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दरवाजा मैंने ही खोला था और तुम
मेरे एकदम सामने खड़े थे। तुम यानी कि आज के आगंतुक ही तो!
आगंतुक की तरह ही तुमने हिचकते से कहा था --
"आ यम कौशल वर्मा "
मैं भी ठीक तुम्हारी तरह ही जवाब दे पायी थी
"जी जी हाँ अ़ंदर -- आइए न!"
तुम अन्दर आ गये थे। फिर एक अदद अंदर-अंदर धड़कती-सी चुप्पी,
असमंजस की स्थिति और उसके बाद तुम फिर हिचक-हिचककर पूछ रहे थे
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"आ आ़प मनू ही हैं न!"
जैसे एक छोटी-सी घंटी टुन्न से बजी हो। मनू मेरा बहुत बचपन का
नाम ज़िसे शायद मैं खुद भूल गयी थी। रवि हमेशा मनीषा ही कहते
हैं या फिर कभी-कभी किसी रौ या प्यार में 'मनी' बस। कहते हैं,
यह मन्नू-वन्नू एकदम गँवारों-सा लगता है।
"जी, जी हाँ " इस बारे में किसी तरह सारी धड़कनें समेटकर हँस
दी और फिर जल्दी से पल्लू का छोर उँगलियों पर समेटने लगी हूँ।
आगंतुक यानी कि तुम हँस दिये हो।
"आप मुझे अच्छे-से पहचान नहीं पायीं शायद, भूल गयीं होंगी " बस
ये थोड़े से शब्द और अंदर कितना बड़ा बेबात का तूफान और बवंडर
आया हुआ है।
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