लेकिन
लेकिन यह सब क्या हो रहा है। यह आगंतुक मोमबत्ती लिये मुझे
मेरी ही किन-किन अँधेरी गुफाओं में घुमाता फिर रहा है। किस
अधिकार से? किस अनुमति-पत्र के सहारे? इसकी भूमिका जरूरत से
ज्यादा लंबी नहीं होती जा रही क्या? आखिर यह चाहता क्या है?
उँह, वह सब बाद में पूछ लेना, अभी जो बातें चल रही हैं, ऐसे ही
चलने दो न!
"बीजी पैसे।" रत्ती थी, गेहूँ साफ कर पिसाने को ले जा रही थी।
मैं पैसों के साथ-साथ उसे हिदायतें देने लगी थी -- तुम आटे
चावल के टीन ठीक से बंद नहीं करतीं, रत्ती! चूहे आने लगेंगे
कसकर बंद करके ऊपर से बल्कि कोई भारी बाट या कुछ रख दिया करो
"उसी शादी में भी एक बार तुम शायद आटे-चावल वाली कोठरी में कुछ
लेने गयी थीं कि उई --। जोर की चीख सुनाई पड़ी थी। सब लोग
भागकर दौड़े आये तो तुम बदहवास पत्ते-सी सन्नो बुआ से चिपकी
काँपती रोती जा रही थीं। तमाम लोग तुम्हें थपथपाते पुचकारते जा
रहे थे पता चला, तुम्हारा पैर एक बड़े से चूहे पर पड़ गया था।"
तुम हँसे थे फिर एक-एक कर मेरी आँखों में सीधे देखते हुए तुमने
पूछा था --
"तुम्हें याद है?"
"थोड़ा-थोड़ा --" मैंने झेंपते हुए कहा।
लेकिन नहीं, मैं झूठ बोली थी। मुझे वह बात पूरी, वैसी-की-वैसी
याद है यह भी कि किसी के कहने पर, तुम्हीं दौड़कर मेरा रोता
मुणह धुलाने के लिए गिलास में पानी लाये थे मैंने यह बात एक
बार रवि और बच्चों से भी बतायी थी पर बच्चों या रवि किसी के
सामने भी पीले फ्रॉक और पीले रिबन वाली पत्नी या माँ की तसवीर
नहीं आ पायी थी। मेरा उत्साह ठंडा पड़ गया था। वे फ्रॉक पहने
चोटी किये मुझे बारह साल की कल्पना ही नहीं कर पाये थे।
सचमुच तब कहाँ मालूम था कि बाईस साल पहले की पीले फूलों वाली
फ्रॉक वाली मैं, कहीं, किसी जिंदगी के कॉलम में सँवारकर
सुरक्षित रखी हुई हूँ। यह जिंदगी भी अजीब कौतुकभरी हैं! जितने
लोग उतने ही खानों में बंटी। कभी-कभी हमें पता ही नहीं चलता कि
हमारी जिंदगी का कौन-सा हिस्सा किस खाने में बंट गया।
मुझे यह भी याद है कि खंभे से टिकी रोती हुई मैं सोच रही थी कि
कोई देखता क्यों नहीं कि मैं इस घुप् अँधेरे में अकेली रो रही
हूँ। वह 'कोई' कौन हो सकता है, इसका एहसास न था तब तक। सिर्फ
एक अधूरा-सा एहसास।
मुझे यह भी याद है कि तुम उस अँधेरे में, खंभे के पास में जलती
मोमबत्ती लिये गुजरे थे। तुम एक शर्मीले से किशोर। और मैंने
सोचा था कि काश, तुम्हीं मुझे देख लेते। पर मैंने यही समझा था
कि तुम अनजाने गुजर गये और तुमने कुछ भी नहीं देखा।
लेकिन तुमने वह सब देखा, समझा और सँवारकर अपने पास रख भी लिया
मुझे यह भी याद है कि मैंने हर गीत गाते हुए क्षणांश को सोचा
था- तुम्हें भी मेरा गाना अच्छा लगा होगा क्या?
मुझे यह भी याद है कि खंभे से टिककर रोते हुए मैंने सोचा था,
तुम देखते तो तुम्हें ममता आती क्या मुझ पर?
मुझे यह भी याद है कि
और यह भी याद है
और यह भी
नहीं, -- मुझे कुछ नहीं याद है।
"रवि जी कब तक आते हैं?"
मैं एकदम चौंक जाती हूँ रवि? हाँ, आते हैं -- कभी भी आ सकते
हैं अब मेरा मतलब, टाइम हो गया है
"क्या सोचने लगीं?"
"मैं, कुछ नहीं, कुछ नहीं, हाँ, यही कि इतनी देर हो गयी आपको
चाय या कॉफी तक नहीं पूछा।"
"हाँ, सो तो है ल़गता है बहुत सोचने-समझने के बाद ही किसी को
चाय-कॉफी पूछती हो, न?"
