घर पहुँचने पर सबसे पहला काम शची को 'विश' करने का किया। शची
अपने कमरे में थी। सीधा वहाँ जा पहुँचा,"कांग्रेचुलेशन्स शची!"
शची हर्षित आवाज़ में बोली, "कॉलेज में तो चुपचाप सामने से
निकल गए, मुझे तो लगता था कि आप मुझे बधाई देंगे ही नहीं।"
चंदन ने नहीं सोचा था कि शची ने यह नोट कर लिया था। वह अपनी
बात बढाते हुए बोला, "अब मिठाई खिलाओ!"
शची चंदन से कम ही बातें करती थी पर जवाब हमेशा खुश हो कर लाइट
मूड में देती थी। बोली,"अभी लाई बना कर।"
चंदन ने कहा, "न ऐसे काम नहीं चलेगा, स्टैंडर्ड में पार्टी
देनी पड़ेगी।"
शची से जवाब न बन पड़ा। भला हो उसी समय नारायण दत्त जी वहाँ आ
गए। उन्होंने पहली बार चंदन को शची के कमरे में आते हुए देखा
था। बोले, "किस बात की पार्टी हो रही है?"
''डैड, शची मिस कॉलेज चुनी गई है।" चंदन उत्साह से बोला।
नारायण दत्त ने सच्चे हर्ष से कहा, "अच्छा ये तो बहुत खुशी की
बात है। मैं दूँगा एक शानदार पार्टी।"
शची ने सकुचाते हुए कहा, "नहीं अंकल, बस हम ही लोग शाम को
चलेंगे।"
होली दिवाली नारायण दत्त
उल्लासपूर्वक मनाते थे। नाते रिश्तेदार इष्टमित्रों को
आमंत्रित करते थे। चंदन के सब दोस्त भी शामिल होते थे। होली पर
दिन में रंग का जश्न और शाम को दावत; दिवाली पर दिन में पूजा
और फिर भव्य दावत। आज दिवाली की पार्टी थी। सुबह से ही चहल-पहल
शुरू हो गई थी। खाना बनाने के लिए हलवाई लगे थे। नौकर चाकर
जुटे हुए थे। पर बिन कहे शची पर काम का बोझ आ पड़ा था। काम
करने वालों को काम बतलाना नहीं पड़ता और जल्दी ही उनकी पहचान
हो जाती है। शची को सब तरफ़ भागना पड़ रहा था। पंडित जी पूजा
की सामग्री के लिए बार-बार आवाज़ लगाते, हलवाई ज़रूरत की
चीज़ों के लिए जा घेरते, और ऊपर से नारायण दत्त व नारायणी अपने
आने वाले मेहमानों के चाय जलपान के लिए शची को ही पुकारते।
यहाँ तक कि चंदन के मित्रों के लिए भी उसी को भागना पड़ रहा
था। माँ-पिता के साथ प्रतिमा आई थी और चंदन के साथियों में
मोनिका भी। मोनिका को तो अपने ग्रुप से फ़ुरसत नहीं थी।
प्रतिमा ज़रूर चाय आदि में सहायता कर देती थी।
पूजा आरंभ हो रही थी, सब लोग
बैठ चुके थे। चंदन के साथी एक तरफ़ बैठे थे, तभी शची भोग का
पात्र हाथों में लटकाए हुए आई। आग पर से उठा कर ला रही थी। आच
से गाल लाल भभूका हो रहे थे। रुखे बाल हवा में उड़ रहे थे।
सुबह से पीला सिल्क का सनिया बदलने का वक्त नहीं मिला था, ना
ही कोई आभूषण थे। केवल दो काँच की चूड़ियाँ टहनी-सी कलाइयों
में झिलमिला रहीं थीं। सब ने अलौकिकता को भाँपा। चंदन अचकचा कर
देखने लगा।
मोनिका ने रिमार्क कसा, "लो दादी अम्मा आ गईं।"
यह न तो चंदन को अच्छा लगा न उसके दोस्तों को।
महेश धीरे से बोला,"शी इज सिंपली वंडरफुल।"
पूजा समाप्ति के बाद भी शची
को फुरसत न मिली। टेबल पर खाना लगाने का प्रबंध, मेहमानों के
लिए खाना और आग्रह अनुग्रह चलता ही रहा। आश्वस्त हो गृहस्वामी
और गृहणी को मित्र परिजनों से घुलने मिलने का मौका मिल गया।
मेहमानों के विदा हो जाने के बाद, शची कुर्सी पर सीधी पीठ टिका
के बैठ गई। पतले-पतले हाथ गोद में थे। नारायणी ने उसे ग़ौर से
देखा। चेहरे पर थकान के लक्षण पेशानी पर श्रमबिंदु। नारायणी को
वह बड़ी निरीह-सी लगी। उन्होंने इस लड़की को कभी कोई महत्व
नहीं दिया था फिर भी इसने सब अपना काम समझ कर दम भर की फ़ुर्सत
नहीं ली थी और जिनसे वह आस लगाए बैठी थीं, उन्होंने हाथ भी
