टी' 'फन्की टाउन' और जाने क्या–क्या? कितने ही 
					गानों के नाम पूजा गिनाती जाती है और दुकानदार सिर हिलाता जाता 
					है। पूजा कितनी भी भारतीय हो, बच्चे समय के रंग में बदरंग 
					जीन्स पहने दौड़ते चले जा रहे हैं, एक ऐसी खोखली सभ्यता के 
					पीछे, जिसके पास अपनी कोई नैतिकता नहीं है। बच्चों के लिखे 
					सारे गानों के नम्बर्स मिल जाते हैं, वह कीमत चुकाकर बाहर आ 
					जाती है। इसी तरह बेमतलब घूमते शाम हो जाती है। जिस रास्ते से 
					चलकर पूजा उस बाजार तक आई थी उसी रास्ते की पहचान बनाती लौटकर 
					होटल तक आ जाती है। अभी 
					कमरे में जाने का मन नहीं है, इसलिए वह आकर उनकी 'कॉफी शॉप' 
					में बैठ जाती है।
 
 कॉफी शॉप और डाइनिंग हॉल के बीच छोटी–सी एक खुली जगह है वहाँ 
					ऊपर से सूरज की रोशनी आती है और दोनों कमरों में उजाला देती 
					है। इस खुले भाग को बड़े मजबूत और साफ–सुथरे शीशों से घेर कर एक 
					नन्हा–सा चिड़ियाघर बना दिया है। बहुत सुन्दर सुनहरे पिंजड़े 
					विभिन्न ऊँचाइयों पर लटके हैं, उनके दरवाजे खुले हैं, कुछ सूखे 
					पेड़ों के कलात्मक शाखायुक्त तने भी यहाँ–वहाँ सफाई से गड़े हैं। 
					उनकी पत्ताविहीन शाखाओं पर प्लास्टिक के फूल–पत्ते सजाए गए 
					हैं। कोई मुठ्ठी भर चिड़िया, एक सुस्त काकातुआ यहाँ–वहाँ बैठे 
					हैं – कोई चहचहाट नहीं, यदि है भी तो वह मोटे काँच के इस 
					पारदर्शी कलेवर से इस पार नहीं आती, चिड़िया कभी–कभी पिंजड़े के 
					भीतर आती है, कुछ खाती है और लौट जाती है – नीचे बड़े से पात्र 
					में पानी भी है, पर न जाने क्यों यहाँ कोई भी चिड़िया पानी के 
					पास नहीं जा रही – शायद प्यास न लगी हो . . .? उन्हीं को देखती 
					पूजा चाय पी डालती है।
 
 विकास के आने का समय हो चला था, यही सोच पूजा कमरे में चली 
					जाती है – कमरे में एक गंध सी है, कैसी? कोई नाम नहीं दे पाती। 
					पूजा उसे सुगंध कहे या दुर्गन्ध। सूटकेस से साथ लाया हुआ एक 
					अगरबत्ती का पैकेट निकाल कर वह अपने मन मुताबिक खुशबू फैला 
					लेती है। पलंग पर बैठती हुई सोचती है, क्या सोचे? बच्चों के 
					बारे में – न, वह नहीं है चिन्ता। विकास के साथ जबरदस्ती जिद 
					करके यहाँ आ जाने पर क्या ऐसे ही अकेले बैठना पड़ेगा – तो, मन 
					में एक गुच्छा हवा का 
					घुमड़ने लगता है – नींद वैसे ही उसे थका डालती है।
 
 विकास झकझोर कर जगाता है, "पूजा, सो रही हो, चलो नीचे लौबी में 
					मलिक बैठा है – तुमसे मिलना चाहता है।"
 
 पूजा हड़बड़ाकर उठती है। जल्दी से साड़ी ठीक की। बालों पर कंघी 
					फेरी और विकास के साथ नीचे आ जाती है। मलिक कॉफी शॉप में बैठा 
					था, पूजा को देखते ही उठ खड़ा हुआ – 'आइये'।
 
 पूजा एक कुर्सी पर बैठ जाती है, मलिक बैरे को अरबी में कुछ 
					कहता है, तब तक परिचय का क्रम चलता रहता है। मलिक की पत्नी 
					जर्मन है, आजकल अस्वस्थ है इस कारण पूजा को घुम–फिरा नहीं 
					सकेगी, नहीं तो मलिक उन्हें अपने घर ठहराता। पूजा सहमती है पर 
					फिर भी कुछ बेस्वाद लगता है। पता नहीं पेय या . . .वह मलिक की 
					पत्नी का सहारा मानकर तो यहाँ आई थी, और उसी का सहारा बिना 
					कारण उसके हाथ से छूटा जा रहा है। उसके आने को एक बार फिर 
					निस्सार–सा करता मलिक कहता है –
 
