मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


उसकी बिल्ली यदा कदा चूहे मारकर इधर उधर छोड़ देती है, हमारे घर पर आए इक्का दुक्का मेहमान भी उसके गले नहीं उतरते कि शोर होता है। इनका एकरस संगीत जो हमारे कान फोड़ता है, उसका कुछ नहीं, वह तो संगीत है।

८७ नम्बर वाली गोरी पड़ोसन कह रही थी कि जब से यह 'काली' हमारे मुहल्ले में आई हैं, चूहों का ऊधम बढ़ गया है। काले लोग 'बड़ा' मांस खाते हैं, जो चूहों को बहुत पसंद हैं। खुद ने तो एक बिल्ली पाल ली है, तुम जाओ जहन्नुम में, बेटा कहता है कि हमारा 'इंडियन' खाना शायद चूहों को पसंद भी बहुत है और मैं क्यों कि सतर्क नहीं हूँ, इसीलिए वे पाइप से चढ़ कर हमारे यहाँ आ जाते हैं। भारतीय मूल के पति और
बच्चे खट से माँ या बीवी को दोषी ठहरा देने के अलावा अंगुली नहीं हिलाने को तैयार।

खैर, अब मैं क्या करुँ? यदि काली ने जान बूझकर फेंका है तो वह तो इसे ठिकाने लगाने से रही। चेहरा बायें किये खड़े रहने से तो यह मरी चुहिया अदृश्य होने से रही। जब मैं उसे देख भी नहीं पा रही तो उठा के फेकूँ कैसे?

यकायक विचार आया कि यदि मेरे मृत शरीर को देखकर लोगों को यदि ऐसे ही उबकाई आने लगी तो मैं पड़ी सड़ती रहूँगी जब तक कि मैं खाद न बन जाऊँ। शायद जब सिर पर आन पड़े तो हिम्मत आ जाती है पर अब जब कि ये मुसीबत मेरे सिर पर आन पड़ी है तो मुझमें इतनी भी हिम्मत नहीं कि मरी हुई चुहिया पर एक नज़र ही डाल पाऊँ।

मेरी कोई भी परिकल्पना मुझे उत्साहित न कर पाई कि मैं उसे एक तरफ सरका ही पाती। बिना अपना चेहरा घुमाये, राम का नाम लेती हुई, सप्रयास मैं किसी तरह घर के बाहर आ गई और भागी अपनी कार की ओर। उसी ने मुझे इतना ड
रपोक बनाया है, तो उसकी गल्ती की सज़ा मैं क्यों भुगतूँ?

चूहों से मुझे बचपन से ही दहशत रही है। एक बार, जब मैं केवल सात वर्ष की ही थी, न जाने कैसे और क्यों एक मोटे चूहे ने मेरा होंठ काट लिया था। दिल्ली का वह एक पुराना घर था, जिस पर समय की मार के निशान साफ नज़र आते थे, जिन्हें दादाजी हर दीवाली पर जैसे तैसे जुगाड़ कर, सफेदी से ढकने का असफल प्रयास करते रहते थे। न जाने क्यों चूहे उस ढहती इमारत के पीछे लगे थे। जब कि वहाँ तो खाने पीने के भी लाले पड़ने लगे थे। घर में जब उसे कुछ खाने को न मिला तो शायद भूख के मारे ही उस चूहे ने मेरा होंठ काट खाया था।

मंझले चाचा चूहेदानियों में चूहे पकड़ पकड़ के नाले में डाल के आते तो मैं सोचती कि वह नाला तो बहुत गंदा था। उसमें डूबके चूहे अवश्य मर जाते होंगे। छोटे चाचा लंबे डंडे के सिरे पर चाकू या एक नुकीला औज़ार बांधकर वह चूहों का शिकार करते थे। मैं बहुत डरती थी कि कहीं वह मेरे पीछे न पड़ जाएं, जैसे कि वह खून से लथपथ तड़पता चूहा लेकर अपनी भाभियों को सताते थे।

