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                    उत्कृष्टतम आभूषण-शृंगार-प्रसाधन 
                    मेरी उम्र कहाँ छिपा पाते। बालों के किनारे में सफ़ेदी झलकती 
                    है, चेहरे की त्वचा पर गृहस्थी की उलझनें अपनी आकृतियाँ बनाने 
                    लगी थी। तब मैंने सोचा था - मेरा चेहरा धूनी रमा कर बैठी 
                    तपस्विनी का-सा तेजोमय है। मैं हँसी थी। क्या मैं त्याग-तपस्या 
                    की भव्यमूर्ति नहीं लगती हूँ? उनके प्रौढ़मुख के तारुण्य के 
                    आकर्षण ने अथवा पत्नीत्व के बोध ने उस क्षण मुझ में घनीभूत 
                    अधिकार भावना जगा दी।  मैंने उसी अधिकार से जानना 
                    चाहा कि आखिर उन्होंने मुझे अमेरिका क्यों भेजना चाहा है। मेरी 
                    माँग ने उन्हें पच्चीस वर्ष के साथ की मर्यादा निभाने नहीं दी। 
                    उन्होंने तिक्त होकर आखिर वह सब कह दिया जो शायद वह एक वर्ष 
                    बाद कहते या शायद परिस्थितियों के बदलने पर नहीं भी कहते। फिर 
                    उन्होंने सुझाव दिया कि मैं तुम्हारे पास आ जाऊँ और वह सब कुछ 
                    लिख कर मुझे भेज देंगे। उसी रात वह कलकत्ता चले गए थे। दो-तीन 
                    दिन बाद मैं यहाँ आ गई। जब से आई हूँ, हमारा पत्र-व्यवहार चल 
                    रहा है।  उन्होंने कुछ भी नहीं छिपाया। 
                    साफ़-साफ़ लिख दिया है, कि वह किसी के प्यार में आकण्ठ डूबे 
                    हैं, और शेष जीवन उसी के साथ बिताना चाहते हैं। मैंने उन्हें 
                    लिखा था कि वह उसे भी घर में रख सकते हैं, मैं आपत्ति नहीं 
                    करूँगी, पर मुझे मेरे संसार से विलग न करें - लेकिन शायद वह 
                    तैयार नहीं हो रही है। उसका कहना है कि रोज़-रोज़ मेरा शिकायत 
                    भरा चेहरा देखकर वह खुश नहीं रह पाएगी। अब मुझे एक साल उनसे 
                    अलग रहना है, ताकि तलाक की वह शर्त पूरी हो सके। उन्होंने इसके 
                    बदले मेरे सामने पाँच लाख रुपये और कोठी देने का प्रस्ताव रखा 
                    है। नन्दू, वह मुझे प्रलोभन दे रहे हैं कि मैं उन्हें मुक्त कर 
                    दूँ।'' इसके आगे दीदी का संयम टूट 
                    गया और वह फूट-फूट कर रो पड़ी। मुझे कुछ नहीं सूझा तो मैं उनके 
                    पैर पकड़ कर रोने लगा, ''दीदी, भगवान के लिए रोना बन्द करो। हम 
                    सब मिलकर कोई न कोई राह निकालेंगे।'' हम दोनों बहुत देर वैसे 
                    ही मूक बैठे रहे - अपने-अपने विचारों में डूबे हुए। मैं देखता रहा - सामने बैठी 
                    दीदी क्या वही दीदी थी, जिसकी छलकती खुशी के छीटे मेरे किशोर 
                    मन की सीप में गिरकर, बन्द मोती की तरह अभी भी सुरक्षित थे। 
                    जिस दिन उनका विवाह तय हुआ था, उसी दिन से जीजा जी को वह पूजती 
                    रही। फूल की तरह खिली तो सिर्फ़ उन्हीं के लिए, और धरती की तरह 
                    सहा तो सिर्फ़ उन्हीं को सहारा देने के लिए। ससुराल से वह बहुत 
                    कम आती थी, आती भी तो जल्दी चली जाती। मैं जब उनके यहाँ आता तब 