नहीं हिलाया था।
उन्हें उस पर ममत्व हो आया, बोलीं, "जा बेटी तू आराम कर, बहुत
थक गई है।"
दूसरे दिन रविवार था, सब आलस में थे। नारायणी से तो उठा ही
नहीं गया। शची ने पूजा पाठ निपटाया। फिर नौकरों से सामान ठीक
कराने के लिए नारायणी से चाभियाँ ले गई। भंडारे और दूसरे कमरों
की चाभियों का गुच्छा नारायणी अपने पास रखतीं थीं। कोई ले जाता
तो उन्हें वापस कर देता था। यहाँ तक कि नारायण दत्त भी उनको ही
आकर वापस करते थे। ऐसा नहीं था कि कमरों में बहुमूल्य सामान था
वरन नारायणी को इससे अधिकार तुष्टि मिलती थी।
चंदन और नारायण दत्त चाय के लिए नारायणी के कमरे में ही आ गए
थे। शची का इंतज़ार कर रहे थे। कल की पार्टी का उनके चेहरे पर
संतोष था। शची काम निपटा के आई। नारायणी को चाभियों का गुच्छा
देने के लिए गई पर नारायणी ने नहीं लिया, बोलीं, "बेटी तुम ही
इसे अपने पास रखो, तुम्हें ही इसकी ज़्यादा ज़रूरत होती है।"
नारायण दत्त की आखों में चमक आ गई। उन्होंने वह देख लिया था जो
देखना चाहते थे।
चंदन नारायणी को खिजाने के लिए हल्के लहजे में बोला, "माँ, ये
क्या करती हो अगर कहीं यह चाभियाँ ले कर भाग गई तो।"
इसके पहले माँ कुछ कहतीं, शची चाभियों का गुच्छा उसकी तरफ़
झुलाती हुई बोली, "बैटर बिहेव नाओ, वर्ना खाना भी नहीं
मिलेगा।"
नारायण दत्त और नारायणी एक साथ हँस पड़े।
उस दिन के बाद चंदन का बर्ताव
शची से वाकई बदल गया। उसके हावभाव आचरण शची की ओर बहुत कोमल हो
गए। वह शची के आसपास ही रहना चाहता था। वह शची को कार में लाने
ले जाने के लिए रुका रहता। उसकी देर में भी क्लास होती तब भी
शची के साथ जल्दी चला जाता। ग्रुप में उसका मन नहीं लगता था।
और नारायणी ने ममता उड़ेली तो शची उनकी लाड़ली बन गई थी। शची
भी उन पर और समर्पित हो गई थी। उनको अब वह मौसी कहती थी। जब
चाहे मन उचाट होता, उनकी गोद में सिर रख कर पडी रहती थी, जैसा
अपनी माँ के साथ करती थी।
ना चाहते हुए भी कल चंदन को
एक पार्टी में जाना पड़ा था। प्रिय मित्र महेश का जन्म दिन था।
आलीशान रेस्ट्रॉरेंट में आयोजन किया गया था। शनिवार होने से
देर तक पार्टी चलती रही थी। गई रात चंदन लौटा था। सुबह आख खुली
तो धूप चढ़ आई थी। अधखुली आँखों बाहर देखा तो सुनहरे बालों की
परी खड़ी थी। वह सिरहाने के सहारे अध-बैठा हो गया। शची खाने की
मेज़ पर नाश्ता सजा रही थी। लगता था, अभी स्नान करके निकली थी।
बाल नीचे तक खुले थे जिन से पानी की बूँदें चू रहीं थीं। खाने
के कक्ष की पूरब की दीवार पर लंबे-लंबे रंग बिरंगे शीशों में
से पीले काँच से छन कर आती सूरज की उगती किरणों ने उसकी कमनीय
काया को देवकन्या-सा सुनहरा रूप दे दिया था। नीले शीशे की
रोशनी में आते ही वह आकाश-परी-सी नीलाभ हो उठी। आगे बढ़ते ही
हरे काँच के प्रकाश में उसकी सर्वांग काया वनदेवी-सी हरित हो
उठी। मेज के ईद-गिर्द घूमती शची कभी सुनहरी, कभी नीली, कभी
हरी, कभी श्वेत, और कभी नील-हरित द्युति रूप हो रही थी। चंदन
के अशांत मन में वनदेवी, देवकन्या, आकाशपरी हलचल कर रहे थे। वह
अपने को रोक न सका।
आकर बोल उठा, "तुम पूरी परी लग रही हो शची।"
शची ने मुँह बना के मज़ाक के लहजे में कहा, "और आप इसलिए सीधे
उठ के आ गए कि कहीं परी उड़ न जाए।"
चंदन ने आगे बढ़ कर कस के उसकी कलाई थाम ली, बोला, "जब उड़ने
दूँगा तब न।"
शची ने चंदन की आँखों में जो देखा तो लाज से संकुचित हो गई। |