दादी को बड़ी फिक्र रहती थी कि कहीं चाचा को इसका फल न भुगतना पड़े। उनसे संबंधित छोटी मोटी दुर्घटना को भी वह चूहे की हत्या से जोड़ लेती थीं। दादा जी को लकवा मार गया था और वह एक भिखारी को दोष दे रहीं थीं, जिसे दादाजी ने एक थप्पड़ जड़ दिया था क्योंकि काम करके पैसा कमाने की जगह खींसे निपोरता वह हर रोज़ भीख माँगने आ खड़ा
होता।

चाचा के विचार में यह योग्यतम की उत्तरजीविता का प्रश्न था। यदि इन मोटे मोटे चूहों को न मारें तो वे हमपर आक्रमण करने लगेंगे। बच्चों का स्वास्थ्य और उनकी सुरक्षा खतरे में पड़ जाते। दादी और उनके सरीखे लोग निरूत्तर हो जाते। चाचा जैसे बहादुर लोग न होते तो शायद डरके मारे हम पलंगों पर चढ़कर ही जीवित रह पाते।

मैं सोचती कि सांप, कीड़ें, मकौड़े और छिपकलियों जैसे जीव भगवान ने बनाए ही क्यों। दादी कहतीं कि ये उनके बुरे कर्मों का फल होगा। चाचा प्रतिउत्तर में कहते कि फिर तो उन्होंने चूहे को मार कर पुण्य का काम किया। क्योंकि अब उसने जिस भी योनि में जन्म लिया हो, चूहे से तो बेहतर ही होगा।

न जाने भगवान जी जब बोर हो जाते हों तो मनुष्य और इन जीवों के बीच की इस कशमकश से दिल बहलातें हों। मुझे तो लगता है कि वह मेरी बेटी की तरह अवश्य 'हाइपर' होंगे, तभी तो लाखों योनियों की संरचना कर पाये, कैसा जीवट, कैसी कल्पनाशक्ति!

हे राम! मुझे ऐसा कोई कर्म न करने देना कि मुझे चूहा या छिपकली बनना पड़े। क्या पता मैं पिछले जन्म में कोई ऐसा अपराध कर चुकी हूँ। किन्तु यदि ऐसा होता तो मैं मनुष्य योनि क्यों कर पाती। सुना है कि लाखों योनियों के बाद ये काया मिलती है तो मैंने अवश्य अच्छे कर्म किये होंगे। फिर चूहे ने मुझे क्यों काटा? शायद इन निकृष्ट प्राणियों के ज़रिये भगवान जी मुझे सावधान करते रहते हैं कि मैंने यदि कोई बुरा काम किया तो मेरा हश्र क्या हो सकता है। पर फिर डर की वजह से अपने को रोके रखने का क्या औचित्य? डर के बिना आदर्श होना असंभव है। जरा सा मौका पाते ही इंसान शैतानियत पर उतर आता है। अभियान से इतना भर उठता है कि अपनी नाक के आगे उसे कुछ नहीं दिखता।

ये क्या मैं पुराण खोल बैठी। अंदर से झाडू लाकर इसे एक तरफ तो कर दूँ। शाम को दफ्तर से आने के बाद भी याद किसी ने इसे ठिकाने नहीं लगाया तो बेटे पर ज़ोर डालना पड़ेगा। वह भी बहुत डरपोक है, उसका बस चले तो वह कालेज से छुट्टी ही ले ले और बाहर ही न निकले। हो सकता है कि मुझसे उसका कोई काम रूका पड़ा हो और उसी चक्कर में वह मान जाए।

हो सकता है नीचे रहने वाली अफ्रीकन नवयुवती या उसका दोस्त सो के उठें तो कुछ करें। इतने लंबे चौड़े हैं, इन्हें किसका भय? किंतु मुझे संदेह है कि यह नन्हीं सी मरी चुहिया उन्हें दिखाई भी देगी। आज तक उन्होंने कभी आँगन तक तो बुहारा नहीं। मेरे भारत प्रवास के दौरान भी कभी उन्हें ये तकलीफ गवारा न हुई कि फूंक ही मारके कभी धूल उड़ा दें। एक
बार मुझे इनके घर में झांकने का मौका मिला था। अन्दर से बड़ा साफ सुथरा था, फिर ये चूहे कैसे?