                    उनका जीवन देख, उस उम्र में भी महसूस करता था कि जीजा जी मानो 
                    एक सागर हैं, और दीदी उनकी लहरों में तिरती एक नन्नी-सी नौका।
                     उनका सूरजमुखी जीवन कितनी ही 
                    बार माँ, पिता जी को झुंझलाहट में डाल देता था। आखिर और भी तो 
                    पति-पत्नी है। ऐसा समर्पित जीवन मुझे तो आसपास कहीं दीखता न 
                    था। जाने उनके मन के उस प्रेम का मूल कहाँ था कि निरन्तर देने 
                    के बाद भी चुकता नहीं था। शायद इसी आप्लावन ने पाने वाले को 
                    उबा दिया था। वह अपने हरसिंगार के पेड़ की जड़ नम रखने में 
                    तन्मय रही, और फूल कोई अन्य चुनने लगा। चारू के आने की आहट पाकर दीदी 
                    ने आँसू पोंछ लिए और प्रकृतिस्थ होने का प्रयत्न करने लगी। 
                    स्थिति का सामना करने को अभी वह तैयार न थी। चारू को देखकर दीदी सम्भलने 
                    की कोशिश करने लगी, पर बाद में न जाने क्या सोचकर स्वयं ही 
                    चारू को सब बता दिया। चारू सुनकर स्तब्ध रह गई। उस दिन से हम तीनों ऊपर से 
                    स्वाभाविक बने रहने का अभिनय करते रहे, पर हमारे मन की सारी 
                    आँधी अन्दर सिमट कर भयानक उत्पीड़न किए रहती। रोज़ सैर का 
                    कार्यक्रम बनता, तरह-तरह का खाना मेज पर लगाया जाता, बैठकें 
                    जमतीं, लेकिन हमारे मन की ऊपरी सतह तक ही इनका प्रभाव पहुँच 
                    पाता, बच्चे ज़रूर कुछ खुश नज़र आने लगे थे। चारू के मुँह से 
                    अब मौके बेमौके निकल आता - पुरुषों का क्या ठिकाना। 
                     लाख छिपाने पर भी बच्चे अपनी 
                    चहेती बुआ के परिवर्तन को महसूस कर रहे थे, कि घर में कुछ 
                    उथला-पुथल है। पहले ही बुआ का बिना खिलौने लिए आना उन्हें अखरा 
                    था और अब यह एक गुमसुम-सी उदास बुआ उन्हें पहेली-सी लगती। 
                    फूलों वाली राजकुमारी की कहानी में फूल कभी नहीं सूखते थे, एक 
                    दिन कहानी कहते-कहते उन्हें भी सूखा कह गई। दीदी बेचारी करती 
                    भी क्या? जिस पौधे की जड़े सूख गईं, उसमें फूल कैसे खिलातीं! एक दिन दीदी बोली, ''मैं अलग 
                    ही रहूँगी। उनके पाँच लाख रुपए भी न लूँगी सिर्फ़ ऋषिकेश के 
                    आश्रम में रहने का खर्च लगेगा वह अपने जेवर बेचकर ही चला 
                    लूँगी। मेरा जेवर तो मेरा ही है न।'' ''दीदी, तुम्हें ऋषिकेश जाने 
                    की क्या ज़रूरत है, मैं जो हूँ।'' मेरे इस कथन पर वह उदास-सी 
                    हँसी हँसी थी। उसकी हँसी कह रही थी - जिस घर में पच्चीस साल 
                    रही, वह छूट गया तो अब घरों में रहना ही क्या?'' मैंने भी उनकी दुर्बलता को 
                    छूते हुए कहा, ''यह रुपया और घर न लेकर तुम रुचिका, राजीव का 
                    भी तो नुकसान करोगी। वे बेघर-बार न हो जाएँगे?'' इससे पहले मैं जीजा जी के पास 
                    हो आया था, उन्हें दीदी का संदेश दे दिया था कि वह अभी भी बुरा 
                    नहीं मान रही है, सब कुछ पहले जैसा ही रहने दें, और उसे भी जो 
