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वह देर तक उसे देखता रहा। "यह तो बस ही लगती है लेकिन अभी तो बस का टाइम हुआ नहीं।" वह कुछ सोच में पड़ गया "क्या टाइम हुआ?"
"आठ चालीस।"
"तब तो बस का टाइम नहीं है। लेकिन है यह बस ही।"

तभी गाड़ी पास आई तो हमने देखा वह वास्तव में बस ही थी। लेकिन किसी टूरिस्ट सेवा की प्राइवेट बस थी।
"बत्ती देखकर आप कैसे जान लेते हैं?"
"जिंदगी में यही किया और सीखा है।" उसने कहा।

वह कुछ देर शांत रहा तो मैंने उसे कुरेदा, "आप बता रहे थे कि आपने एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में नौकरी कर ली।"
"हाँ। लेकिन तीन-चार साल में ही मेरा मन उससे उचट गया। महीनों क्लीनर और हेल्पर के साथ रात-दिन ट्रक पर ही गुजारना पड़ता। कभी-कभी तो ट्रक खराब हो जाने पर कई-कई दिनों तक सुनसान सड़क पर अकेले रहना पड़ता जहाँ खाने-पीना का भी कोई प्रबंध नहीं होता। इसी सबसे ऊबकर मैंने एक दिन वह नौकरी छोड़ दी। कुछ दिन बेकार रहा तब पणजी में एक टूरिस्ट बस सर्विस में ड्राइवर की नौकरी कर ली।"
"यह नौकरी अच्छी थी। सुबह आठ बजे एक स्थान से टूरिस्टों को लेकर निकलता और उन्हें लवर्स प्वाइंट, दक्षिण गोवा के गिरजाघर, सी-बीच, माइम, गोवा, मजगाँव डाक्स, फोर्ट अगोंदा वगैरह घुमाते हुए शाम को वापस लौट आता। वहीं पणजी में ही एक क्रिश्चियन परिवार में पेइंग गेस्ट बनकर रहने लगा।"

कुल तीन जनों का परिवार था वह। बूढ़े माँ-बाप और उनकी एक बेटी। एक बेटा भी था पहले लेकिन गोआ की आजादी की लड़ाई के दौरान वह मारा गया था। डिसूजा परिवार था वह। लड़की जूली डिसूजा मुझसे आयु में एक-दो वर्ष कम ही रही होगी। वह बहुत अच्छा डांस करती। गिटार और पियानो भी बजाती।
"धीरे-धीरे हम दोनों एक-दूसरे के बहुत निकट आ गए और जूली के माँ-बाप की रजामंदी से एक दिन हमलोगों ने चर्च में जाकर विवाह कर लिया।

मेरी सिगरेट समाप्त हो गई थी। "कहीं सिगरेट मिलेगी यहाँ?" मैंने उससे पूछा।
"कह नहीं सकता।" उसने कहा "चलिए चलकर देखते हैं।"

सौभाग्य से थोड़ी दूर पर ही एक दुकान खुली मिल गई। सिगरेट लेकर हम वापस उसी स्थान पर आ गए।
"आप कह रहे थे आपने चर्च में जाकर शादी कर ली।" मैंने उसे कथा का छूटा हुआ सूत्र याद दिलाया।
"हाँ।" उसने कहा "शादी करने के बाद हमलोग आराम से उसी मकान में रहने लगे। तभी छह साल के अंदर हमारे तीन बेटे पैदा हुए। तीनों ही एक से एक खूबसूरत। मैंने मन में तय किया कि मैं तीनों को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाऊँगा। लेकिन मेरे बेटों को एक ही धुन थी। मोटर ड्राइवरी करने की। आखिर जब पहले बेटे ने बड़े होकर बहुत जिद की तो जूली की राय से हमने अपना मकान गिरवी रखकर उसे एक टैक्सी दिला दी और वह टैक्सी चलाने लगा। तब तक दूसरा बेटा भी बड़ा हो गया था। अब दोनों उसी टैक्सी को बारी-बारी से चलाने लगे। लेकिन टैक्सी को लेकर उनमें झगड़ा होने लगा। और दूसरे बेटे ने भी टैक्सी की माँग की। अब दूसरी टैक्सी लेने की ताकत मुझमें नहीं थी। अत: मैंने साफ मना कर दिया। इस पर दूसरा बेटा एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में ड्राइवर हो गया।
मैंने उसे बहुत समझाया कि यह बहुत कठिन जिंदगी है लेकिन वह नहीं माना। तभी एक दुर्घटना घट गई।"
"क्या?" मैंने पूछा।
"मेरा सबसे बड़ा बेटा एक दिन अपनी टैक्सी पर कुछ सवारियों को लेकर पणजी से मंगलौर जा रहा था।