शायद इन गोरों ने एशियन्स के मुहल्ले में चूहे छुड़वा दिए हों। इन लोगों से कोई भी उम्मीद की जा सकती है। या काउंसिल वालों की भी चाल हो सकती है, ताकि जब हम उन्हें चूहे मारने वाली दवाई डलवाने के लिए बुलवाऐं तो उन्हें पैसों के अलावा उनकी खातिरदारी भी करें। वैसे, हमारे लोग भी कमाल हैं। एक गोरे नाली साफ करने वाले की भी वे ऐसी खातिर करेंगे कि वह हैरान हो कर सोचे कि कहीं सपना तो नहीं देख रहा था कि वह कहीं कोई वी.आई.पी. तो नहीं, किन्तु यदि वह कहीं अपने देश का निकला तो नाली के खुलते ही उसे दरवाज़ा दिखा देंगे।

भारतीय भोजन के दीवाने हैं ये लोग। हमारे किसी भी भारतीय रेस्तरां में चले जाइए, वह शर्तिया गोरों से भरा होगा। एक ज़माना था कि ये गोरे हमें घर किराए पर नहीं देते थे कि हमारे बदनों से अदरक लहसुन की बदबू आती है और आज ये आलम है कि चिकन टिक्का मसाले को इंग्लैंड की राष्ट्रीय डिश घोषित कर दिया गया है। घूरे के भी दिन फिरते हैं, कभी ये हमारा दमन कर रहे थे, कहाँ आज हम इनकी जान पर मूँग दल रहे हैं।

खैर, काली तो बाहर की सफाई करने से रही और न ही कभी मुझमें इतनी हिम्मत आएगी कि मैं उससे अनुरोध कर पाऊँ कि साल में कम से कम एक बार ही वह झाडू लगा दिया करे। यही फर्क है हममें और स्कैंडिनेवियन देशों में कि वे अपनी सफाई घर के बाहर से शुरू करते हैं। जब हम डैन्मार्क में थे तो कई बार मैंने देखा कि वहाँ के निवासी आँगन के बाद अपनी पगडंडियों को बुहारते कभी कभी सड़क तक आ पहुँचते थे।

न जाने क्यों ये काले हमसे इतना चिढ़ते हैं। शायद इसलिए कि हम भारतीय, अन्य विदेशियों के मुकाबले अधिक समृद्ध हैं या जब वहाँ झगड़े होते हैं तो हम इनका साथ नहीं देते। पर हम जैसी अदना, अहिंसावादी और डरपोक कौम, इनसे कंधे से कंधा मिला कर लड़ने की सोच भी कैसे सकती है। गोबर भरा है इनके दिमागों में, शारीरिक, मानसिक और अध्यात्मिक तौर पर हम इनसे उल्टे हैं, न जाने इन गोरों को सारे ऐशियन्स एक जैसे कैसे लग सकते हैं?

मैं कब से मुँह बाए किए खड़ी थी। सोचा कि शायद अब देखूँ तो वह गायब हो चुकी हो। डरते डरते एक आँख खोली। खुदा की मारी, बेचारी कहाँ जा सकती थी। कंबख्त बिल्ली ने उसे एक तरफ से चबा के छोड़ दिया था। गोल गोल लिसलिसी अंतड़ियों जैसी कोई चीज़ उसके नन्हें शरीर से बाहर निकल आई थी। हमारे शरीर कितना कुछ समेटे हैं अपने अंदर। बचपन में एक बार मेरे बड़े भाई ने बहन की घड़ी का पुर्ज़ा अलग करके देखना चाहा कि वह चलती कैसे थी। उसने सोचा था कि पिता के लौटने के पूर्व ही वह उसे वापिस समेटने में समर्थ हो जाएगा। किन्तु वह तो इस चुहिया सी ऐसी फैली
कि समेटे न सिमटी, पिटाई हुई सो हुई।

