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                       दुर्गाप्रसाद जैसे उनके जीवन का कारण था, उनके जीवन की धुरी 
					जिसके इर्द-गिर्द उनका संसार रचाबसा था। दुर्गाप्रसाद के बाद 
						गौरी का और गर्भ न ठहरा इसलिए अपना सारा प्यार दुलार उन 
						दोनों ने दुर्गा पर न्योछावर किया। श्यामलाल के अख्तियार 
						और हैसियत में जो भी था, उससे बढ़कर उसने दुर्गा के लालन 
						पालन पर किया। शहर के सबसे मंहगे स्कूल में बडी धूमधाम से 
						दुर्गा का दाखिला 
						कराया गया। उसकी हर इच्छा उसके कहने मात्र से पूरी हो 
						जाती। माँ बाप उसकी छाया तक से प्यार करते। 
 एक दिन दुर्गा मुहल्ले के किसी लफंगे लड़के से लड़कर आया तो उसका 
					माथा लहुलुहान था, कमीज फटी हुई थी, उसे देखकर माँ का कलेजा 
						मुँह को आ गया “दुर्गा मेरे लाल यह क्या हाल बना कर आया है? 
					किसने मारा तुझे?” “माँ वह मम्दु का बेटा, उसने मुझे माँ की 
					गाली दी... , मुझसे रहा नहीं गया, मैंने उस से लड़ाई की पर वह 
					मुझ से ज्यादा ताकतवर है ना” यह कहकर दुर्गा दर्द से कराह उठा। 
					माँ बोली “अरे तो क्या हुआ? गाली ही मारी ना, अपनी ही ज़बान 
					गंदी की, कुता काटे तो क्या उसे वापस काटते हैं। देख क्या हालत 
					बना ली है?” यह कह कर गौरी रोने लगी। जीवन के इन्ही झूलों मे 
					झूलकर दुर्गा जहाँ बड़ा होने लगा, वहीं गौरी और श्यामलाल वक्त 
					की धूप में बुढ़ा गए। होनहार लड़का था दुर्गा, हमेशा अपनी क्लास 
					में प्रथम आता। एक दिन माँ बाप से जिद करके कॉलेज की एन सी सी 
					के साथ २१ दिन के शिविर 
						के साथ “मानसबल” चला गया। यह पहला मौका था जब दुर्गा अपने 
						माँ बाप को छोड़कर इतने दिन कहीं दूर चला गया।
 
 एक दो दिन तो गौरी ने सीने पर पत्थर रखा, खाने का कौर उसके हलक 
					से नीचे नहीं उतरता था। उसे ऐसा लग रहा था मानो जैसे कोई उसका 
					कलेजा अपनी मुटठी मैं भींच रहा हो। एक हफ्ता बीत जाने पर तो 
					उसने खाना पीना छोड़ दिया और रो रो कर अपनी जान हलकान कर दी। 
					बेचारा श्यामलाल समझाते समझाते थक गया।
 
 “अरी भाग्यवानॐ न कर इतना प्रेम, कल को कहीं दूर पढने लगा, तू 
					तो मर जायेगी” इतनी प्रीत अच्छी नही। कल उसकी शादी करेंगें तो 
					क्या पता भूल ही जाये, अपने माँ बाप को।
 “सुनो जी, मैं कहे देती हूँ, मेरा दुर्गा ऐसा नहीं, अपनी माँ 
					को भूल जाये, ऐसा कभी नहीं हो सकता, मेरा राम है वो, और मैं 
					उसकी कौशल्या।”
 “अरी यही तो भूल रही है तू, राम भी तो अपनी माँ को रोता 
						बिलखता छोड़ गया था, तू और तेरा राम।” फिर गौरी की जिद पर मानसबल गया 
					और वहाँ बडे कमान्डर सहाब से विनती करके दुर्गा को एक दिन के 
					लिए अपने साथ उसे उसकी माँ के पास शहर ले आया। वाह री ममताॐ
 
 वक्त की धूप छाँव के साथ 
						फिर वह दिन जल्दी ही आ गया जब दुर्गा अपनी माँ को रोता 
						बिलखता छोड़कर पंजाब में इन्जीनियरिंग की पढाई 
					के लिए चला गया। बाप के गले मिलकर उसकी आँखों में आँसू छलक 
					पड़े।
 