तभी उसकी टैक्सी एक ट्रक से टकरा गई। मुसाफिरों को तो कोई चोट नहीं आई लेकिन मेरे बेटे की दुर्घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई। यह लगभग वही स्थान था जहाँ पहली बार बस दुर्घटना के समय मैं पेड़ की डाल से लटकता हुआ पाया गया था। उस समय मेरे बेटे की उमर थी तेइस साल ग्यारह महीने और तेरह दिन।"

"बहुत अफसोस हुआ मुझे सुनकर" मैंने कहा।
"मुझे भी बहुत सदमा पहुँचा। मैंने अपने दूसरे बेटे को समझाया कि वह ट्रक चलाना छोड़ दे। लेकिन उसकी बात तो दूर रही मेरा तीसरा बेटा जिद करने लगा कि मैं दुर्घटनाग्रस्त टैक्सी को जल्दी से ठीक करा दूँ ताकि वह उसको चला सके।"

"इस बीच जूली के माता-पिता की मृत्यु हो चुकी थी। उसे भी अपने बड़े बेटे की मृत्यु का बहुत सदमा था लेकिन वह मेरी तरह अंधविश्वासी नहीं थी और उसने सबसे छोटे को टैक्सी ठीक कराने के लिए उपयुक्त धन दे दिया। अब मंझला बेटा ट्रक और छोटा बेटा टैक्सी चलाने लगा। तभी दूसरी दुर्घटना घटी।"

मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा।

"हुआ यह कि मेरा मंझला बेटा खाली ट्रक लेकर मंगलौर से पणजी आ रहा था। तभी लगभग उसी स्थान पर जहाँ बड़े बेटे की मृत्यु हुई थी उसका ट्रक सड़क पर फिसला और नीचे खड्डे में जा गिरा। क्लीनर को बस मामूली चोटें आइंर् लेकिन मेरे बेटे ने वहीं दम तोड़ दिया।" वह एक क्षण रूका तब बोला, "जानते हैं उस समय मेरे बेटे की उम्र क्या थी?"
"क्या?" मैंने पूछा।
"तेइस साल ग्यारह महीने और तेरह दिन।" उसने कहा।

एक क्षण हम दोनों ही खामोश रहे। तब उसने आगे कहना शुरू किया, "इसके बाद तो मेरा दिमाग ही खराब हो गया। जूली भी बहुत पछताई कि उसने मेरी बात क्यों नहीं मानी और इसी गम में वह पागल हो गई। मुझे उसे पागलों के अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। साथ ही तीसरे बेटे को लेकर मेरे मन में आशंकाएँ उभरने लगीं कि यह कौन सी शैतानी शक्ति थी जो इतनी निर्दयता से मेरे बेटों को मुझसे छीन रही थी। मैंने तय किया कि कुछ भी हो अब मैं माइकेल को टैक्सी नहीं चलाने दूँगा। जी हाँ, माइकेल मेरे सबसे छोटे बेटे का नाम है। मैंने उसे बहुत समझाया लेकिन वह नहीं माना। आखिर एक दिन मैंने उसे जबरदस्ती कमरे में बंद कर दिया और तब तक बंद रखा जब तक टैक्सी मैंने बेच नहीं दी। इसके बाद मैंने उसे कमरे से बाहर निकाला और उसे अपने पास बिठाकर समझाया कि टैक्सी मैंने बेच दी है अब इन पैसों से जो भी धंधा वह करना चाहे करे। वह कुछ नहीं बोला और पैसे मुझसे लेकर जेब में रखकर घर से बाहर चला गया।"
"मैं समझता था वह चार-छह घंटों में लौट आएगा लेकिन एक दिन गुजरा, दो दिन गुजरे और फिर सप्ताह और महीने गुजरने लगे मगर वह लौटकर नहीं आया। आज तक नहीं आया।"