मैं फिर संयत हो उठी थी कि तुमने हँसकर कहा था।" पर सच-सच कहूँ
तो मुझे भी याद नहीं था कि तुम अब इतनी बड़ी हो चुकी हो कि
बाकायदे चाय-कॉफी के लिए मुझे पूछोगी मैं खुद बाईस साल पीछे था
मैं अभी भी तुम्हारे इस गृहिणी रूप के साथ जैसा तादात्म्य नहीं
कर पाया हूँ मेरी नजरों में तुम वही।"
यह बाईस साल मुझे एकदम बेतरतीब करता चला जा रहा है। एकदम सबकुछ
गड्मड्ड उलझ-सा गया है लेकिन तभी फोन की घंटी बजती है और सबकुछ
संभल जाता है।
फोन रवि का रहता है। आगंतुक के बारे में पूछकर कहते हैं।"
सुनो, जरा कुछ जरूरी काम आ पड़ा है। मैं देर में आऊँ तो
कोई हर्ज? तुम्हीं चलता कर सकोगी उसे? बहुत जरूरी है रुकना,
प्ली-ज।"
"उसे -- मैं -- हाँ -- ठीक है।"
"थैंक्स और हाँ, बिंदु का बुखार कैसा है?"
"बुखार? हाँ, पता नहीं -- अभी इधर टेंपरेचर नहीं ले पायी -- कम
लगता है।"
"ओ. के.।" रवि ने आश्वस्त भाव से रिसीवर रख दिया है।
लौटने पर तुम पूछते हो
"रवि जी का फोन था?"
"हाँ।"
"आ रहे हैं क्या?"
"नहीं, कुछ जरूरी काम आ पड़ा आपसे क्षमा माँगी है।"
"ओह पर आ गये होते तो अच्छा था मन था उनसे मिलने का।"
मैंने कौतूहलभरी दृष्टि उठायी है।
"सुना है, बहुत अच्छे नेचर के हैं।"
"कैसे मालूम?" मैं हँसी
"यों ही कभी कहीं बातों के बीच किसी ने बताया था।"
मुझे एकदम से याद आया।" और आप शादी तो काफी पहले ही हो गयी थी
न पत्नी बच्चे।"
"हाँ, हाँ, बिलकुल।" तुम हँसे थे, मुक्त हँसी।" एक अदद पत्नी
निरूपमा -- नीरू और दो बच्चे मधु और छवि।"
बस! इसके बाद फिर एक असहज-सी चुप्पी। और क्या कैसे पूछूँ।
"काफी देर हो गयी चलता हूँ अब, है न!"
फिर से वही आँधी-बवंडर ऊपर-नीचे डावाँडोल किसी तरह संयत हो
पूछती हूँ।
"लेकिन आपने यह तो बताया नहीं कि आप आये कैसे थे? मतलब, किस
काम से।"
तुमने एक बेहद निष्पाद दृष्टि मुझ पर डाली थी, एक क्षण को वह
दृष्टि झील की तरह थमी थी -- मेरे चेहरे पर -- क्या तुम सच-सच
अब भी यह जानना चाहती हो।
और बस एक "अच्छा तो --" कहकर तेजी से दरवाजे के बाहर हो गये
थे।
मैं दरवाजे को कसकर पकड़े स्तंभित अपलक देख रही हूँ तुम जा रहे
हो बाई साल पहले के एक अल्हड़ अतीत को मंत्रबल से पुन: जीवित
कर। उसमें प्राण-प्रतिष्ठा कर -- तुम जा रहे हो तुम्हें अब
शायद कभी न देख सकूँ लेकिन आश्वस्त हूँ कि तुमने मुझे पीले
फूलों की एक फ्रॉक में जीवनभर के लिए सहेजकर रख लिया है।
कहना चाहती हूँ कि लो यह मेरी जिंदगी का इतने घंटे, इतने मिनट
लंबा और इतने मिनट चौड़ा, टुकड़ा तुम्हारे नाम यह टुकड़ा मैं
तुम्हारे हवाले कर रही हूँ।
यह सिर्फ मेरा अपना और तुम्हारा है।
इसमें और किसी की साझेदारी नहीं।
अजीब-सा लगता है न!
लेकिन यह सच है!
और भी कि एक रेशमी झिलमिली यवनिका धीरे-धीरे अदृश्य होती चली
जा रही है। अंधड़ में झकोरा खाती पत्ती-सी चेतना अब धीरे-धीरे
वापस लौट रही है एक पैंतीस साला हतप्रभ अकेली खड़ी गृहिणी के
पास देहरी पर खड़ी इस गृहिणी ने अपनी मुट्ठियों में पल्लू का
छोर ही नही, एक सदी का छोर भींच रखा है। हाँ, सच है, यह भी!
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