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मेरे पास सामान अधिक नहीं था। मात्र एक अटैची। उसे लेकर मैं सड़क के उस पार आ गया जहाँ से मुझे मंगलौर के लिए बस मिलनी थीं। यहाँ एक वृक्ष के नीचे एक चबूतरा सा बना था। संभवत: बस यात्रियों की सुविधा के लिए ही यह बनाया गया था। एक आदमी वहाँ पहले से बैठा था। मैं भी उसी की बगल में बैठ गया। उसने मुझे, गौर से देखा। तब पूछा, "कहाँ जाएँगे आप?"
"मंगलौर" मैंने कहा, "वहाँ से मुझे पणजी जाना है। अभी रात नौ पचास वाली बस से"
"रिजर्वेशन है आपका?"
"सो तो सुबह ही करा लिया था।" मैंने कहा।
"तब तो आपने भूल की। पणजी वाली बस तो इधर से ही जाती है। आप उनको बता देते तो वह आपको यहाँ से ले लेते।"
"हाँ। यह भूल तो हो ही गई। असलियत में तब मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी।"
"खैर अभी समय है आप आराम से पहुँच जाएँगे। बीस-बाईस किलोमीटर की ही तो बात है। बस समय और पैसे का कुछ नुकसान होगा।"
"सही जानकारी की कमी का इतना मुआवजा तो देना ही चाहिए मुझे।" मैंने कहा।

तभी दाहिनी ओर सड़क पर किसी चोपहिए वाहन का तेज प्रकाश देखकर मैं कुछ सतर्क हो गया कि शायद मंगलौर जाने वाली कोई बस ही हो।" बस वाला ऐसे ही रोक देगा या मुझे हाथ दिखाना होगा।" मैंने उस व्यक्ति से पूछा।

उसने गाड़ी के प्रकाश की ओर देखा। तब बोला, "यह तो कार है। आप बैठे रहिए। बस आपको अभी थोड़ी देर में मिलेगी। साढ़े आठ पर पहली बस आएगी लेकिन मेरी मानिए तो उसे आप मत लीजिए। वह स्लो बस है रूकते-रूकाते जाएगी। कोई ठीक नहीं आपको समय से पहुँचाए भी या नहीं। उसके बाद दूसरी बस नौ बजकर दस मिनट पर मिलेगी। वह एक्सप्रेस बस है। वह आपको ठीक नौ चालीस पर मंगलौर पहुँचा देगी। यहाँ से छूटी तो सीधे मंगलौर ही रूकेगी।"

तब तक जिस गाड़ी का प्रकाश मैंने देखा था वह हमारे सामने से निकल गई। वास्तव में वह कार ही थी। मुझे आश्चर्य हुआ कि इस आदमी ने इतनी दूर से कैसे जान लिया कि वह कार ही है।

"आप क्या उत्तर भारत के रहने वाले हैं?" मैंने उससे पूछा।
"क्यों?"
"हिंदी आप बहुत अच्छी बोलते हैं।"
वह हँसा। "हिंदी ही नहीं, मैं कन्नड़ और कोंकणी भी बहुत अच्छी बोल लेता हूँ। इसके अलावा मराठी, मलयालम, पंजाबी, असमिया और बंगला भी टूटी-फूटी बोल लेता हूँ। लेकिन मैं कहाँ का हूँ, मेरे माता-पिता कौन थे, क्या भाषा बोलते थे, उनका धर्म क्या था, यह मैं आज तक नहीं जानता।"
"ऐसा कैसे?" मुझे आश्चर्य हुआ।
"बहुत पुरानी बात है।" उसने इस प्रकार कहना शुरू किया जैसे वह कहीं बहुत पीछे किसी अँधेरे अतीत में डुबकी लगा रहा हो। "आज से कोई पचास-बावन वर्ष पहले इसी मंगलौर पणजी मार्ग पर एक बहुत भयानक बस दुर्घटना हुई थी। आप शायद तब पैदा भी नहीं हुए होंगे।" उसने मेरी ओर गौर से देखा तब बोला,
"पहले कभी इस रूट पर यात्रा की है आपने?"
"नहीं।" मैंने कहा।
"तब आपको यह यात्रा दिन में करनी चाहिए थी। इस देश की बहुत ही खूबसूरत यात्राओं में से एक है यह। पूरा मार्ग वेस्टर्न घाट्स के बीच से गुजरता है। दोनों ओर पहाड़, घाटियाँ, झरने जंगल, फल और फूलों से लदे हुए वृक्ष। अगर हल्की बारिश हो रही हो तब तो यात्रा का आनंद और भी बढ़ जाता है।"
"आप किसी दुर्घटना की बात कर रहे थे"
"हाँ। आज से पचास-बावन वर्ष पहले की बात है। इस मार्ग के लगभग बीचोबीच एक स्थान पर सड़क लगभग यू टर्न लेती है। उसी स्थान पर यह दुर्घटना घटी थी।"