 फिर एक दिन दुर्गा अपनी पढ़ाई पूरी करके जब वापस श्रीनगर आया तो 
					गौरी बहुत खुश थी कि अब उसका बेटा हमेशा उसके पास ही रहेगा पर 
					जब दुर्गा ने बताया कि उसकी नियुक्ति दिल्ली की किसी कम्पनी 
					में हुई है तो माँ पर मानो वज्रपात हुआ। श्यामलाल के समझाने 
					बुझाने पर कि कश्मीर में बेटे का कोई भविष्य नहीं है, वह मान 
					गई। फिर से उसकी दुनिया जैसे वीरान हो गई। जब कभी दुर्गा 
					छुट्टियों में आता, तो मानो उसमे पर लग जाते। वह उसके मनपसंद 
					पकवान बनाती, अपने सामने बिठाकर उसे खिलाती, वह मना करता तो 
					अपने हाथ से निवाला बनकर खिलाती।
 
 फिर एक दिन ऐसा आया जब माँ के दिल पे बेटे ने पहला वार किया। 
					वह एक सप्ताह की छुट्टी लेकर आया था और शाम को जब वह लौटा तो 
					उसके साथ एक लड़की थी... माँ यह पुष्पा है... दिल्ली 
					में मेरे साथ काम करती है... पुष्पा ने हाथ जोड़कर 
					नमस्ते की और वह समझ गई कि बेटे ने यह काम भी खुद ही कर लिया, 
					माँ–बाप से पूछने की जरूरत ही नहीं समझी... चलो अच्छा 
					किया, वह भी “मन्जय योर” के चक्कर से बच गई, पर टेकन्य तो 
					मिलाई ही नहीं, और लड़की का खानदान, ज़ात? दुर्गा ने यह तो बताया 
					ही नहीं।
 
 रात को जब दुर्गा घर आया तो माँ न फिर यह बात छेडी, दुर्गा ने 
					काफी टालमटोल करी तो माँ का माथा ठनका कि कहीं कुछ गड़बड़ है 
					जोर देने पर पता चला, कि पुष्पा के पिता और दादा मुरन गाँव 
					में नानबाई की दुकान चलाते हैं, फिर पिता ने कोई अच्छा कारोबार 
					करके अच्छा पैसा बना लिया पर पुष्पा के दादा मामा अभी भी वही 
					दुकान चलाते हैं। यह सुनकर गौरी का कलेजा मुँह को आ गया, “यह 
					क्या किया दुर्गा अब “कानदुर” की बेटी को ब्याह के लायेगा इस 
					घर में? अपने पिता अपने दादा के नाम पर कालिख पोत देगा तू? यह 
					शादी नही हो सकती... मैं बिरादरी मैं क्या मुँह दिखाऊँगी.... बेटा इस लड़की को भूल जा . .. ..।
 
 “माँ बेकार की बातें मत करो अगर पुष्पा के पिता “कानदुर” हैं 
					तो इसमें उसका क्या दोष वह तो पढ़ी–लिखी सुशील लड़की है हमारे 
					विचार मिलते हैं और रहा सवाल जात बिरादरी का शादी तो मैंने 
						करनी है उन्होंने नहीं मुझे किसी की परवाह 
						नहीं। मेरी शादी होगी तो 
						सिर्फ पुष्पा से और अगर राजी खुशी हो सकती तो हम लोग अदालत 
						मैं शादी कर लेंगे।
 
 माँ के दिल को तोड़कर दुर्गा घर से बाहर चला गया, और गौरी 
					हतप्रभ उसे जाता देख रही थी। श्यामलाल के घर में दाखिल होते ही 
					वह भागकर उसके पास गई और रोती हुई बोली, “सुनो जी देखे अपना 
					दुर्गा क्या करने जा रहा है”। उसे रोकते क्यों नहीं वह आपकी 
					जरूर सुनेगा। श्यामलाल ने गौरी को सहारा देकर बिठाया और कहा 
					“सुनो दुर्गा की माँ, हमारा बेटा अब बड़ा हो गया है उसे अब 
					तुम्हारी, या मेरी, कोइ जरूरत नहीं। अच्छा यह रहेगा कि अब हर 
					चुपचाप उसकी बात मानले, वरना बेटा हाथ से निकल जाएगा।"
 