                    चाहें दें, वह आपत्ति नहीं उठाएगी। लेकिन उन्होंने हर तर्क के 
                    अन्त में यही कहा कि वह विवश हैं। क्या विवशता है, यह मैं पूछ 
                    न सका, न उन्होंने बताया ही। लेकिन मैं जानता था अब उनके जीवन 
                    में दीदी का कोई स्थान नहीं रहा।  धीरे-धीरे एक वर्ष बीत गया, 
                    और अब दीदी ने हथियार डाल दिए थे। पूरे वर्ष मैं उन्हें 
                    तरह-तरह से समझाता रहा कि अस्तित्वहीन की आशा में रह कर उनका 
                    स्वयं को भटकाना व्यर्थ है, वह समझाने में मुझे बहुत मेहनत 
                    करनी पड़ती थी, एक बार तो खीज कर कह भी गया था, ''दीदी, समझ 
                    क्यों नहीं लेती कि जीजा जी का अस्तित्व नहीं रहा - वह नहीं 
                    रहे - तुम विधवा हो - ''
 साल भर रोते-रोते उनके आँसू सूख गए थे, इतनी कठोर बात सुनकर वह 
                    जड़वत बैठी रह गई थी।
 दीदी की ओर से तलाक का 
                    आवेदन-पत्र भेजा जाना था। जीजा जी ने स्वयं प्रस्ताव रखा कि उन 
                    पर चरित्रहीनता का आरोप लगा दिया जाए। प्रोढ़ावस्था के अंधे 
                    प्रेम के वेग में वह बौरा-से गए थे। आवेदन-पत्र जाने के एक दिन 
                    पहले वह पाँच लाख का ड्राफ्ट और मकान के काग़ज़ लेकर मेरे यहाँ 
                    आए। समझौते के अनुसार दोनों ओर के परिवारों के सदस्य एकत्र थे। 
                    सबके सामने वह पाँच लाख रुपए और महलनुमा कोठी दीदी को देकर 
                    भारमुक्त होना चाहते थे। जाने क्यों जीजा जी अपने 
                    हाथों से उन्हें यह सब देना चाहते थे। दीदी ने सामने आने से 
                    मना कर दिया, फिर ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगाकर मैं किसी तरह उसे 
                    बैठक में ले आने में सफल हो सका। दीदी की कृश-काया देखकर शायद 
                    उनकी अन्तरात्मा पसीज उठी होगी, उन्होंने कुछ झेंप कर आँखें 
                    झुका लीं और उसी तरह आँखें झुकाए-झुकाए ड्राफ्ट आगे बढ़ाया। 
                    दीदी एकटक जीजा जी को देखती जा रही थीं। उस कमरे में वह अन्य 
                    लोगों की उपस्थिति को भी भूल चुकी थी। उसकी पगलाई-सी आँखें 
                    मानो जीजा जी के उस चित्र को हमेशा-हमेशा के लिए अपने में 
                    अंकित कर लेना चाहती थी। बेसुध-सी वह खड़ी रही। जीजा जी का आगे बड़ा हाथ नीचे 
                    गिर गया। पाणिग्रहण बेला जैसा ही अर्थभरा यह विच्छेद का क्षण 
                    हो रहा था। हम सब ठगे-ठगे से खड़े जीवन-प्रांगण में घटित वह 
                    नाटक - अनोखा नाटक देख रहे थे। फिर हमने जीजा जी का स्वर सुना, 
                    ''चन्दा, तुमने मेरे लिए इतना किया - अब मैं इस ड्राफ्ट को 
                    लेकर आखिरी अहसान भी कर दो!'' जीजा जी की आवाज़ ने शायद 
                    उसके मन के किसी तार को छू लिया था। वह उनकी ओर उसी दृष्टि से 
                    देखती अनियंत्रित स्वर में बोली, ''नहीं, नहीं मैं यह ड्राफ्ट 
                    नहीं, ले सकती। दे सको तो तुम मेरे पिछले पच्चीस वर्ष लौटा 
                    दो...।'' और वह मेरे हाथों में अचेत 
                    होकर ढुलक गई।  |