सड़क पर किसी वाहन का प्रकाश देखकर मैं फिर उस ओर देखने लगा।
"ट्रक है।" उसने कहा।
मुझे लगा जैसे मैं चोरी करते पकड़ा गया हूँ। "क्षमा कीजिएगा।" मैंने कहा, "आप दुर्घटना की बात कर रहे थे।"
"वही बात कर रहा हूँ। सवारियों से पूरी तरह लदी हुई बस तेज रफ्तार से भागी चली जा रही थी। तभी क्या हुआ यह तो आज तक कोई बता नहीं पाया, बहरहाल, उसी यू टर्न के पास बस अचानक एक गहरे खड्डे में जा गिरी। कोई दो हजार फुट गहरा खड्डा रहा होगा। नीचे घाटी तक पहुँचने से पहले ही बस में आग लग गई और आग की भयंकर लपटों से घिरे एक विशाल गोले की तरह बस लुढ़कती हुई नीचे घाटी में जा गिरी। सारे यात्री बस में ही जल कर मर गए। एक प्राणी भी नहीं बचा। बचा तो बस एक डेढ़ साल का बच्चा जिसे एक खरोंच तक नहीं आई।"

मुझे उसकी बात पर आश्चर्य हुआ। तभी वह गाड़ी हमारे सामने से गुजरी और मैंने देखा वास्तव में ही ट्रक था।
"अरे यह तो बड़े आश्चर्य की बात है कि बच्चे को जरा सी खराश भी नहीं आई।" मैने कहा।
"हाँ।" उसने कहा, "असलियत में इधर फालसाही रंग का एक तरह के फूल का वृक्ष होता है बिल्कुल गुलमोहर जैसा। लेकिन ऊँचाई में उससे काफी छोटा। सितंबर के महीने में, जिन दिनों की बात है वह, अपने पूरे शबाब पर होता है। पूरा पेड़ फूलों का एक स्तूप सा लगने लगता है। इस मार्ग पर यह पेड़ बहुतायत से पाया जाता है।

संभवत: वह बच्चा बस में खिड़की के पास अपनी माँ या पिता की गोद में बैठा उन फूलों की ओर लपकता रहा होगा और जैसे ही बस खड्डे में गिरने को हुई बिल्कुल उसी क्षण वह बच्चा फूलों की ओर लपका और फूलों की एक डाल उसकी पकड़ में आ गई और इधर बस खड्डे की ओर लुढ़की और उधर वह बच्चा फूलों की डाल पकड़े खिड़की से बाहर हो गया। जब बस के गिरने की आवाज सुनकर पास के गाँव में रहने वाले लोग दौड़ कर आए तो उन्होंने फूलों के उस वृक्ष की एक डाल से उस बच्चे को लटकता हुआ पाया।