 फिर धूमधाम से दुर्गा और पुष्पा की शादी श्रीनगर में ही हुई। 
					कितना चाव था गौरी को बेटे की दुल्हन लाने का पर उसकी इस खुशी 
					में खुद उसके बेटे ने ग्रहण लगा दिया। शादी क्या थी बस एक 
					दिखावा था। सब लोगों ने लानत मलामत करी और गौरी का हृदय यह 
					सुनकर छलनी सा हो गया।
 
 शादी के सिर्फ तीन दिन बाद दुर्गा ने अपना सामान समेटा और माता 
					पिता को हैरान परेशान छोड़कर वापस अपनी पत्नी को लेकर दिल्ली 
					चला गया। श्यामलाल अब तो रिटायर हो चुका था पर दुर्गा ने एक 
					बार भी माँ बाप से यह नहीं कहा कि वह भी उसके साथ दिल्ली चलें। 
					बूढे. माँ बाप ने अपने कलेजे पर पत्थर रखकर बेटा बहू को विदा 
					किया।
 
 वक्त गुजरता गया और दुर्गा ने कश्मीर आना कम और फिर बहुत कम कर 
					दिया। जब उनका पहला बच्चा हुआ तो पुष्पा सीधे अपने मायके चली 
					गई और उसका प्रसव भी वहीं हुआ। श्यामलाल और गौरी ने अपने पोते 
					का मुँह भी अस्पताल जाकर देखा। प्यारा सा मुखड़ा देखकर गौरी 
					फूली न समाई। तीखे नैन नक्श वाला यह प्यारा सा गुड्डा अपने 
					दादा पर गया था। वही सुतवा नाक और बड़ा माथा और नन्हें होंठ तो 
					बिलकुल उन्हीं पर गऐ थे। बडे चाव से गौरी ने बेटे से पूछा, 
					“बेटा घर कब आ रहे हो, बीबी की तरफ देखकर दुर्गा ने कहा “ माँ 
					वह बात दरअसल यह है कि पुष्पा का जी घबराता है घर में, हबबकदल 
					में देखो ना कितनी चिल्लपों और गन्दगी है, इसलिए हम उसके डैडी 
					के घर रहेंगे। मैं घर आता रहूँगा माँ, आप चिन्ता न करें।”
 
 लुटी हुई हालत में श्यामलाल व गौरी घर लौट आये। क्या इसी दिन 
					के लिए माँ शारिका से माँगा था तुझे? मन की व्यथा आँखों के 
					रास्ते अविरल धारा की तरह बह निकली। मन को समझाया दोनों ने और 
					एक दूसरे को सहारा देने लगे कि चलो उनका बेटा जहाँ रहे वहाँ 
					खुश रहे।
 
 श्यामलाल ने अपने आप को मशगूल रखने के लिऐ एक छोटी सी दुकान 
					में अकाउन्ट का काम शुरू किया था और अब यही उनकी जिन्दगी थी। 
					कभी कभार भूले भटके बेटे की चिठ्ठी, या मनीऑर्डर आ जाता, पर 
					श्यामलाल ने वह सारे मनीऑर्डर वापस कर दिये, यह कह कर, कि जब 
					जरूरत होगी वह जरूर बोलेगा, उसकी पेन्शन दो प्राणियों के लिए 
					पर्याप्त है।
 
 यह जीवन इसी तरह अविरल चलता ही जाता पर आतंकवाद की आग ने सारे 
					कश्मीर के जीवन को तितर बितर कर दिया। कश्यप की ऋषि भूमि में 
					नरसंहार एक दिनचर्या बन गया। हिन्दू–मुसलमान जो सदियों से 
					शीर–शक्कर की तरह रहते आये थे, जाने किस ने इसमें हलाहल घोल 
					दिया। इस्लामी कट्टहरवाद के नारे सारे शहर में गूँजने लगे। 
					लगा इस आतंकवाद की आग दावानल की भाँति समूचे कश्मीर को निगल 
					जायेगी। एक एक करके आतंकवादियों ने चुनिंदा पंडितों को अपनी 
					गोलियों का निशाना बनाना शुरू किया और निजामे मुस्ताफा का ऐलान 
					हर मस्जिद में होने लगा।
 
