दोस्त था मेरा, मैंने एक दिन कुरेदा - 'तुम स्साले भाभी से
कभी प्यार मोहब्बत नहीं जताते क्या "
"तुम्हें क्या पता।"
"मैं जो देखता हूँ, उससे तो यही लगता है "
"क्या देखते हो तुम, अरे उसके साथ सोता हूँ उसे संतुष्ट
करता हूँ अ़ब ये सब तुम्हें दिखा तो नहीं सकता ब़ता भर
सकता हूँ औ़र बताऊँ भी क्या औ़र क्यों, कोई बताने वाली बात
है ये कि मैंने बिस्तर पर बीवी को क़ब किस क़्या क्या कैसे
कैसे किया "
"बिस्तर और बीवी, बीवी और बिस्तर ब़स यही गुण-भाग है
तुम्हारा। अबे हमबिस्तर होने भर से बीवियाँ संतुष्ट हो
जाती है क्या "
"तुम्हें क्या पता।"
मैं कुआँरा ही था तब तक और सपने देखा करता था रोमाँटिक से।
"नहीं मेरा मतलब है वो दिन भर घर में पड़े रहती हैं उन्हें
घुमाओ-फिराओ, प्रेम-व्रेम जताओ, मेरा मतलब है "
"घुमाओ-फिराओ! हुँह, सड़कों पर भीड़ तो देखी हैं तुमने,
जाने कितने रगड़ के निकल जाएँगे उसे।"
"अरे भाई जब भीड़ कम हो तब य़ा किसी शांत, सुरम्य एकांत।"
"हाँ ताकि चार बदमाश आएँ, मेरी तो टांगे चीर कर झाड़ी में
फेंक दें और उसको रौंद-रौंद कर भरता बना दें, फिर कहीं हम
चुप न रह पाएँ तो कोर्ट कचहरी में इज्जत का पोस्टमार्टम।"
उसकी आवाज़ इतनी कड़वी पहले कभी नहीं हुई थी। मैंने बात
खत्म करनी चाही - "तुम तो यार म़ैं तो ऐसे ही कह गया, मेरा
मतलब प्यार मनुहार वगैरह, और क्या..."
"क्या फायदा इससे, हाँ ? कितने प्रेम किये यार कॉलेज में।"
अब सामान्य होने की कोशिश में था वह।
"प्रेम! अमाँ फ्लर्ट था वो तो, खालिस फ्लर्ट। आला दरजे की
सीटियाबाज़ी। मैं सीधे-सच्चे प्यार की बात कर रहा हूँ अ़बे
आत्मा से आत्मा वाला, मन से।" मैंने समझाने की कोशिश की।
"हाँ भइये वही। क्या करना ये सब करके, पत्नी है तो पत्नी
बनी रहें। ज्यादा प्रेम से क्या म़ान लो कल मैं न रहूँ तब
वह तो बेचारी मेरे प्यार में पागल रोती रहेगी बाकी उमर
इ़सीलिए ऐसा व्यवहार रखो कि ऐसे में तुम्हारी कमी अखरे न
ज्यादा दिन।" समझा वही पाया।
मुझे ये भी नहीं लगता कि मैं गलत था इस मुद्दे पर लेकिन मैं
इससे भी इंकार नहीं कर सकता कि वह अपनी पत्नी को बेहद
चाहता रहा होगा। मेरी यही उहापोह, उसके यही सहमे तर्क मेरे
दिमाग के कुछ सफों को अनजाने में ही लगातार भरते जा रहे
थे।
उसे विक्षिप्त कहा जाए, ये मुझे अच्छा नहीं लगता, पर सच ये
हैं कि वह ऐसा ही कुछ बन गया था - दुनिया से डरा, जिंदगी
से डरा, खुद से डरा - मरा। चंद बरसों में, बाप बनने से
पहले ही वह मुझे इतना बूढ़ा लगने लगा जैसे अगले दो चार साल
में उसे रिटायर होना हो या जैसे कैसर का मरीज़ जिसे मालूम
हो कि उसे कब तक जीना है।
मैंने कुछ कोशिशें की पर सब लगभग बेकार गयी। हमारा मिलना
भी अब कम ही हो रहा था। उसे शायद मुझसे डर लगने लगा था।
मुझसे क्या वह अब किसी से भी शायद ही मिलता, कैद कर लिया
था एक तरह से उसने खुद को, लेकिन हम जब मिलते वह मुझे कुछ
न कुछ दे जाता चिंता करने के लिए।
कभी मैं उसे बस में 'आपातकालीन निकास' ढूँढकर उसके पास
बैठते पकड़ लेता तो कभी छठी मंजिल पर स्थित अपने दफ्तर में