बच्चा जोर-जोर से रो रहा था। एक गाँव वाले ने पेड़ से लटकते हुए उस बच्चे को गोद में लेकर उतारा। दूसरे लोग नीचे खड्डे में उतर गए। किसी तरह जलती हुई बस को उन्होंने बुझाया। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। सब कुछ जलकर राख हो चुका था। लाशें भी इस सीमा तक जल चुकी थी कि किसी को भी पहचानना असंभव था। पुलिस आई। उसने सारी चीजों का मुआयना किया।"

"बच्चे के वस्त्रों आदि को देखकर लगता था कि वह किसी अच्छे घर का है। लेकिन सिवाय "अम्मा" "बाबा" के वह कुछ बोल नहीं सकता था। ऐसी स्थिति में यह पता लगा पाना कि वह कौन था, बड़ा मुश्किल था। बस में जो भी सामान आदि जलने से रह गया था उसे पुलिस वालों ने गौर से देखा कि शायद किसी बक्से में बच्चे की साइज के कुछ वस्त्र आदि मिलें, साथ ही कुछ ऐसा जिससे उसके बारे में कुछ जाना जा सके यह भी ट्रक है।" उसने सड़क पर आते एक और वाहन की रोशनी को देखते हुए कहा।

"उस बच्चे का क्या हुआ?"
"दूसरे दिन अखबारों में बस दुर्घटना की खबर के साथ बच्चे का बड़ा सा फोटो भी छपा। लेकिन कुछ फायदा नहीं हुआ। कई दिन निकल गए। लेकिन कोई उसे क्लेम करने नहीं आया। हाँ उसे गोद लेने के लिए कई लोग आगे आए मगर इसमें एक कानूनी अड़चन थी। बच्चा या तो माँ-बाप की अनुमति से गोद लिया जा सकता है या फिर वह पूरी तरह लावारिस हो। यहाँ समस्या यह थी कि कानूनी तौर से बच्चा लावारिस भी नहीं कहा जा सकता था क्योंकि हो सकता था कि कुछ दिनों बाद उसके हकदार आ ही जाएँ और कौन जाने बच्चे के माँ-बाप दोनों नहीं तो उनमें से एक अभी जीवित ही हो। अत: मेजिस्ट्रेट ने यह आदेश दिया कि बच्चे का फोटो सुरक्षित रख लिया जाए तथा एक छोटा फोटो तावीज के रूप में बच्चे के गले में पहना दिया जाए और पालन-पोषण के लिए किसी अच्छे अनाथ आश्रम भेज दिया जाए। अत: कुछ दिन पुलिस कस्टडी में रहने के बाद बच्चे को एक अनाथ आश्रम भेज दिया गया।"

इस बीच वह वाहन हमारे सामने से निकला तो मैंने देखा वह वास्तव में ट्रक था। मैं उस व्यक्ति के बारे में सोचने लगा कि आखिर यह है कौन जो दूर से वाहनों के प्रकाश को देखकर ही उनके स्वरूप को पहचान लेता है।
"आपको बताऊँ वह बच्चा कौन था?"
मैंने उसकी ओर गौर से देखा।
"वह बच्चा आपके सामने बैठा है।" और यह कहकर उसने अपने गले में पड़ा हुआ ताबीज मेरे सामने कर दिया।
"आप।"
"जी हाँ मैं।"
"तो आपको बाद में कुछ पता चला।"
"नहीं।" उसने कहा।
"मैं कोई चार-पाँच साल उस अनाथालय में रहा तब वहाँ से भाग आया। असलियत में उसे अनाथालय कहना ही गलत था। वास्तव में वह बच्चों द्वारा भीख मँगवाए जाने का एक अड्डा था। सुबह सब बच्चे अलग-अलग टोलियाँ बनाकर बैंड बाजे के साथ निकलते और शाम को भीख में पाए हुए पैसे लाकर मैनेजर के पास जमा कर देते। यदि कोई बच्चा कम पैसे लाता तो उसे सजा दी जाती। खाना भी ठीक से नहीं मिलता था। यही सब देखकर मैं वहाँ से एक दिन चोरी से भाग निकला अब आपकी बस आ रही है, लेकिन यह पैसेंजर बस है मेरी राय में आप इसे मत पकड़िए।"

"ठीक है।" मैंने कहा। "अनाथालय से निकलने के बाद आप कहाँ गए?"