 पाकिस्तान के पाले हुए यह भटके नौजवान घाटी को हिन्दू रहित 
					करना चाहते थे। वह शायद सिकन्दर, हलाकू और तैमूर के इतिहास की 
					नव रचना करना चाहते थे। “यति बनावो पाकिस्तान, बटव रोस त बटनयव 
					सांन” (यहाँ हम पाकिस्तान बनाऐंगे बिना पण्डितों के और उनकी 
					पण्डतानियों के साथ)। फिर एक एक करके सारे हिन्दू घाटी छोड़कर 
					भागने लगे। श्यामलाल और गौरी भी अपनी नींव से बिछड़ गये। 
					शिवरात्रि की सर्दी में, सुबह घर का आँगन लीप कर, ऊपर आकाश, और 
					नीचे धरती को, अपना सर्वस्व, सात पीढ़ियों से संचित अपनी पूँजी, 
					हवाले कर दी। क्या पता था गौरी को कि इस घर के आँगन का, उस 
					चक्रीस्वर का उस तुलामुला के कुणउ का, यह आखिरी दर्शन है।
 
 जम्मू मे एक दिन किसी रिश्तेदार के पास ठहरकर वह दिल्ली दुर्गा 
					के पास पहुँच गऐ। माँ बाप को देखकर दुर्गा हैरान हो गया। माँ... पिताजी... आप... अरे आज ही मैं पुष्पा से कह रहा था कि 
					कश्मीर में हालात अब बिगड़ रहे हैं इसलिए आज ही जाकर माँ पिताजी 
					को लेकर आता हूँ। चलो अच्छा हुआ आप खुद ही आ गऐ।
 
 पोते पोती को देखकर गौरी अपना सारा दुख भूल गई, और इस सब 
						को नसीब का लेखा समझकर हालात के साथ समझौता कर लिया। पर 
						गौरी को दिल्ली रास न आई, बहू का व्यवहार, बेटे की तटस्थता 
						और विस्थापन का दर्द, अपनी जड़ से कटकर बिखर जाना, उस पर 
						बडे शहर की दौड़ भाग भरी जिन्दगी उसे कुछ भी रास न आया और 
						एक दिन सुबह पूजा 
						करते करते गौरी इस मायावी संसार को हमेशा के लिए छोड़ कर 
						परलोक सिधार गई।
 
 श्यामलाल ने इस दर्द को भी और दर्दों की तरह पी लिया। अपने दिल 
					को तसल्ली देता और सोचता कि मृत्यु तो अवश्यंभावी है। गीता में 
					तो भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु 
					अटल है यह तो प्रकृति का नियम है। अपने आप को इन्हीं बातों से 
					बहलाकर श्यामलाल ने अपनी ज़िन्दगी दिल्ली के वातावरण में ढाल 
					दी। पर जब उसे पत्नी की याद सताती तो वह अपने दिल को बहलाता कि 
					उसने जो खोया है वह संसार का अटल सत्य है और एक ना एक दिन यह 
					होना ही था और इसी तरह दो तीन वर्ष बीत गए।
 
 समय बीतने पर कभी कभी यह एहसास उसे कचोटता कि उसके वजूद का एक 
					महत्वपूर्ण हिस्सा उससे अलग हो गया है। उसे गौरी की यादें अब 
					चैन से बैठने नहीं देतीं हरदम दूसरों को उपदेश देने वाला 
					मृत्यु को कोस रहा था। गौरी की याद आते ही उसकी आँखों से आँसू 
					छलक उठे जैसे गहरी नींद में सोकर उठने वाला गए वक्त के बीत 
					जाने पर चिन्तित हो उठता है पर रोने से कहीं कोई वापस आता है 
					उस दूर स्वर्गलोक से।
 