 "बगदाद कैसा लगा आपको पूजा जी? वैसे तो यहाँ कुछ खास नहीं है – 
					थोड़ी सी नाइट लाइफ है, एक–आध मस्जिद, थोड़ी दूरी पर एक 
					एम्यूजमेंट पार्क जिसे आप मिनी डिजनीलैंड कह सकती हैं . . .कल 
					वही देख डालिए . . .
 " हाँ, कल वही देखेंगे।" पूजा ने विकास की ओर देखते हुए कहा 
					था। हाथ से कागज के नेपकिन को मरोड़ता विकास एकाएक म्यूरल के 
					किसी रंग को लेकर फिर से मलिक से वार्तालाप में उलझ जाता है। 
					पूजा मुड़े–तुड़े नेपकिन को खोलकर मेज पर फैलाना चाहती है, शीशे 
					की पारदर्शी दीवारों के पास पक्षियों के फड़फड़ाने का स्वर उसे 
					खींच लेता है, मद्धम सी रोशनी में पक्षी न सोए हैं न जागे 
					हैं।
 
 दूसरे दिन विकास वैसे ही काम पर चला गया जैसे दिल्ली में जाता 
					है, और जैसे पूजा उस अनजान अजनबी शहर में न होकर दिल्ली के 
					अपने घर में हो। पूजा तैयार होकर बाहर निकल आती है – होटल 
					मैनेजर से अपने नगर दर्शन की बात करती है। मैनेजर उसके लिए एक 
					टैक्सीवाला दिखा देगा। वह अकेली टैक्सी में जाएगी, अकेली – 
					फिर उसका अकेलापन शूल–सा चुभा था, हाँ वह अकेली ही जाएगी। वह 
					टैक्सी में बैठ जाती है, टैक्सीवाला थोड़ी–बहुत अँग्रेजी जानता 
					है, वह उसे एक मस्जिद के सामने ले जाता है, मस्जिद के नाम को 
					वह जान नहीं पाती। बोली नहीं समझती और वहाँ जो भी लिखा 
					था अरबी में था – दरवाजे पर एक 
					पुरुष रोक देता है उसे, वह भीतर जा नहीं सकती। फिर कुछ समझ 
					नहीं आता।
 
 टैक्सीवाला दूर से उसे देखकर जाता है, उस पुरुष की बात समझकर, 
					फिर पास की दूकान से माँगकर उसके लिए एक बुर्का ले आता है – 
					काला दुर्गन्ध भरा बुर्का, वह समझाता है कि पूजा उसे पहने बिना 
					मस्जिद में भीतर नहीं जा सकेगी . . .। बुर्का सिर से लपेट कर 
					पूजा मस्जिद के भीतर जाती है। बाहर बड़ा–सा चबूतरा है, लोग 
					कैमरे से फोटो खींच रहे हैं। वह कैमरा लाई ही नहीं, लाती तो 
					भी? मस्जिद के दरवाजे पर की भित्तिकारी, मस्जिद की छत पर का 
					शीशे का काम सब बहुत सुन्दर तो लगता है, पर तब अपनी बात किससे 
					करे? उन्हीं खूबसूरत दीवारों या छत से जिसके शीशे में उसका 
					अपना प्रतिबिंब टुकड़े होता लटक आया है। पूजा को लगा मस्जिद का 
					सारा सौन्दर्य उसकी आंखों देखा जाकर जैसे बर्बाद हो गया, वह 
					सराहना के दो शब्द भी तो कह न सकी।
 
 बुर्के की लपेट से मुक्त होकर वह फिर टैक्सी में बैठ गई। हाथ 
					में ली डायरी के पृष्ठ फड़फड़ा रहे थे, खाली रह गए थे। क्या 
					लिखें? बेनाम मस्जिद का बुर्के में लिपटा सराहना विहीन 
					सौन्दर्य? 'टिगरिस नदी' के किनारे पर से टैक्सी गुजर रही थी। 
					विकास ने बताया था यहाँ मछेरे पारदर्शी पानी में मच्छियाँ 
					दिखाते हैं। जो भी मच्छी चाहिए वह मच्छी मार कर उसी समय सामने 
					पका कर खिलाते हैं – क्या स्वादिष्ट होता है कि बस – हर बार 
					यहाँ आने पर विकास खाने अवश्य आता 
					है, पर इस बार नहीं आएगा क्योंकि 
					पूजा मछली नहीं खाती।
 
