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कहानियाँ

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यू के से दिव्या माथुर की कहानी—उत्तरजीविता


घर से निकलने के लिए दरवाज़ा खोला ही था कि बदन में झुरझरी आ गई। पाँव जहाँ के तहाँ रुक गए। गले में अपनी उबकाई को रोक मैंने अपना चेहरा सायास फेर लिया। 'हे भगवान! इसकी आत्मा को शांति देना।'

आँगन के बीचों बीच, एक मरी हुई चुहिया पड़ी थी। अब क्या करूँ? बेटा भी कालेज जा चुका था। उससे थोड़ी झिकझिक करती तो शायद वह इसे कूड़ेदान में फेंकने को राजी हो जाता। चाहा कि बाग में एक गड्ढ़ा खोदकर उसे आदर से दफना दूँ किंतु दफ्तर जाने की जल्दी थी। मुझे वैसे ही देर हो गई थी, तिस पर सुबह सुबह ये मुसीबत! न जाने आज का दिन कैसे गुजरेगा। कहीं ये किसी अशुभ घड़ी का कोई संकेत तो नहीं! मेरा दिल बैठ गया।

चुहिया की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते समय मैं सजग और प्रसन्नचित्त थी कि मैं कितनी महान हूँ कि एक अदना चुहिया के लिए भी प्रार्थना कर रही थी। शायद भगवान जी इस के बदले मुझे अच्छा सा वरदान दें।

मैंने सोचा कि इस समय तो मुझे इसे उलाँघ के दफ्तर चला जाना चाहिये। हो सकता है, शाम को जब मैं लौटूँ तो नीचे रहने वाली अफ्रीकी औरत उसे ठिकाने लगा चुकी हो। फिर लगा कि कहीं ये उसी का ही किया धरा न हो।  

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