"तब तक मुझे बस एक्सीडेंट के बारे में सारी बातें पता चल चुकी थीं और जाने क्यों मैं लौटकर उसी स्थान पहुँच गया जहाँ एक्सीडेंट हुआ था और वहाँ से कुछ दूर सड़क किनारे बने एक होटल में काम करने लगा। मेरे गले में मेरा उस समय का फोटो अभी भी ताबीज में मढ़ा लटका था। उसे देखकर कुछ लोगों ने मुझे पहचान लिया कि मैं वही बच्चा हूँ जो बस दुर्घटना में बच गया था। सभी मुझे बहुत ही उत्सुकता से देखते। बस के ड्राइवरों-कंडक्टरों को तो मुझमें विशेष रूचि थी। वह मुझे बहुत ही भाग्यशाली समझते और कभी-कभी मुझे अपने साथ अपनी बस में बिठा लेते। कुछ दूर जाकर किसी स्टाप पर मैं उधर से आने वाली बस पर बैठकर वापस आ जाता।"

बस आकर वहाँ रूक गई। वह खचाखच भरी हुई थी। दो-एक मुसाफिर उससे उतरे।
"आप जाना चाहें तो इससे जा सकते हैं। हो सकता है समय से यह पहुँचा भी दे। लेकिन मेरे ख्याल से आप रिस्क न लें। एक्सप्रेस बस ही पकड़ें।"

"ठीक है मैं एक्सप्रेस बस से ही जाऊँगा" मैंने कहा।

बस चली गई।
"फिर क्या हुआ?" मैंने पूछा।
"फिर तो यह रोज का ही सिलसिला हो गया। मैं आराम से किसी भी बस में सवार हो जाता। ड्राइवर और कंडक्टर मेरे भोजन का प्रबंध करते। नींद लगने पर मैं बस में सो भी जाता। धीरे-धीरे मैं रोज ही मंगलौर से पणजी और पणजी से मंगलौर का चक्कर लगाने लगा। बरसों तक यह सिलसिला जारी रहा। इस रूट के सारे होटल तथा अन्य दुकान वाले यहाँ तक कि अक्सर आने-जाने वाले पैसेंजर भी मुझे पहचानने लगे। सभी मुझे सहानुभूति की दृष्टि से देखते, महिलाएँ मुझे अपने पास बिठा लेतीं और मुझे खाने को फल, बिस्कुट आदि देतीं। साथ में इस तरह के रिमार्क करतीं "बेचारा बिना माँ-बाप का है च् च्।" शुरू में यह सहानुभूति मुझे अच्छी लगी लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ा होने लगा यह सहानुभूति मुझे अखरने लगी।"

"इस बीच मैंने बस के ड्राइवरों की कृपा से ड्राइविंग भी सीख ली थी और सत्रह-अठ्ठारह का होते-होते बड़ी से बड़ी गाड़ियाँ चलाने में दक्ष हो गया। तभी मुझे मंगलौर की एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में ड्राइवर की नौकरी मिल गई और माल से लदा हुआ ट्रक मंगलौर से जयपुर, अमृतसर, दिल्ली, कलकत्ता, बंबई, गौहाटी, मद्रास तक लाने ले जाने लगा। कभी-कभी एक यात्रा में मुझे एक-एक महीना लग जाता। मेरी हिंदी के बारे में आप बात कर रहे थे, वह मैंने इसी दौरान सीखी। और भाषाएँ भी सीखीं। लेकिन चंूकि और भाषाओं का सीमित उपयोग ही था इसलिए उन्हें इतनी अधिक नहीं सीख पाया जबकि हिंदी पूरे देश में ही चलती और समझी जाती है
इसलिए हिंदी मुझे अच्छी तरह आ गई।"

"यह कौन-सी गाड़ी है?" एक वाहन की लाइट देखकर मैंने पूछा।

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