वैसे तो मुझे ये भी नहीं मालूम कि हमारे पड़ोस में कौन रहता है पर दो बिल्लियाँ अवश्य रहती हैं, जिनके मुझे नाम भी पता है। कैसे? रात बेरात, ये दो पड़ोसी (जिनकी शक्लों से भी मैं वाकिफ नहीं) अपनी बिल्लियों को सड़क पर ढूँढ़ते फिरते हैं, एक चिल्लाता है, "आस्कर, आस्कर, वेअर आर यू?" तो दूसरा परेशानी में बुलाता है, "सफायर. इट इज़ कोल्डा आउट देयर, कम होम नाओ, यू रास्कल"। पता नहीं इन लोगों को आधी रात के बाद ही क्यों अपनी बिल्लियाँ याद आती हैं।
शायद ये इनके नशे के उतरने का समय हो। अकेलापन इसी समय शायद अधिक खलता होगा इन्हें।

भारत में होती तो किसी को पाँच रूपये दे कर उठवा सकती थी। पर यहाँ तो पाँच पाउंड दे कर भी हिम्मत नहीं पड़ती किसी को कहने की। पागल समझ कर चलते बनेंगे। कूड़ा उठाने वाले तो केवल मंगलवार को ही आयेंगे। आज केवल शुक्रवार है, उन्हें पैसे देना भी खतरे से खाली नहीं हैं। पिछले साल की ही तो बात है, कुछ सफाई कर्मचारी क्रिसमस मनाने के लिए पैसे और शराब आदि इकठ्ठा कर रहे थे। काउंसिल वालों को पता लग गया। उन्होंने आव देखा न ताव, सबको नौकरी से निकाल बाहर किया। मुझे याद आया कि भारत में होली दिवाली पर नौकरों और जमादारनियों की कैसी मौज हो जाती थी। आप उन्हें अपना दिल निकाल कर दीजिए, तो आपकी जान मागेंगे। उन्हें खुश करना असंभव था।

वह गाना यकायक ज़बान पर आ गया, "कोई किसी का नहीं ये जग में, नाते हैं नातों का क्या।" मुझे विश्वास है कि उस कवि को भी किसी ऐसी ही हकीकत से दो चार होना पड़ा होगा। अपने को पूरी तरह से बचा कर मैं कार में आ बैठी थी और मोबाइल फोन पर यह जानने के प्रयत्न में थी कि सही मायनों में कौन मेरा मित्र है। सहयोगियों को सुबह सुबह समय बिताने का एक अच्छा आधार मिल गया था किंतु कोई भी तो भाग कर नहीं आया था मेरी सहायता को।

दफ्तर पहुँचकर मैंने स्वयं को काम में लगभग झोंक दिया किंतु चुहिया का लिजलिजा शरीर मेरी आँखों में ऐसा बस गया था कि पूछिए नहीं। बचपन में चूहे द्वारा काटे गए होंठ की मीठी चुभन ताज़ा हो उठी। मैं कुछ न खा पाई। मैं कई बार यह सोचती हूँ कि यदि कभी कोई मुझे घायल कर के एक सुनसान रात को कहीं फेंक दे तो क्या हो। मरी जान, बड़े बड़े चूहे मुझे खाने लगें और मैं हिल डुल भी न पाऊँ, न जाने किन कर्मों का फल मिलना बाकी हो।

