और चंदन सुनते ही बिचक गया, "मैं जानता तक नहीं, शादी कैसे कर
लूँगा?"
उसके मन में उसकी सहपाठी मोनिका बसी हुई थी, उच्च पदाधिकारी की
मॉडर्न बेटी।
नारायण दत्त शची को भलीभाँति परख चुके थे। उदात्त प्रवृत्ति की
प्रियदर्शिनी वह लड़की चंदन के लिए सर्वथा उपयुक्त थी लेकिन
माँ बेटे सुनने को तैयार नहीं थे। नारायण दत्त बहुत उद्धिग्न
हो उठे। काफ़ी सोच विचार किया तो उन्हें लगा कि उनका तरीका
ग़लत था। अपने चयन पर सब को राजी करना मुश्किल है। क्यों न शची
को बिना परिचय के यहाँ ले आएँ? वैसे भी भौतिकी में स्नातक स्तर
की शिक्षा के लिए चंदन का कॉलिज जाना माना था। नारायण दत्त ने
अपने प्रभुत्व से शची का प्रवेश वृत्ति के साथ कराया। फिर उसके
माता पिता से संपर्क साध उन्हें संरक्षण का आश्वासन दे शची को
भेजने के लिए राजी कर लिया।
पत्नी और बेटे को जताया कि उनके एक पुराने मित्र की पुत्री आकर
रहेगी। उन दोनों को तनिक भी खुशी नहीं हुई। नारायणी को तो शंका
भी हुई। नारायण दत्त ने समझाया,''जहाँ इतने लोग हैं, एक ग़रीब
ब्राम्हण की बेटी भी एक कोने बनी रहेगी और तुमको दुआयें
देंगी।''
लेकिन उन्होंने आगाह कर दिया
कि उससे नौकरानी जैसा व्यवहार न करें, आखिर उनके मित्र की बेटी
है।
नगण्य-सा सामान ले कर जब शची ने नारायण दत्त के घर में प्रवेश
किया तो भौंचक रह गई। घर में वैभव बिखरा पड़ा था। नौकर चाकरों
की कमी नहीं थी। उसका कमरा अपने घर के कमरे से हर तरह से कई
गुना अच्छा था। लेकिन उसने घर का वातावरण बड़ा तनावपूर्ण पाया।
नारायण दत्त जी को छोड़ सब लोग यहाँ तक कि नौकर चाकर भी उससे
उखड़े-उखड़े थे।
बड़े उत्साह से नारायणी के लिए चाय ले गई तो उन्होंने उतने ही
ठंडेपन से कहा,"रख दो मेज पर।"
और चंदन ने तो मुंह बना के एक तरह से उसे जता दिया कि इस तरह
शची का कमरे में आना उसे पसंद नहीं। बेरूखी से बोला,"रामदीन दे
जाता।"
शची इतनी जल्दी मन की हार
मानने वाली लड़की नहीं थी। बड़ा आत्मविश्वास था उसमें। पर एक
बात उसने निश्चित कर ली कि इस बिन सींग के बछड़े के लिये अपनी
पहल से कुछ देगी लेगी नहीं। गृहस्वामिनी नारायणी के प्रति
आस्थावान थी। उनकी उपेक्षा को भुला वह उनकी और नारायण दत्त की
जरूरतों की ओर सुबह शाम ध्यान रखने लगी थी। नारायण दत्त अपनी
जरूरतों में सजग और समर्थ थे। शाम की सैर को उनके संग जाना शची
को अच्छा लगता था।
नारायणी का स्वास्थ इतना
अच्छा नहीं था। उनको जोड़ों के दर्द की तकलीफ थी। वह
ऑइण्टमेंन्ट लगाने बैठती तो शची उनके हाथ से टयूब ले खुद लगाने
बैठ जाती। न्यूजपेपर पढतीं तो कहती आण्टी लाइये मैं पढती हूं।
खानपान का खयाल रखती। नारायणी को यह सब पसंद नहीं था पर सुविधा
तो होती ही थी। धीरे धीरे वह इसकी आदी भी हो गयीं। अब चश्मा
ढूंढ़ने की जगह वह शची से पढ़वाना ज़्यादा पसंद करतीं थीं।
खाना बनाने को तो लोग लगे थे
लेकिन खाने की मेज को वह खुद संभालती थी। नाश्ता और खाना स्वयं
लगाती, देने में सहायता करती। सब लोग खाना साथ ही खाते थे।
ज़्यादातर चंदन से उसकी भेंट खाने की मेज पर ही होती थी। उसके
प्रति भी उसके व्यवहार में सौजन्यता रहती। चंदन की कटुता खत्म
हो गई थी लेकिन वह उससे बहुत कम बात करता था। जो मागता, दे
देती थी।
दो-एक महीने में नारायणी की
दिनचर्या में शची अभिन्न अंग बन गई। यहाँ तक कि उनकी पूजा पाठ
का काम भी आये दिन वह निपटा देती थी। इन सब में उसको तकलीफ़
नहीं होती थी क्यों कि काम की उसे आदत थी, हमेशा करती आई थी।
हाँ, नारायणी की दिनचर्या बहुत सुलभ हो गई थी।
चंदन और शची का एक ही कॉलेज था पर साथ कोई नहीं था। कक्षायें
अलग थीं। कॉलेज आना जाना अलग था - चंदन अपनी कार से, शची बस
से। ग्रुप अलग थे। मोनिका चंदन की क्लास में ही थी, उठना बैठना
भी साथ था।
शची को आए ज़्यादा दिन नहीं हुए थे लेकिन उसकी कॉलेज में अलग
पहचान बन गई थी। उसका रूप और सरलता तो सब के सामने थी लेकिन
उसकी प्रतिभा क्लास से निकल कॉलेज भर में फैल गई थी। मोनिका,
चंदन आदि का रॉयल ग्रुप अपनी शान के आगे इसे कोई महत्व नहीं
देता था।
एक महत्वपूर्ण बात हुई। कॉलेज
में चलन था, एक छात्रा प्रतिनिधि चुनने का जो वार्षिक उत्सव
में अतिथि अभ्यर्थना और समारोह समन्वय की भूमिका करती थी। मिस
कॉलेज के नाम से जानी जाने वाली वह छात्रा कॉलेज की सबसे
खूबसूरत लड़की समझी जाती थी। चुनाव खुला होता था लेकिन इच्छुक
छात्रायें अपना प्रचार प्रभुत्त लगातीं थीं। मोनिका भी इसी तरह
की प्रत्याशी थी।
परिणाम सामने आया तो अप्रत्याशित था। चुनी हुई छात्रा थी शची
जोशी।
पहली बार हुआ था कि एक नई-नई छात्रा चुनी गई थी, एक ऐसी लड़की
जो इस सारे अभियान से एकदम अलग थी। परिणाम जान कर शची अत्यंत प्रफुल्लित थी। छात्र छात्रायें उसे
बधाइयाँ देने आए तो बड़े उत्साह से उसने कृतज्ञता यापन किया।
चंदन ने चाहा कि वह भी बधाई दे पर मन के संकोच से और मोनिका के
ख़याल से रह गया।
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