 पूजा दोपहर के खाने के समय लौट आई थी, पर खाने का मन बिल्कुल 
					नहीं था। होटल के कमरे में अकेले बैठे शाम कितनी आहिस्ता आई 
					है, यह पूजा का मन ही जानता है। उस बीच बच्चों की याद ही चाँदी 
					के रुपहले तार–सी अवश्य बिखरी थी, बस नहीं तो कमरा अंधेरे से 
					भर रहा था, विकास अभी तक लौटा ही नहीं। और अंधेरे के बीच विकास 
					के शब्द गूँजते रहे –
 "पूजा तुम साथ मत चलो, मैं तो काम के लिए जा रहा हूँ, तुम्हें 
					घुमाने–फिराने का समय नहीं होगा मेरे पास, फिर तुम कहोगी बेकार 
					लाए।"
 
 वही सच हो रहा है। भारत में तो व्यस्तता थी ही, यहाँ और भी 
					अधिक बढ़ गई। विकास का कहना है "यहाँ हर मिनट के पैसे लगते हैं, 
					कोई एक पल बेकार नहीं गँवाया जा सकता, काम जितना जल्दी समाप्त 
					हो उतना अच्छा है।" और उसके बीच जिद करके आ गई है पूजा। कितना 
					कर्मठ है यह विकास भी– पक्की मिट्टी का, पूजा को कोई रुकावट न 
					मानकर बिल्कुल अनदेखा, अनचीन्हा छोड़कर हर सुबह चला जाता है और 
					जब शाम को लौटता है तो थकान से पस्त, टूटा हुआ–सा, 
					बस खाने भर को वे दोनों एक साथ निकलते हैं।
 
 बगदाद में आए चार दिन ऐसे ही निकल गए, पूजा हर दिन विकास के 
					खाली हो जाने की प्रतीक्षा करती और उसे लगता दिन पर दिन विकास 
					कैसा होता जा रहा है, कर्मठता के खोल में तने सिपाही–सा, दूध 
					का दूध–पानी का पानी रखने वाले ईमानदार व्यापारी जैसा . . .। 
					सोचा तो लग रहा था विकास ने प्रेम, कर्तव्य के बीच बड़ी–सी एक 
					दीवार खड़ी की है और उसी पर बैलेन्स करता सधे कदमों से चल रहा 
					है, पूजा उसे किसी भी प्रकार टस से मस नहीं कर पाती। उस शाम 
					विकास ने आकर बताया कि मलिक और उसकी पत्नी ब्रिगिटा ने खाने पर 
					बुलाया है।
 
 ब्रिगिटा किसी भी कोण से देखो तो सुन्दर नहीं थी, लम्बोतरा 
					घोड़े जैसा चेहरा, अनाकर्षक बेडौल शरीर, अपनेपन और मिठास जैसा 
					कुछ भी नहीं। और पूजा, पूजा उसी का एक सहारा मानकर इतनी दूर तक 
					आई थी, और वह भरपूर दूरी निभा रही थी। ब्रिगिटा अँग्रेजी भी 
					अधिक नहीं बोल सकती थी, शायद यह भी एक कारण रहा हो उस दूरी का 
					– फिर भी, पूजा का विश्वास है कि कुछ बातें ऐसी होती हैं जिनके 
					लिए भाषा की आवश्यकता नहीं होती। ब्रिगिटा के पूरे व्यवहार में 
					मात्र औपचारिकता थी। पूजा ने उसे एक साड़ी भेंट दी थी। ब्रिगिटा 
					ने मात्र थैंक्स कहा और वैसे ही विदा हुई। पूजा को यात्रा के 
					इस आराम ने और भी थका दिया। ब्रिगिटा की निहायत रूखी बातों से 
					जैसे काम्पलेक्स होने लगा – उसका अपना अस्तित्व क्या इतना 
					बेमानी है? क्या इतनी गई–गुजरी है पूजा कि कोई भी उसके पास 
					रुकना नहीं चाहता, क्या सब 
					ही बहुत व्यस्त हैं – यहाँ, इस विदेश में जिद करके आने की इतनी बड़ी सजा क्यों?
 
