अपनी शरारती मुस्कान के साथ वह खुद ही
बहुत कुछ बताता, जब भी हम मिलते - लगभग रोज़ ही, बाकी इधर
उधर से पहुँचती।
अचानक उसके पिताजी की मृत्यु हो गयी। माँ से तो वह पाँचवी
पास करने के बाद से ही बिछुड़ चुका था, वह गाँव में थी।
माँ से मिलने वह साल में बस एक बार गाँव जाता- दशहरे पर।
माँ से मिलने के साथ गाँव की रामलीला भी एक बड़ा आकर्षण
हुआ करती थी उसके लिए। उसके पिताजी ही उसकी माँ भी थे, ऐसे
पिताजी मैंने कम ही देखे, मैं अपने पिताजी से बहुत प्यार
करता हूँ। वह भी मुझे बहुत चाहते और मानते हैं पर अगर उसके
पिता से बराबरी करूँ तो मेरे पिताजी सामने शायद नहीं ठहर
पाएँगे।
खैर, तो उसके पिताजी की मृत्यु हो गयी और उनकी जगह
कम्पैशनेट ग्राउंड पर वह उन्हीं के दफ्तर में बाबू हो गया।
अब उसकी बाबूगीरी के बारे में ज्यादा बताना बेकार हैं
क्योंकि दफ्तर कोई हो, बाबू सब जगह एक से होते हैं, तो
वैसा ही वह भी बन गया।
ये वही दिन थे जब मैं भी नौकरी के मोर्चे पर निकल पड़ा था
और परदेस की होटली रोटियाँ और मकान मालिकों की धौंस झेलता
हुआ अपनी नौकरी की हाय-हाय से जूझ रहा था। पूरे तीन साल
बाद मैं वापस लौटा। हम फिर लगभग रोज़ मिलने लगे थे। इन्हीं
मुलाकातों ने मुझे सब कुछ बताना शुरू किया।
मसलन अब उसकी जेब में सिगरेट का पैकेट नहीं होता। और जब
मैं ऑफर करता तो वह मना कर देता। मैं उससे लड़ने के लिए
तड़प रहा था। मौके तलाश रहा था पहले की तरह लेकिन वह कोई
मौका ही नहीं दे रहा था। पहले हमारे बीच लड़ाई की सबसे
बड़ी वजह अक्सर सिगरेट बनती रही थी, पर अब वह भी बाकी
नहीं।
चंद दिनों तक तो मैं जज़्ब किये रहा लेकिन जब नहीं रहा गया
तो पूछ ही लिया - 'क्या तबियत ठीक नहीं आजकल '
"नहीं ठीक तो हूँ।"
"फिर, क्या हुआ, कम कर दी क्या? "
"नहीं, छोड़ दी।"
"क्या ! तुमने सिगरेट छोड़ दी ! अबे तुम तो दिन भर में चार
डिब्बी फूका करते थे, जबरदस्ती पिलाते थे, तुम। "
"एक सिगरेट आदमी की उम्र कई मिनट घटा देती हैं।" उसकी
आवाज़ में बस सूचना थी, भावहीन सी।
"हुँह, ये सब सोचने लगें तो फैक्ट्रियाँ बंद हो जाएँ
दुनिया भर की।" मैंने बहुत हल्केपन से लिया उसकी इस सूचना
को।
"नहीं यार ये सच है सोचना चाहिए।" इस बार उसने सीधे मेरी
आँखों में देखा।
"त़ो तुमने इसीलिए छोड़ दी। "
"हूँ।"
"जिन्दगी लंबी करने के लिए?"
"..."
"तब तो साले शर्त रही, तुम मुझसे पहले मरोगे।"
मैं देख रहा था कि अब रिक्शा, टैम्पो, टैक्सी पर भी वह
हमेशा बायीं ओर ही बैठता या बैठने की कोशिश करता। पहले हम
लोगों में दायीं तरफ बैठने को लेकर नोंक-झोंक हों जाया
करती थी क्योंकि दाहिनी तरफ बैठने से सामने से आ रही
लड़कियों को देखना आसान हुआ करता था। मैं उसमें आये इस
बदलाव की वजह तलाश ही रहा था कि एक दिन उसी ने ज्ञान बघारा
- "ऐसी सवारियों पर हमेशा बायीं ओर ही बैठना चाहिए ताकि
कोई ऐक्सीडेंट-वीक्सीडेंट हो तो बचने के चांसेस ज्यादा
रहें।"
"वो कैसे ?" किसी ने (मुझे याद नहीं किसने) सवाल उछाला।
"सपोज़, तुम रिक्शे पे बैठे हुए जा रहे हों, पीछे से कोई
बस, ट्रक, कार वगैरह टक्कर मारती हैं तो अगर तुम दायीं ओर
बैठें होंगे तो सीधे उसकी चपेट में आओगे औ़र बायीं तरफ
बैठे होंगे तो फुटपाथ की तरफ गिरोगे, समझे औ़र अगर दायीं
तरफ गिरकर टक्कर मारने वाले से बच भी गए तो सामने से आने
वाला कोई तुम्हारा भुरता बना सकता है औ़र वह किसी
विशेषज्ञ की तरह जाने कितने तर्क दे गया, जाने क्या क्या
बता गया। अंजाने में ही अब मैं हर वक्त उसके चेहरे के
भावों को, हरकतों, आँखों के कोणों को पढ़ रहा था और उनके
मायने, उनके पीछे की सोच को लगभग पूरी आसानी से समझने लगा
था।
शादी भी नहीं करना चाहता था वह, पर किसी तरह खींच-खाXचकर
कर ही दी गयी। उसकी पत्नी की तारीफ की जा सकती थी - सूरत
और सीरत दोनों से। लेकिन उसमें पत्नी के प्रति भी कोई
उत्साह नहीं था। बस पतिधर्म की औपचारिकता भर निभा रहा था
वह। मैंने ताड़ लिया ये भी।
यहाँ मैं आपको एक बार फिर बता दूँ - हमारे बीच तब तक
'एक्सट्रीमली पर्सनल' जैसा कुछ भी नहीं था, मैं ही उसका
सुख-दुख का सबसे खास साथी था। तो मुझे पत्नी के प्रति उसकी
बेरूखी खटक रही थी। उसकी पत्नी इस बेरूखी को शायद नियति
मानने लगी थी तभी तो संजीदा रहने लगी थी। |