"आज तक नहीं आया?"
"हाँ। मैं बराबर उसकी तलाश में हूँ। आज सत्रह तारीख है न।"
"हाँ।" मैंने कहा।
"आज वह अपनी जिंदगी के तेइस साल ग्यारह महीने और आठ दिन पूरे करेगा। पाँच दिनों में वह इधर जरूर आएगा। चार दिन बाद मैं उस स्थान पहुँच जाऊँगा जहाँ पहली दुर्घटनाएँ घट चुकी हैं। हर गाड़ी को रोकूँगा मैं। जैसे भी हो उसे तलाश करूँगा। मुझे भरोसा है मैं उसे बचा लूँगा।"
"आपका ख्याल है वह अपनी आयु के तेईस वर्ष ग्यारह महीने और तेरहवें दिन वहाँ जरूर पहुँचेगा।"
"मेरा मन कहता है और मैं अपनी पूरी कोशिश करूँगा उसे बचाने की।"
"आपकी पत्नी?"
"उसे दुबारा पागल खाने में भर्ती कराना पड़ा। वह भी दिन गिन रही है। उसे डर है कि माइकेल बचेगा नहीं लेकिन मैं उससे वायदा करके आया हूँ कि मैं उसे बचाऊँगा। जैसे भी हो लीजिए आपकी बस आ रही है।"

मैंने देखा सड़क पर दो बड़ी-बडी बत्तियाँ चमक रही थीं। गाड़ी निकट आने पर उसने सड़क पर खड़े होकर हाथ हिलाना शुरू कर दिया "एक्सप्रेस बस हाथ हिलाने से ही यहाँ रूकती है।" उसने कहा।

बस आकर जोरों के ब्रेक के साथ रूक गई।
"आइए।" उसने कहा।
मैं अटैची लेकर बस पर चढ़ गया।
"नमस्कार।" उसने कहा।

बस चली तो वह देर तक हवा में हाथ हिलाता रहा।

उसने ठीक ही कहा था। पहले वाली बस मुझे रास्ते में एक जगह खड़ी मिली। अगर मैं उसे पकड़ता तो अटक ही जाता। इस बस ने मुझे समय से पहुँचा दिया और मुझे पणजी वाली बस आराम से मिल गई। पणजी जाते समय जब हमारी बस उस स्थान से गुजरी तो मैंने देखा वह उसी चबूतरे पर बैठा था। अकेला।

रास्ते भर मैं उसके बारे में सोचता रहा। अगर उसने मुझसे कुछ रूपए आदि माँगे होते तो एक बार मुझे यह भी लगता कि वह कहानी गढ़ रहा था। लेकिन ऐसा कुछ नहीं था।

पणजी पहुँचकर मैं घूमने-फिरने में लग गया। एक प्रकार से मैं उसके बारे में सब कुछ भूल ही गया था। तभी जिस दिन मुझे वहाँ से लौटना था और मैं अपने होटल के लाउंज में बैठा पणजी की अंतिम चाय पी रहा था, अचानक मेरी निगाह अखबार में प्रकाशित एक समाचार पर पड़ी "ट्रक दुर्घटना में ड्राइवर की मृत्यु।"

मैंने अखबार उठा लिया। हेडिंग के नीचे लिखा था "कल मंगलौर से पणजी आते हुए लगभग आधे रास्ते पर बीच सड़क पर खड़े एक बूढ़े व्यक्ति को बचाने के प्रयास में एक ट्रक खड्डे में जा गिरा। क्लीनर को मामूली चोटें आईं लेकिन ड्राइवर की दुर्घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई। ड्राइवर का नाम माइकेल डिसूजा था। उसकी आयु लगभग चौबीस वर्ष थी।"

मैं सकते में आ गया। तो क्या उसे बचाने के चक्कर में उसने ही उसके प्राण ले लिए।

मै पूरी तौर से नास्तिक हूँ। किसी देवी शक्ति में मेरा कोई विश्वास नहीं हैं। तब इसे क्या कहूँ? संयोग? या नियति या आप ही बताएँ।

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१६ मार्च २००२

 
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