 उसे अब समझ आ रहा था कि क्यों सब गौरी के निधन पर उस से 
						इतनी सांत्वना भरते रहे थे। उसे कश्मीर की एक लोक उताती 
						याद आयी “जनान मरिथ छ रून, बर तलूक हून” पत्नी के निधन के 
						बाद पति की हालत गली के कुत्ते 
						जैसी हो जाती है।
 
 अपने आप को आज़ाद समझने वाला श्यामलाल अब इस आज़ादी से नफरत करने 
					लगा। पत्नी की तसवीर के सामने अब घन्टों वह उस से बातें करता। 
					“गौरी...  क्यों मुझे छोड़ कर चली गई तू...  कहाँ भटकने के 
					लिए मुझे इस खुदगर्ज संसार में अकेला छोड़ गई” पर क्या आँसू गए 
					वक्त और बिछडे साथी को वापस ला पाये है जो आज श्यामलाल के आँसू 
					कर पाते। उसे लगा कि वह सभी का गुलाम है। लाचार और बेबस। उसे 
					अपना आप उस सूखे वृ्रक्ष कि भाँति लगने लगा जो न किसी को फल दे 
					सकता है ना छाया। उसे महसूस होने लगा कि पत्नी के गुजर जाने से 
					उसका जीवन बिन पतवार की नैया जैसा हो गया है।
 
 यही विचार अब उसे खोखला कर रहे थे। बुढापे में, कहते हैं बड़ा 
					आदमी या तो मधुरता से भर जाता है या कड़वाहट से दोनो स्थितियों 
					मे सिर्फ उसकी पत्नी ही उसे समझ सकती है और गौरी के न रहने से 
					उसकी हालत एक पर कटे पंछी सी हो गई थी जो ऊँचे आसमान पर उड़ना 
					तो चाहता है पर चाह कर भी नहीं उड़ सकता।
 
 धीरे धीरे श्यामलाल ने कहीं आना जाना भी छोड़ दिया, और अपने 
					आपको संसार से काट ही दिया। पर यह अकेलापन यह सूनी दीवारें, 
					कमरे में लगी घडी की टिक टिक जैसे उसका मुँह चिढ़ाती थी। उसे 
						याद आ रहा था कि जब गौरी जिन्दा थी तो कोई ना कोई 
						रिश्तेदार जरूर मिलने आता था। बेटा बहू हालचाल पूछ ही लेते 
						थे पर जब से वह उसे छोड़कर गई तब से जैसे उसका भी वजूद 
						दुनिया में ना के बराबर था। बेटा बहू तो जैसे बूढे बाप को 
						भूल ही गए थे। 
						उन्होंने शायद बच्चों को भी मना किया था, दादा के कमरे में 
						आने से, जैसे दमा कोई छूत की बीमारी हो।
 
 उसका कितना मन करता कि वह भी किसी से बात करे, कोई उसका हालचाल 
					पूछे। जब से गौरी का निधन हो गया था उसे अपने सारे काम खुद 
					करने पड़ते थे पर कभी ना कर पाने की स्थिति में उसे बहू या बेटे 
					की मिन्नतें करनी पड़ती।
 
 एक दिन श्यामलाल यों ही बोले, “बेटा यह चश्मे का नम्बर शायद 
					बदल गया है ठीक से कुछ दिखाई नहीं देता। इसे बदलवा दो जरा...  
						यहाँ मालूम नहीं ऐनक वाले की दुकान कहाँ है।" “पिताजी आजकल 
						मैं दफ्तर में बहुत व्यस्त हूँ... पुष्पा से कहिए वह बनवा 
					देगी।”
 
 और बहू ने दो टूक जवाब दिया जब आपके बेटे के पास वक्त नहीं तो 
					क्या में खाली बैठी हूँ...  जब वक्त होगा तब बनवा देंगें...  वैसे भी आपको कौन सी नौकरी करनी हैं जो दिखाई देना जरूरी है।
 यह सुनकर श्यामलाल पर जैसे वज्राघात हुआ...  तो क्या 
						सिर्फ दिखाई नौकरी के लिए देना जरूरी है और वे बिन कुछ
						कहे अपने कमरे में 
						लौट आये।
 