फायर फाइटिंग सिस्टम पर लिखी इबारत पढ़ता वो मेरी नज़रों
की गिरफ्त में होता। कई बार वह अपने दफ्तर के केयरटेकर से
उलझा भी दिखा - बात वही - आग लगने की स्थिति में इस्तेमाल
होने वाली आपात सीढ़ियों पर जमा पुराना फर्नीचर क्यों नहीं
हटाया जाता।
घर की खिड़कियाँ उसने परमनेंट बंद कर दी थीं। जब कभी
खिड़की खुलती भी तो जितनी देर खुलती वह परेशान रहता। भाभी
ने भी एक-दो बार जिक्र किया कि वह रात में कई बार उठता है,
कभी खिड़की दरवाजे देखता है तो कभी रसोई में जाकर गैस
सिलेंडर की नॉब चेक करता है, सुबह सीधे रसोई में जाकर गैस
जलाने से हमेशा और सख्ती से मना करता है, कहता है - कुछ
देर किचेन खुला रखो, फिर गैस जलाओ।
अरे हाँ, बीवी के बहुत ज़िद करने पर इसी बीच वो एक बार
वैष्णोदेवी के दर्शन को जाने का प्लान भी बना बैठा। मुझे
घोर आश्चर्य हुआ, बेहद खुशी भी। कश्मीर तो कश्मीर, पंजाब
तक के नाम से उसका रंग उड़ जाता था उन दिनों। हालांकि
पंजाब के हालात ठीक हो चुके थे तब तक, फिर भी
अपना विश्वास खत्म करने के लिए मैं उसे स्टेशन तक छोड़ने
भी गया। ट्रेन की खिड़की से उसने मुझसे कहा - "माँ के
दर्शन को जा रहा हूँ तो वही रक्षा भी करेंगी।" श्रद्धा का
भाव तो था ही उसके चेहरे पर मैंने बहुत कोशिश करके कहीं
आत्मविश्वास भी देख लिया था।
रात में मैं उसे जम्मू तवी जाने वाली हिमगिरि एक्स्प्रेस
में बिठाकर आया और अगली सुबह वह फिर शहर में था। मुझे पता
चला, मैंने पूछा - क्यों लौट आए? उसने चुपचाप सुबह का
अखबार मेरे सामने कर दिया, पहली खबर थी - एक ही समुदाय के
तीस तीर्थयात्री भूने गए।
मुरादाबाद से लौट आया था वह। मैंने उसके चेहरे को गौर से
देखा, श्रद्धा की परत एकदम गायब थी। मुझे याद नहीं पड़ता कि
इसके बाद कभी वह शहर से बाहर गया था। इधर अखबारों में जब से
'आतंकवादियों ने भूने या उड़ाए' जैसे संवेदनहीन शीर्षक ज्यादा
मोटे और ज्यादा लगने लगे थे तबसे और खासतौर पर ऐसी एकाध
वारदातें शहर में या आसपास होने के बाद
तो उसे घर के बाहर सात बजे के बाद शायद ही देखा जाता। आठ बजे
तक तो उसके घर के सदर दरवाजे में ताला लग जाता।
"रात को तो बिल्कुल ठीक ठाक थे, बेटे को अपने पास सुला
लिया था लेकिन सुबह..." इतना कहकर भाभी फिर रोने लगी हैं।
मैं चाहता हूँ कि शिकायत करूँ पर चुप बैठा हूँ। पूछता भी
रहा हूँ कि पिछले हफ्ते - पन्द्रह दिनों से उससे मुलाकात
क्यों नहीं की, शायद मुझसे मिलकर ही वह बच जाता। मैं बस
सोच रहा हूँ। उसकी पत्नी बीच बीच में सुबक पड़ती हैं।
बिजली नहीं आ रही। मैं पसीने से बिल्कुल नहा चुका हूँ। हवा
का हल्का सा एक झोंका आया है बड़ी राहत मिली हैं। मैं उधर
देखता हूँ जिधर से ये झोंका आया हैं। दरवाजा बिल्कुल खुला
है, परदा झूल रहा है। मुझे लगता है मेरा दोस्त अभी आएगा और
भाभी को डाँटेगा - 'ये सारे दरवाज़े क्यों खोल रखे हैं,
उखाड़ कर फेंक दूँ। कहो तो ' लेकिन उसी दरवाज़े से दाखिल
हुआ है उसका लड़का - 'मम्मी तुम्हें पता है अब पापा नहीं
आएँगे, अब मैं ये खिड़की खोल दूँ' - वह बोल पड़ा है और
दाहिनी तरफ वाली खिड़की के पास खड़ा हो गया है। |