यह १९८७ की बात है कि मेरी शिकायत के उपरांत काउंसिल ने चूहे पकड़ने वालों के मेरे घर भेजा। मैं सोच कर बैठी थी कि वे चूहे पकड़ कर अपने साथ ले जाएंगे। पर उन्होंने तो बस चूहे मारने वाली दवा घर में जगह जगह रख दी और चले गए। मुझे बहुत गुस्सा आया। यह तो मैं खुद कर सकती थीं, इनको इतने पैसे देने की क्या आवश्यकता थी। डर के मारे नींद नहीं आई कि कहीं रात को वे ज़हर चाटके तड़पते हुए, बिस्तर पर ही न आ चढ़ें। या जब मैं सुबह उठूं तो मरे हुए चूहे कार्पेट पर न पड़े हों। एक तो सोफे के कहीं नीचे घुस कर मर गया। घर में बदबू भर गई। एक बारगी तो सोचा कि घर ही बदल लें। हमने उस कमरे में ही जाना छोड़ दिया कि कहीं हम सोफा हिलायें और कोई अधमरा चूहा कुचल जाए।

खैर, ये तो एक बहाना था जो मेरा बेटा बना रहा था। इन बच्चों के लिए हम क्या नहीं करते और इनसे एक छोटा सा काम भी नहीं होता। गोरे बच्चों को देखिए, घर का सारा काम करते हैं। छोटी उम्र से ही काम पर लग जाते हैं। हमारे बच्चे केवल पढ़ते हैं और इसके ऐवज़ में हम उन्हें सारी सुविधाएं मुहैया कराते हैं। फिर भी हमारे बच्चे इन गोरे और काले बच्चों से लाख दर्जा अच्छे हैं। चोरी–डकैती तो नहीं करते, ड्रग्स तो नहीं लेते। जी सी एस ई कर लें तो गनीमत। क्या हुआ जो चुहिया नहीं फेंकी। लगता है मेरे ही जीन्स बेटे में आ गए हों। नहीं तो यहाँ पले बढ़े बच्चे तो चूहों को जेब में
लिए घूमते हैं।

देर से पहुँचने की वजह से दिल में धुकधुकी मची थी पर आज बॉक्स बहुत प्रसन्नचित नज़र आ रहे थे। चायपान के समय वह इतने जोश में आ गये कि उन्होंने मुझे अपना सहायक घोषित कर दिया। लिज़ की शक्ल देखने वाली थी। परसों ही उसने मुझे ताना मारा था कि मैनेजर बनते ही वह मेरा ट्रांसफर बरमिंघम करवा देगी। मैं सचमुच घबरा गई थी कि मुझे एक अच्छी खासी नौकरी से हाथ धोने पड़ेंगे। कल की छोकरी, अपने को न जाने क्या समझती है। पीटर ने एक ही झटके में उसे उसकी जगह दिखा दी।

माँ को फोन किया तो एक खुशखबरी और मिली कि भतीज़ा पैदा हुआ है – दस वर्षों में पहली बार बड़ी मुश्किल से भाभी माँ बन गई हैं। ड्रिंक्स के लिए सारे सहकर्मियों को 'पब' ले जाना पड़ा। बड़ा मज़ा आया। सब बड़े प्रसन्न थे कि लिज़ की बनिखत बॉस ने मुझे चुना था।

रात को जब घर पहुँची तो मरी हुई चुहिया को बिल्कुल भूल चुकी थी मैं। पाँव आँगन में रखा ही था कि याद आया। टेढ़ी आँख से देखा, चुहिया वहाँ नहीं थी। धीरे धीरे नज़र सारा आँगन बुहार आई पर नहीं, कहीं नहीं दिखी। अंदर पहुँची तो बेटे ने बताया कि उसने डस्टपैन में उठा के उसे बिन में फेंक दिया था। मैं इतनी खुश हुई कि उसे और अपनी बेटी को बेकर स्ट्रीट स्थित रॉयल चाईनीज़ रेस्तरां ले गई।
क्या यही अच्छा दिन साबित हुआ।
अब जब भी घर से बाहर आती हूँ, दिमाग में यह बात अवश्य आती है कि कहीं मरी हुई चुहिया दिखे तो दिन अच्छा गुज़रे।
मैं भी कितनी बुद्धू हूँ, लॉटरी कोई रोज़ रोज़ थोड़े ही निकलती है!

पृष्ठः . .

२४ सितंबर २००३

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।