 पूजा ने अपने घर लौट जाने का निर्णय ले लिया था – विकास करे 
					अपना काम, वह लौट जाएगी। विकास से यह बात कही तो उसने फौरन ही 
					स्वीकृति दे दी थी –
 "हाँ, ठीक है पूजा – काफी घूम लिया, यहाँ कुछ खास है भी तो 
					नहीं – तुमसे पहले ही कहा था, मत चलो, खैर पैसे फूँकने थे 
					तुम्हें, सो हो गया। मलिक को सुबह फोन कर दूँगा, तुम्हारे जाने 
					का इंतजाम कर दे।"
 पूजा का मन और डूबा था, हाँ अब तो रुकने का कोई बहाना भी नहीं 
					है और आग्रह तो कभी था ही नहीं –कितनी निरर्थक हो गई है वह। 
					पैसा, काम . . .समय उसी में बँटते, विभाजित होते विकास ने 
					पत्नी के प्रति कोमलता के सारे भाव भुला दिये हैं। बस, यहीं तक 
					आना था उसे . . .यह कैसी क्रूर पहचान है? मुँह फेरकर बिस्तर पर 
					रोती रही थी – कमरे की 
					सारी हवा कितनी दमघोंटू थी – बोझिली, 
					चुप्पी से सनी, जैसे अगरबत्ती की खुशबू थर्राकर रुक गई हो। 
					पूजा को लग रहा था जैसे उसने अपनी जिन्दगी के कुछ दिनों का गला 
					घोंट दिया है, वही कुछ दिन जो उसने इस धरती पर जिये थे, जो अब 
					नहीं रहे।
 
 सुबह फोन पर सबसे पहली यही बात कही थी विकास ने। मलिक ने कहा 
					था अगले ही दिन रात को दो बजे भारत के लिए प्लेन जाता है, उसी 
					में इन्तजाम कर देता है वह। पूजा ने सामान ठीक किया तो विकास 
					ने जैसे चैन की साँस ली। सारा दिन पूजा ने घर के सब लोगों के 
					लिए, बच्चों के लिए उपहार खरीदे, खाली हाथ लौटने पर, उसके मन 
					का खालीपन उन सबके सम्मुख प्रगट न हो जाए शायद इसी डर से। 
					सोचती रही अभी तो पूरा जीवन सामने पड़ा है, कितने ही नाटक हैं 
					मन की इस विपन्नता को छुपाने के, कैसे कर पाएगी वह . . .?
 
 शाम पूजा के जाने का संदेश लिये आ पहुँची थी, विकास के सारे 
					मैले कपड़े धोकर वह सुखा चुकी थी, नहाकर वह स्वयं भी एक अनपहनी 
					ताजी साड़ी से सज कर खड़ी थी कि अपने देश में मन की इस नवअर्जित 
					विपन्नता की पूरी तरह ढककर ले जा सके। विकास के लौटने में अभी 
					देर थी – और जब विकास लौटा तो रात के नौ बज चुके थे, और उसके 
					पूरे शरीर से थकान टपक रही थी। विकास के निकट खड़े होते ही पूजा 
					की साड़ी की सारी ताजगी जैसे समाप्त हो गई, ढे.र सी सलवटें उठ 
					आई। विकास की इस अस्त–व्यस्तता पर पूजा को आज दया भी नहीं आई, 
					क्यों है इतना मशीनी यह आदमी। क्या कुछ नहीं था अपने देश में 
					जो बाहर के देश में इस तरह कोल्हू के बैल–सा पिसता जा रहा है।
 
 विकास बिस्तरे पर पड़ रहा था–थका बहुत था, नींद भी आ गई। जाने 
					को तैयार पूजा न तो लेट सकती थी और न बैठ सकती थी। उस अंधेरे 
					कमरे में उस सोए हुए पुरुष के पास चुपचाप शव बनकर बैठना भी 
					क्या आसान था। रात के खाने का समय भी निकल गया था – क्या करे 
					पूजा। रात के ग्यारह बजे न तो लौबी में अकेले बैठ सकती थी, न 
					अकेले कहीं जाकर खाना खा सकती थी। अकेले होने के कारण इतने दिन 
					दोपहर का खाना भी तो नहीं खाया था उसने, चुपचाप पलंग के अपने 
					हिस्से पर अंधेरे में बैठी वह घड़ी की सुइयों को खिसकते हुए 
					देखती रही, बारह बजे विकास को जगाना ही पड़ा, प्लेन का समय हो 
					रहा था। हड़बड़ाकर विकास उठा तो घड़ी देखते ही चौंक गया, "अरे, 
					तुमने तो खाना भी नहीं खाया, चलो जल्दी हवाई अड्डे पर ही कुछ 
					खा लेंगे . . .।"
 
					मलिक की कार आ गई थी, शोफर भी 
					था। पूजा नींद भरे, थके, काम की अधिकता से त्रस्त उस शरीर से 
					दूर जा रही थी , उस विदेश से भी, जो उसकी सखियों, बहनों की 
					दिलचस्प वार्ताओं का केन्द्र रहा था। हवाई जहाज उठ चला था, 
					चारों तरफ घना अंधेरा था और पूजा सोच रही थी होटल के शीशे में 
					बंद चिड़ियाघर को उसने आते समय देखा ही नहीं – रात के अंधेरे 
					में उस सख्त ठंडे काँच से टकराकर कहीं वह चिड़ियाँ चोट तो नहीं खा जातीं।
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