 बेटे बहू का यह अजनबीपन अब उससे सहा नहीं जा रहा था। क्या बूढे 
					आदमी की इज्जत सिर्फ उसकी नौकरी या पत्नी से होती है। क्या 
					उसका कोई अस्तित्व नहीं। दिन बीतते गए और श्यामलाल की सेहत दिन 
					ब दिन गिरती गई...  सारा दिन खाँसते खाँसते गुजरता...  और 
					इतनी खाँसी के दौरों के बीच कभी अपनी जवानी, कभी गौरी का दुलहन 
					बनकर उसके घर आना तो कभी दुर्गा का बचपन दिखता। अब तो सिर्फ 
					यादें ही उसकी जिन्दगी का सहारा थी। एक दिन खाँसी के दोरे ने 
					जब जोर पकड़ लिया तो पानी पीने के लिए श्यामलाल ने जग उठाया। 
					देखा जग खाली था बडी मुश्किल से उसने पुष्पा को आवाज दी।
 
 बेटी पुष्पा...  जरा पानी तो लाना...  देखो गल सूख गया है...  बेटी पुष्पा...  दुर्गा बेटे...  पर कहीं से कोई 
					आवाज न आई। लड़खड़ाते कदमों से श्यामलाल खुद ही पानी लाने कमरे 
					से बाहर निकला और रसोइघर की तरफ बढते कदम अचानक पुष्पा की आवाज 
					से जैसे थम से गए...  सुनो जी...  मैं तंग आ गई हूँ इस घर 
					में...  आपके पिताजी सारा दिन खाँसते रहते हैं । ऐसा लगता है 
					जैसे किसी अस्पताल में आ गई हूँ...  इस पर हजारों नखरे...  
					कभी पानी लाऊँ...  कभी दवाई खतम हो गई...  जीना हराम कर के 
					रखा है...  घर में कोइ ढंग की पार्टी भी नहीं कर सकते भला...  उनकी खों खों में कौन मनोरंजन कर पायेगा आप उनका कुछ 
					इन्तजाम करिये या मैं ही चली जाती हूँ यहाँ से। आप की माताजी 
					जब जिन्दा थी तो रखती थी ख्याल इनका पर मेरे बस की बात नहीं है...  कहे देती हूँ। फिर बेटे की आवाज सुनाई दी, "यू आर राइट 
						डार्लिंग, मैं कुछ इन्तजाम करवा देता हूँ या तो उन्हें 
						अस्पताल में दाखिल करवा देते हैं 
						या किसी ओल्ड एज होम में।
 
 बेटे की ये बातें पिघले सीसे की तरह श्यामलाल के कानों मे 
						समा गई और उसका सारा अस्तित्व जैसे बिखर गया। क्या माँ बाप 
						बुढापे में इतना बोझ बन जाते हैं। अच्छा ही हुआ गौरी इस 
						पापी संसार को छोड़ कर चली गई नहीं तो अपने “राम पुत्र” का रावण वाला चेहरा 
					शायद कभी न देख पाती न सह पाती।
 
 वह चुपचाप अपने कमरे में लौट आया और पागलों की तरह अपनी पत्नी 
					के फोटो की तरफ टकटकी लगा कर देखने लगा। फिर वह पत्नी के फोटो 
					के साथ बातें करने लगा।
 
 गौरी मैं अब यहाँ नहीं रहूँगा...  मुझे मालूम है तुम्हारी 
					आत्मा मर कर कहाँ गई है... अपने घर में...  मै आ रहा हूँ 
					तुम्हारे पास...  हमें हमारा वही मिट्टी का घर मुबारक हो...  हमें वही रास आता है... यह बड़बड़ाते 
						हुए श्यामलाल ने पत्नी की तस्वीर को उतार कर सीने से लगाया 
						और घर से निकल पड़ा...  
					मै आ रहा हूँ...  गौरी तुम्हारे पास... अपने घर... ।
 
 अगले दिन अखबार में किसी कोने में एक छोटी सी खबर थी...  कल 
					रात माड़ल टाऊन में लॉरी से टकराकर एक बुर्जुग आदमी की मौत हो 
					गई...  लाश पर कोई निशानी न मिलने के कारण पुलिस ने लावारिस 
					समझ कर लाश को फूँक दिया।
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